चित्रकूट।
महर्षि वाल्मिकी कृत श्रीमद्भागवत रामायण पढ़ने के बाद चित्रकूट के रमणीय प्रदेश को देखने हम लालायित थे पर जा नहीं पाए। लेकिन इस बार महाकुंभ की यात्रा करते उस प्रांत से गुज़रते हुए उसकी सुगंध ज़रूर ले आए। मन तो बहुत था कि वहाँ रुके, परिभ्रमण करें लेकिन वॉल्वो का समयपत्रक इजाज़त नहीं दे रहा था।
चित्रकूट उत्तर प्रदेश राज्य और मध्य प्रदेश राज्य की सीमाओं को जोड़ता बुंदेलखंडी प्रदेश है। कामदगिरि पहाड़ियों और मंदाकिनी (पयस्विनी) नदी के प्रवाह के साथ बना यह क्षेत्र इतना रमणीय और सुंदर है कि महर्षि वाल्मिकी और महाकवि कालिदास उसका वर्णन करते हुए नहीं थकते। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने यहाँ वनवास के ११ साल बिताए थे।
श्रीराम २५ वर्ष के हुए थे और सीताजी १८ वर्ष की। राजा दशरथ को जो चाहते थे उसे करने में आ रहे विघ्न का अंदेशा आ गया था। वह जानते थे कि पट्टराणी का स्थान कैकेयी का था और उसका पुत्र भरत श्रीराम से सिर्फ़ एक ही दिन छोटा था। वह श्रीराम को युवराज घोषित करना चाहते थे इसलिए पुत्र भरत और शत्रुघ्न को भरत के ननिहाल कैकय (पाकिस्तान, गांधार के पूर्व का पेशावर प्रदेश) भेज दिया था। गुरु वशिष्ठ के परामर्श में उन्होंने श्रीराम को युवराज घोषित कर दूसरे दिन पदाभिषेक की तैयारी भी कर दी थी। अयोध्या की प्रजा आनंदित थी और सब लोग नगर को श्रृंगार करने में लग गए थे। लेकिन रात अभी बाक़ी थी। कैकेयी के कक्ष में दशरथ की लाचारी और कैकेयी के मातृप्रेम का आक्रोश दुःखद चित्र का निर्माण कर रहा था। वचन से बँधे दशरथ क्या करते? उन्होंने आदेश तो नहीं दिया लेकिन राम को १४ साल वनवास और भरत को राजगद्दी की मौन सहमति दे चुके थे। सुबह होते ही राम युवराज परिवेश के बदले तपस्वी परिवेश में आ गए थे। उनके साथ में सीताजी और लक्ष्मण भी चल पड़े। वनवास के नियम से श्रीराम बँधे थे, सीताजी और लक्ष्मण नहीं फिर भी उन दोनों ने भी तपस्वी वेश धारण किया था। हाँ, सीताजी अपने गहने साथ लेकर चली थी। श्रीराम को वनवास देने में राणी कैकेयी की शायद एक कूटनीति भी रही होगी। राम वन में रहते हुए अयोध्या राज्य को वन प्रदेश के हमलों से सुरक्षित रखेगा और भरत शांतिपूर्ण राज्य कार्य करेगा। श्रीराम और बाली संवाद में आर्यों के इस राज्याधिकार की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
वे तीनों अयोध्या (कोशल) राज्य की सीमा प्रदेश को पार कर श्रृंगवेरपुर से गंगा पार कर प्रयाग होते हुए २७०-७५ किलोमीटर की सफ़र कर चित्रकूट आए थे। सीताजी ने गंगा पार करते समय वापस लौटकर गंगाजी को १०० कुंभ चढ़ाने की मन्नत मानी थी। चित्रकूट में उन्होंने सुंदर कुटिया बनाई थी, वास्तु पूजा और बलिदान भी किया था और १४ साल के वनवास में से ११ साल रहे थे। भरत यहीं पर श्रीराम से मिलने आए थे और उनकी खड़ाऊ लेकर लौटे थे। जब राक्षसी हमले बढ़े और ऋषिगणों ने प्रदेश ख़ाली करना शुरू किया तो राम लक्ष्मण और जानकी को भी दक्षिण की ओर चलना पड़ा। पंचवटी में वे अपनी दूसरी कुटिया बनाकर रहने लगे लेकिन सुवर्ण मृग के मोह में भटके, सीताहरण हुआ और सीतायण शुरू हुई।
चित्रकूट आज भी रमणीय प्रदेश है। हम जब इस क्षेत्र से गुज़र रहे थे तब दो तरफ़ पहाड़ियों के बीच का मैदानी प्रदेश हरियाला मन लुभावन प्राकृतिक छटाओं से भरा था। उस क्षेत्र में दौड़ते हिरणों, नाचते मयूरों और बरसते बादलों को देखने की कल्पना तन-मन में रोमांच भर देती है। इस क्षेत्र में श्रीराम को पिता-माता, राज्य वियोग का दुःख रहा होगा लेकिन ११ साल तपस्वी जीवन जीने में अनुकूलता रही होगी। सीता वियोग का दुःख और रावण से युद्ध का कष्ट तो पंचवटी पहुँचने के बाद ही शुरू हुआ। वह भी कहानी कुछ और होती अगर लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान नहीं काटे होते। महाभारत के कुंती पुत्र भीम ने हिडिंबा से शादी कर रामायण की गलती दोहराई नहीं थी।
दो पहाड़ी क्षेत्रों के बीच के हरे भरे मैदानी प्रदेश को चिरती हुई हमारी बस चली जा रही थी। दायीं तरफ़ एक छोटा पानी का झरना, पेड़ पौधों से भरी पहाड़ी और वाल्मिकी आश्रम का क्षेत्र गुज़रा तब नीचे उतरने की ललक हुई लेकिन लक्ष्य प्रयागराज था इसलिए बस चलती रही। चित्रकूट जिला मथक ख़ास कुछ आकर्षक नहीं लगा। प्रयागराज महाकुंभ की वजह से यह क्षेत्र लक्ज़री और सादी बसों की पार्किंग भीड़ से भरा था। जगह जगह पर लोग छोटे छोटे जूथ बनाकर ज़मीन पर बैठे थे। कोई खाना पका रहे था, कोई परोस रहे थे और कोई खा रहे थे। शायद यहाँ उतरकर चित्रकूट धाम जाकर मंदाकिनी नदी का मंद मंद प्रवाह देखते, राम घाट पर नहाते, जानकी कुंड जाते, स्फटिक शीला निहारते और कोई कौआ आ जाता, हनुमान धारा देखते सीता रसोई का स्वाद लेते और त्याग की स्पर्धा में लगे दो भाई भरत और राम के मिलन के भरत कूप को देख पाते तो अधिक ऊर्जावान हो जाते।
अगर चित्रकूट जाते तो तुलसीदास कैसे भूल जाते?
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर;
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुवीर।
तुलसीदास जी ने संस्कृत कीं रामायण को लोकभाषा अवधी में जनमानस में चल रही राम कहानियाँ और किंवदंतियों को जोड़कर रामचरितमानस का संस्करण किया। जैसा समाज और समाज का दृष्टिकोण इसे प्रतिबिंबित किया।
अगली बार चित्रकूट धाम।
जय श्रीराम।
पूनमचंद
३ फ़रवरी २०२५
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