Saturday, December 28, 2024

आत्म व्याप्ति।

आत्म व्याप्ति। 

यह कहानी १९९६ की है। उस वक्त के एक प्रसिद्ध संत के आश्रम में मेरी भेंट एक समर्पित साधक से हुई और बाद में उससे घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। वह धीरे-धीरे खुलता गया और अपनी साधना के कुछ कुछ राज खोलता गए। 

एक दिन उसने मुझे बताया कि वह बहुत महिने तक गुरु मंत्र जाप करते करते और यम नियम का पालन करते करते थक रहा था। योग वशिष्ठ का पाठ भी नियमित कर रहा था। लेकिन जिसे साक्षात्कार कहते हैं वैसा कुछ घटित नहीं हो रहा था। इसलिए एक दिन जब उनके गुरुजी आश्रम में थे तब उसने हठ कर ली कि आज या तो साक्षात्कार होगा अथवा इस शरीर का त्याग। आश्रम में एक वटवृक्ष था। श्रद्धालु उस पेड़ की प्रदक्षिणा कर अपनी मन्नत मानते थे या पूरी करते थे। मेरा मित्र भी सुबह होते ही उस पेड़ की प्रदक्षिणा करने लग गया। आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे, चार घंटे, भूखा प्यासा वह बस घूमता रहा। मन में एक ही दृढ़ संकल्प कि आत्म साक्षात्कार करना है। पूरा दिन चल गया। शाम होने लगी। आश्रमवासी पहले तो इस धटना को सामान्य देख रहे थे लेकिन आज जिस प्रकार वह चल रहा था सबको ताज्जुब हो रहा था। एक दूसरे को पूछते थे इसे आज क्या हो गया है? बात उनके गुरुजी तक पहुँची। उन्होंने उसे बुलाया। लोग पकड़ के ले गए। गुरुजी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछा, क्या चाहिए? उसने कहा आत्मसाक्षात्कार। गुरुजी ने कुछ हलके से कहा और उसे सँभालकर ले जाने को कहा। लेकिन वह फिर वापस गया और पेड़ की प्रदक्षिणा करने लगा। सहसा उसने अनुभव किया कि उसकी अपनी चेतना का विस्तार होने लगा। आसपास के लोग, आश्रम, शहर, मंडल, देश, पृथ्वी, अंतरिक्ष सब को पार करता वह बड़ा होता चला गया। फिर तो सूरज, चाँद, सितारे भी समाने लगे। उसकी मनोस्थिति आह्लादित हो चूकी थी और बड़े अचरज से वह अपना विस्तार देखता रहता था। उसके अंदर का लघु मनुष्य और उसकी नाम पहचान ग़ायब हो चूकी थी। वह चैतन्य व्याप्ति की उस सफ़र में था जहाँ उसे सबकुछ अपना ही विस्तार नज़र आता था। पृथ्वी मानो एक गेंद की तरह थी। उसकी इसी मनोस्थिति में आश्रम के उसके मित्र उसे पकड़कर इधर उधर ले जाते, खाना खिलाते लेकिन वह कुछ बोलता नहीं था। बस मुस्कुराते चेहरे से बिना पलक झपकाई आँखों से चारों और देखता रहता था। मित्र लोग जो खिलाएँ खा लेता था जो पिलाएँ पी लेता था। वह सो नहीं पा रहा था और आश्चर्यचकित होकर इधर उधर देखता रहता था। उसकी यह अनुभूति ढाई दिन तक बरक़रार रही। उसके मित्रों ने हार थककर उसे किसी होटल में ले जाकर कुछ बाहरी सामान खिलाया। खाने के बाद वह गहरी नींद में सो गया। जब उठा सामान्य हो गया। उसकी अनुमति ग़ायब हो गई। उसके बाद पूरे जीवन उसने उस अनुभूति को पाने का भरपूर प्रयास किया, सब तरह के प्रयत्न किए लेकिन उसे वापस हासिल नहीं कर पाया। कुछ साल हुए उसकी मौत भी हो गई। योग वसिष्ठ में वसिष्ठ मुनि सूक्ष्म शरीर के ज़रिए अंतरिक्ष को लाँघ भिन्न भिन्न सृष्टियाँ देखते गमन कर रहे थे यह कहानी उसने बार-बार पढ़ी हुई थी। इसलिए शायद उसे आत्म व्याप्ति का उपर्युक्त अनुभव हुआ हो। 

लोग आत्मसाक्षात्कार के भिन्न भिन्न अर्थ करते है। कोई कहता है ज्ञान हो जाता है। कोई कहता है कि अज्ञान दूर हो जाता है। कोई कहता है कि उसकी आँखों की पलक झपकना बंद हो जाती है। कोई कहता है कि वह जब आँख मुँद लेता है तो अंदर की दुनिया में और खोलता है तब बाहर की दुनिया से जुड़ जाता है। कोई कहता है कि वह चिद्, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया से भरा पूर्णोहं हो जाता है। उसकी पंच शक्ति अमर्यादित होने से वह अपने संकल्प से इच्छानुसार सृजन, पालन, विसर्जन, निग्रह, अनुग्रह कर सकता है। कोई कहता है कि वह अपने को सारे ब्रह्माण्ड में सारे ब्रह्माण्ड अपने में व्याप्त अनुभव करता है।कोई कहता है कि जब रात होती है तो उसका स्थूल शरीर बिस्तर पर होता है लेकिन वह गगन विहार कर लेता है। कोई कहता है कि उसने मुझे दर्शन दिए। कोई कहता है कि वह चाँद में आकृति बन बैठ गया। यहाँ तरह तरह की कहानियाँ सुनने को मिलेगी। 

लेकिन साक्षात्कार हुआ या नहीं यानि क्या हुआ वह होनेवाले के सिवा और कोई कैसे बताएगा? जिसने गुड खाया नहीं वह गुड़ के गुणगान कितने भी सुन लें, गुड़ का स्वाद नहीं पा सकता। हाँ उसकी आर्द्रता, द्रवता, दया, करूणा, प्रेम, अशत्रुता के गुणों को देखकर हर कोई कह सकता है कि वह बदल गया है। उसने वास्तव में कुछ ऐसा पाया है, कुछ ऐसा अनुभूत किया कि पुराना वह मिट चुका है और नित्य नवीन वह सबका हो चुका है। अपनी लघु चेतना से बाहर निकल वह सर्व व्यापक, सर्व समावेशी अनंत चेतना स्वरूप हो चुका है। जब एक ही हो गया तो किसका विरोध करेगा और किससे बैर? अखंड आनंद कूटस्थ घन शिव ब्रह्म  वह अमृतसर है, गंगा है, जिसका सानिध्य मिल जाए तो पूरा नहीं तो भी गुड़ की सुगंध का स्वाद मिल जाता है। उसके गुणों को देखकर कुछ अपने गुण विकसित होना शुरू हो जाते है। शनैः शनैः हमारी भी आत्मसाक्षात्कार यात्रा शुरू हो जाती है। कुछ तो है जो मिले बिना आत्म प्यास नहीं बुझती। सदा सर्वदा सर्वकाल मौजूद। एक परमाणु जितना अंतर नहीं और एक त्रृटि जितनी दूरी नहीं। चले चलो। 

पूनमचंद 

२८ दिसंबर २०२४

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