पवित्र स्नान
श्रद्धावानम् लभते ज्ञानं, संशयात्मा विनश्यति। जहाँ ह्रदय की श्रद्धा जुड़ी हो वहाँ बुद्धि के तर्क का कोई काम नहीं।
गंगा के तट पर ६० करोड़ लोग रहते है। फिर भी जो प्रयागराज आए उसमें ७०-८० प्रतिशत उसी तट के वासी थे। बिहार और झारखंड का एक एक गाँव आया होगा। मैंने एक बिहारी परिवार को पूछा कि गंगा आपके गाँव के बगल से बहती है और इस संगम का जल वहीं को आता है फिर भी यात्रा का कष्ट सहन कर, यहाँ ३०-४० किलोमीटर पैदल चल, खर्चा कर क्यूँ आए? उन्होंने बताया, यहाँ त्रिवेणी संगम है। गंगा यमुना के साथ गुप्त सरस्वती है। सरस्वती के स्थान पर स्नान करने से हम पवित्र हो जाएँगे। बस श्रद्धा का सवाल है।
जिस दिन अमावस्या के हादसे से ३० लोगों की जान गई उस के दूसरे दिन हम पहुँचे थे। उस सुबह जब हम चाय के लिए झाँसी से आगे चित्रकूट की ओर एक गाँव रूके तो दुकान की अनपढ महिला ने पूछा कि लोग मर रहे हैं फिर भी आप लोग क्यूँ जा रहे है? आपके घर वही पानी आता है। गंगा का पानी दरिया में जाता है, सूरज इसे उठाता है और बादल बन बरसता है। किसी के पास कोई जवाब नहीं था।
महत्वपूर्ण बात है पवित्रता की। वह ज्ञान के स्नान से आएगी अथवा गंगा स्नान से। जो भी देहात से आए, डुबकी लगाकर कुछ अच्छा करने और किसी का बूरा न करने का संकल्प लेकर गये। अगर घर बैठे सबकी भलाई की सोच लेकर चल रहे हैं तो गंगाजी का स्नान हो रहा है। गंगा स्नान मस्तक पर करना है जहाँ मेरा-तेरा, ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब इत्यादि मैल भरा हुआ है।
मैल मिटाना मुख्य है। चाहे प्रयागराज जाकर मिटाओ अथवा घर में नहाकर। मन का पवित्रीकरण नहीं हुआ तब तक सब व्यर्थ है।
पूनमचंद
१९ फ़रवरी २०२४
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