शुद्धात्मा।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं किः
अव्यक्तादिनि भूतानि व्यक्तिमध्यानि भारत | अव्यक्तनिधानन्येव तत्र का परिदेवना || 2.28|| अर्थात्ः है भारतवंशी! सभी प्राणी (जन्म से पहले) अव्यक्त रहते हैं, मध्य (जीवन) में प्रकट रहते हैं और मृत्यु पर पुनः अव्यक्त रहते हैं। फिर शोक क्यों करें?
आगे कहते हैः.अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतशयस्थित: | अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||10.20|| अर्थात् मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं सभी प्राणियों का आदि, मध्य तथा अंत हूँ।
इस पृथ्वी पर जीवों के जन्म मरण का खेल हमारी आँखों के सामने चल रहा है। खर्बों आए और चलें गए। पंच तत्व से बने पुतलें प्रकट होते है. जीते हैं और फिर बिखर जाते है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का यह खेल कहें या अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय शरीरों का बनना और बिगड़ना; सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, स्थिति और लय का यह सिलसिला अविरत चल रहा है। क्या यह प्रकृति का ही तो खेल नहीं?अव्यक्त प्रकृति विविध रूप लिए व्यक्त (प्रकट) होती हैं, उस रूप में खेलती हैं और फिर अव्यक्त (अप्रकट) हो जाती है। क्या उसमें रहा चालक चैतन्य प्रकृति खुद है या जैसे भारतीय दर्शन कह रहे हैं वह पुरुष है? भगवान श्रीकृष्ण उसे आत्मा कहते हैं जो सर्व प्राणियों के ह्रदय में निवास करता है और वह उनका आदि, मध्य और अंत है। अर्थात् जीव की आरंभ से लेकर अंत तक की यात्रा का वह सहचर है, चालक है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हमें आत्मा की खोज करनी है तो हमारी ह्रदय गुहा में करनी चाहिए। ह्रदय गुहा किसे कहते है? वह कहाँ है? उसमें कैसे प्रवेश करें? कैसे देखें? कौन किसको देखेगा? देखने से क्या होगा? इत्यादि प्रश्नों की श्रृंखला खड़ी हो जाएगी लेकिन मनुष्य के दिल में जो प्यास है, अशांति है, जो व्यग्रता है, उसका तब तक शमन नहीं हो सकता जबतक वह आत्मा की खोज कर अपने सच्चे स्वरूप की पहचान नहीं कर लेता।
कल परिवार के साथ हम गांधीनगर के नज़दीक स्थित त्रिमंदिर गए थे। स्वच्छ, सुंदर मंदिर है और सात्विक भोजनालय है। हमने संध्या आरती में हिस्सा लिया और हॉल में लगाए विचार वाक्यों को पढ़ा और मंदिर के ज्ञानी पुरूष के जीवन पर बनी एक छोटी प्रदर्शनी को देखा और पढ़ा।
वह पेशे से थे तो एक ठेकेदार, लेकिन बचपन से ही आत्मा और गुरु के विषय में संदेह करने और उसका समाधान खोजने की चित्त वृत्ति की वजह से वह तत्व चिंतन में लगे रहे थे। सहसा एक शाम जून १९५८ में जब वह रेलगाड़ी आने की प्रतीक्षा में स्टेशन पर लगी बेंच पर बैठे थे तब उनके ह्रदय में ज्ञान प्रकट। क़रीब दो घंटे के उस आंतरिक प्राकट्य ने उनके सारे प्रश्नों और सृष्टि रहस्य का समाधान कर दिया। उस प्राकट्य को ही उन्होंने ‘दादा भगवान’ अथवा ‘शुद्धात्मा’ नाम दिया है। वह कहते हैं कि वह व्यक्तिगत रूप से अब एक ज्ञानी पुरूष हैं और खुद भी आपकी तरह दादा भगवान की पूजा करते है। हममें और उनमें भेद बताते हुए वह कहते कि उनमें भगवान व्यक्त स्वरूप में हो गए और हम सबमें अभी वह अव्यक्त है। हम भी उस शुद्धात्मा तक पहुँच सकते है, हममें भी उसका प्राकट्य हो सकता है जिसके लिए मन के मैल हटाकर उस शुद्धात्मा की शरण में जाना होगा। उसको गुरु बनाकर उसकी आराधना पूजा करनी होगी।
अब गीता संदेश और दादा भगवान की कथा दोनों को जोड़कर देखें तो कुछ बात स्पष्ट हो जाएगी।
अद्वैत के पटल पर भले हम एक माने लेकिन व्यावहारिक पटल पर दो है। एक प्रकृति और दूसरा पुरूष। प्रकृति की कोख से जन्मा हमारा यह शरीर जन्म, विकास और मृत्यु की यात्रा कर अव्यक्त से व्यक्त और फिर अव्यक्त हो जाता है। लेकिन इस यात्रा में चालक चिनगारी आत्मा का क्या हुआ? हमारे पंच भौतिक शरीर, दस इन्द्रियां और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से हम अपनी अपनी योनी अनुसार आयु यात्रा कर लेते है लेकिन उसकी रोशनी जिस दीये से आ रही है उसका पता नहीं चलता। वही आत्मा गुडाकेश को जो हमारे ह्रदय की गुहा में बिराजमान है उसका ज्ञानी पुरुष अंबालाल पटेल की तरह प्राकट्य हो जाए यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य अथवा सार्थकता है, ऐसा अर्थ हम ले सकते है।
सवाल उठेगा कि प्रश्नों की जो श्रृंखला चित्त में चल रही है उसका क्या? संदेह का समाधान न हो तब तक मान नहीं सकते और समाधान हुए बिना संदेह जा नहीं सकता। पेंच फँसा है। कैसे बाहर निकले?
सत्संग में लगे रहिए और ह्रदय गुहा में बैठे शुद्धात्मा को पुकारते रहिए। उसे प्यार करें, दुलार करें, प्रार्थना करें। एक दिन प्राकट्य होना निश्चित है।जिस दिन हुआ फिर कभी जा नहीं सकता। एकबार घड़ी देख ली फिर कोई हटा भी ले उसका ज्ञान नहीं जाएगा। एक बार गुड़ खा लिया फिर उसके स्वाद का ज्ञान नहीं जा सकता। फिर यहाँ तो शुद्धात्मा का पूर्ण प्राकट्य है, कैसे अदृश्य होगा? पूरी चाल और चरित्र बदल जाएगा। एक दीया जला, दूसरे दीयों की लौ जलाने में लग जाएगा।
दीया है, जल भी रहा है, बस हमनें अपनी तृष्णाओं से उस पर एक काला पर्दा लगा रखा है। उस पर्दे को हटाना ही कर्म है। जैसे पर्दा उठा वह ज्योति प्रकट है, प्राकट्य हो जाएगा। जीवन धन्य हो जाएगा।
चलते रहो।
पूनमचंद
२९ दिसंबर २०२४
सुंदर
ReplyDeleteआध्यात्मिक रहस्यों को समझने की तीव्र छटपटाहट और इस क्रम में उसकी विवेचना का वैदुष्यपूर्ण प्रयास । संदर्भ को समझने के लिए गीता , अद्वैत - दर्शन , सांख्य- दर्शन और बौद्ध- दर्शन का सुंदर समन्वय । प्रणम्य लेख ।
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