Friday, December 27, 2024

आत्म संकोच।

आत्म संकोच। 

सृष्टि के रहस्य को खोजने कई संस्कृतियां सदियों से लगी है। वैज्ञानिक स्टीन्ग्स, फ़ोटोन और गॉड पार्टीकल तक पहुँच गए लेकिन चेतना का पता नहीं लगा पाए। बायोलॉजीस्ट्स डीएनए आरएनए के पार नहीं निकल पा रहे है। लेकिन प्राचीन भारतीय दर्शन परंपरा ने उसका सत्य अर्थ करने का भरपूर प्रयास किया है। 

दर्शनों की श्रृंखला में एक दर्शन है कश्मीरी शैवों का। हल्का सा भिन्न है शंकराचार्य के अद्वैत से। अद्वैतवाद माया को मिथ्या कहता है और कश्मीरी शैव सत्य। एक तरफ़ सांख्य के २४ प्राकृतिक तत्वों और पुरुष से बनी सृष्टि है वहाँ कश्मीरी शैवों की ३६ तत्वों की दुनिया है। परम का प्राकट्य यह विश्व है जो आत्म संकोच से बना है। शिव से पृथ्वी तक अवरोह क्रम से संकोच बढ़ता गया और रंगमंच और नाटक सजता गया। 

भौतिक वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है की यह विश्व एक ऊर्जा ही है जो पदार्थ भी बना हुआ है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का पंचीकरण कुछ इसी बात को समझाता है। पदार्थ का संकोच तो समझ में आता है लेकिन वह चेतना का ही संकोच है यह क़बूल करने में अभी वक्त लगेगा। परंतु पृथ्वी पर जो चैतन्य सृष्टि है उसमें भी आत्म संकोच स्पष्ट नज़र आता है। ८४ लाख योनियों में पनप रही जीव सृष्टि एक कोशिकीय से लेकर करोड़ों कोशिकाओं से बनें है। कोई जीव एक इन्द्रिय है, कोई दो, कोई तीन, कोई चार और मनुष्य सृष्टि पाँच ज्ञानेन्द्रियों से बनी है। इन्द्रियों के पीछे उसके चालक मन और बुद्धि हर कोई जीव में उसके जीवन क्रम को चलाने सही प्रोग्रामिंग करके बैठाए हुए है। हर योनि को अपना प्रोग्राम चलाने शरीर मिला हुआ है। अकस्मात और आपत्तियों को छोड़ सबकी अपनी अपनी जीवन रेखा बनी है जो क़ुदरती क्रम से जन्मता है, पनपता है और बिखर जाता है। हर जीव के चेतना प्रवाह को देखकर उसके संकोच और मर्यादा का पता चल जाता है। कुछ हद के बाहर उसके कर्म और शक्ति की मर्यादा आ जाती है। वही तो आत्म संकोच है। मनुष्य योनि में भी ८०० अरब लोग एक जैसे नहीं है। हर कोई का मन बुद्धि अलग होने से और शारीरिक रचना में भौगोलिक स्थान अनुरूप ताक़त और कमजोरी के चलते भिन्नता नज़र आती है। चेतना के संकोच और विस्तार के स्तर से कोई ज्यादा बुद्धिमान तो कोई कम नज़र आता है। हर किसी के आत्म संकोच का स्तर अलग-अलग  है। इसलिए आत्म विस्तार की सबकी यात्रा का आरंभ बिंदु अलग-अलग है। 

गंतव्य सबका एक है, अपने सच्चे आत्म स्वरूप का पूर्णोहं अनुभूत करना लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले कब यह चेतना का तार इस शरीर से विमुक्त हो जाए पता नहीं। इसलिए पुनर्जन्म की बात आई कि आपका चला विफल नहीं जाएगा। जहाँ से अटके हो फिर एक नए साधन-शरीर से यात्रा आगे चलेगी। चले चलो का नारा एक दूसरे को इस पथ पर चलते रहने में ऊर्जा देता रहता है। वैसे भी सौदा फायदे का है। जितना जितना आत्म संकोच कम होता जाएगा और व्याप्ति बढ़ेगी, अपना ह्रदय विस्तारित होता जाएगा, जिसमें सर्व समावेशी वृत्ति का विकास होगा जो ब्रह्माकार अथवा शिवाकार तक ले जाएगी। वर्ना एक तरफ़ बात करेंगे आत्म विस्तार की और दूसरी तरफ़ वर्ण, जाति, धर्म में मनुष्यता को विभाजित कर आत्म संकोच बनाए रखेंगे तो काम नहीं बनेगा। 

सब शिव ही है, शिव का शक्ति रूप प्राकट्य है, लेकिन पहचान जो छिप गई है उसे उजागर करने जो चले हैं उनका ध्यान मंजिल से भटकना नहीं चाहिए। ‘न शिवम् विद्यते क्वचित्’ कहकर सब शिव हैं इसलिए मैं भी शिव हूँ, यह मानसिक अभिमान आ सकता है लेकिन शिवत्व नहीं। प्रत्यभिज्ञा करनी है तो आत्म संकोच दूर करने के मार्ग पर लगे रहना है। विशेष मिट सामान्य और सर्व समावेशी होते जाना है। जब शिव को विरोध नहीं, शक्ति को विरोध नहीं, फिर भला आप और हम कौन? चले चलो। मुक्ति का द्वार हमारे भीतर है। 

पूनमचंद 

२७ दिसंबर २०२४

0 comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.