जीवन का उद्देश्य।
दो दिन पहले एक गाँव में एक शिक्षित युवक से भेंट हुई। ऊँचा क़द, काला शर्ट और लम्बे बाल। वह अमेरिका से एकाध महिने के लिए अपने माता-पिता के साथ भारत आया हुआ है। उसकी उम्र होगी क़रीब २५ साल। उसने गुजराती में वार्तालाप शुरू किया। वह गुजराती लिखना पढ़ना नहीं जानता लेकिन मातृभाषा उसी गाँव की उपभाषा के लहजे में बोल लेता है। मुझे संवाद में मज़ा आ रहा था इसलिए कुछ निजी बातें कर ली। क्या कर रहे हो? कहा नौकरी। किसकी नौकरी। कहा, अपने पिता का मोटल है वह चला रहा हूँ। पूछा क्या पढ़े हो? बताया कि एमबीए फ़ायनेंस। फिर भी मोटल चला रहे हो? वह तो नहीं पढ़ते तब भी कर लेते, मैंने ज़रा उकसाया। नहीं नहीं मुझे तो ढेर सारा डॉलर कमाना है। कैसे बनाओगे? फैक्ट्री खोलोगे? कई दुकान करोगे? बिल्डर बनोगे? डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी खोलोगे? लिकर शोप खोलोगे? कैसे डॉलर बनाओगे? हमारे यहाँ सुरत में चौथी-पांचवीं पढ़े लोग इतना कमाते हैं कि रुपयों से गोदाम भर जाती हैं। मैंने प्रश्नों की झड़ी चला दी। नहीं नहीं, एमबीए फ़ायनेंस किया है इसलिए फ़ायनेंस की ख़बर रहती है कि कैसे डॉलर की कमाई बढ़ाई जाए। जैसे कि एक नहीं लेकिन ५०-१०० मेटलों का मालिक बन जाना और उसको चलाना। बस जीवन का एक ही उद्देश्य है, खूब सारा डॉलर बनाना।
मुझे वहाँ की शिक्षा में दिलचस्पी हुई। पूछा वहाँ के नागरिकों के लिए मुफ्त होगी? नहीं, वहाँ हर सेवा का डॉलर लगता है। ग्रेजुएशन की शिक्षा में नागरिकों को एक साल की फ़ीस $ १०००० से ८०००० लगती है। सामान्य कॉलेज $१०००० लेगी और हार्वर्ड में $८०००० होंगे। अगर फेल हुए तो दूसरी बार फ़ीस लगेगी। हॉस्टल, खान-पान, परिवहन सब अलग। बाहर के विद्यार्थी के लिए यह फ़ीस दुगुना या उससे भी अधिक हो सकती है। अब पढ़ाई में इतना खर्च लगा तो पढ़ने के बाद वसूली तो करनी होगी।
अगर इतनी कठिनाई है फिर भी क्यूँ भारतीय और खास करकें गुजराती पटेल क़र्ज़दार होकर भी अमेरिका जाना चाहता है? मैंने उसकी गहराई नापनी शुरू की। मुझे भी नहीं समझ आता। यहाँ थोड़ी कमाई में अच्छा फ़्री जीवन है फिर भी पता नहीं क्यूँ लोग वहाँ आना चाहते है। वहाँ आकर एक मोटल के कमरों के जीवन से ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होना है। तीन-चार साल की मजबूरी से कुछ नहीं होना है। १५-२० साल के बाद ही कुछ कमाई दिखती है। तब तक तो जीवन की शाम ढल चूकी होती है और नई पीढ़ी अमेरिकन जीवन की आदी हो जाती है। न भारत वापस जा सकते हैं न डॉलर की दौड़ में टिक पाते है। यहाँ सही चल रहा है तो नहीं आना चाहिये। वह अपना तर्क लगा रहा था।
तुम क्यूँ नहीं आ जाते? नहीं नहीं मुझे तो ढेर सारा डॉलर कमाना है। एमबीए फ़ायनेंस किया है। यहाँ तो उकताना हो जाएगा। आज शादी में गया था। देखते देखते थक गया। लड़का लड़की शादी कर रहे थे और हमारा पूरा दिन देखने में चला गया। बोरिंग हो गया। उसे फुरसतवाले जीवन से अच्छा नहीं लग रहा था।
अब चले भारत की ओर। यहाँ सरकारी शिक्षालयों की शिक्षा लगभग मुफ्त है। कन्याओं को उच्च शिक्षा भी मुफ्त है। मेडिकल के अलावा बाक़ी शिक्षाओं में निजी संस्थाओं की फ़ीस भारी नहीं जितनी की अमेरिकी। ६० प्रतिशत आबादी को फ़्री या रियायती राशन उपलब्ध है। सरकारी अस्पतालों में मेडिकल सुविधाएं लगभग मुफ़्त है। निजी संस्थानों में इनपेशेंट सेवा में पीएमजय योजना से सरकारी सहाय से इलाज हो जाता है। घर बनाने में फ़ायनेंस और सरकारी सहाय उपलब्ध हो जाती है। पानी का किराया कम है या लोग नहीं भरते। बिजली सस्ती है।सोलर ऊर्जा ने और सस्ता कर दिया। परिवहन सस्ता है। मोबाइल भी कम लागत से चल रहा है। खाना फुटपाथ से खा लो तो घर के बराबर खर्चे में निपट जाता है। अर्थव्यवस्था की गति के लिए अथवा वॉट की राजनीति के लिए मुफ्त की योजनाओं के नोट भी मिल जाते है। देशीवालें को देशी और विदेशी के चाहक को विदेशी मिल जाती है। गुटका, तम्बाकू और मोबाइल रीचार्ज के पैसे की कमी नहीं रही। दूध की थैली लेने बाइक पर कीक लगानेवाले बढ़ गए है। सरकार अगर तेल पर जीएसटी लगा लेती तो यहाँ के शहरों के रोड वाहनों से भरे है, कार्यस्थल पर पैदल ही जल्दी पहुँच जाएँगे। गाँवों में पहले बैल ज़्यादा दिखते थे फिर उनका स्थान ट्रेक्टर्स ने लिया अब बाइक भर गए और शान की सवारी कार हमारी बढ़ रही है। जीवन में यहाँ फुरसत ही फुरसत है। कई लोग दिन में सात आठ घंटे व्हाट्सएप और यूट्यूब देख लेते है। जहाँ देखो वहाँ सोश्यल मीडिया के भूत सवार है। लोग व्हाट्सएप युनिवर्सिटी के ज्ञान से बहसबाजी कर रहे है। गूगल महाराज ने दिमाग़ की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिये है। मोदी जी कैसे राज करे और राहुल कैसे विरोध, सलाहकारों की भीड़ लगी हुई हैं।
अमेरिका हो या भारत, सब जगह सुविधा चाहिए, पैसे चाहिए, अपनी मर्जी का जीवन सुख चाहिए और ऐसा करते करते नैतिक मूल्यों का ह्रास हो उससे ग्लानि कम हो रही है। यह नया विश्व है।
पूनमचंद
१७ दिसंबर २०२४
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