Tuesday, September 24, 2024

Formless Form

Formless Form

Prajna is the light in the darkness. Void or Self, there is unity in formless non duality. Physicists are busy in study of the forces that put the existence in existence: gravity and quantum gravity of electromagnetic interaction, the strong and weak nuclear forces; the end result may be voidness. But the causality of existence is still a mystery. Who and why was it brought up? 

One who crosses (पारमिता) the borders of duality may attain the unity of non duality, the voidness or the self. 

Either say: 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

or 

शून्यमदः शून्यमिदं,शून्यात् शून्यमुदच्यते। शून्यस्य शून्यमादाय, शून्यमेवावशिष्यते।।

None can explain without experience. And to explain, one needs a mind, mind and form are interdependent, mind can’t express without form and without form mind can’t be expressed. 

The root cause is ignorance and it can’t go away without following Prajna Pramita either of Buddha or Shankara.

Punamchand 

24 September 2024

Friday, September 20, 2024

आत्मा-अनात्मा (self - no self)

आत्मा-अनात्मा (self- no self) 

How could we teach the mystery of creation and bondage through an example other than us when we ourselves is a great example of the mystery? How to break the ignorance? How to cross the body-mind-ego identity and realise the truth? How to move from the reflective I to the real I? There are many questions with different-confusing answers. 

Mirror has been used as an example. Imagine that the image person in the mirror is the body-mind-ego identity of the real one who is out of the mirror. The real I of the mirror in this example has a form but the real I which we are trying to realise is formless and has form (विश्वोर्तीर्ण, विश्वरूप). Can the image person realises the real person? Will it be possible for him to reach out to the real by putting all his efforts?

Buddhism helps here. It teaches that we are anatma. It calls the Chetana as Vigyan which is a flow of energy like a flame of a lamp though looks constant but changing continuously with continuous replacement of the previous. Five skandh (रूप-पदार्थ, वेदना-संवेदना, संज्ञा-विषय, संस्कार-मानसिक गठन, विज्ञान-चेतना-जागरूकता) for them are parts of the physical world. Five skandha is another way of presenting physical, subtle and causal bodies. Buddhism believes in the theory of karma and rebirth but call it भव संसरण of संस्कार, the thread of desire carried forward on the vehicle of vigyan-consciousness. Our belief of journey of birth and rebirth is through the subtle (पूर्यष्टक) body. 

Our teaching of calling ourselves Atma many times becomes a road block in leaving our body-mind-ego identity of the self. Instead of unification of all creatures and the visible world as manifestation of one Atma (विश्वरूप), we end up in differentiating ourselves with I, you and they. Our likes and dislikes remain as they are. To identify ourselves Anatma (no self) is a quick solution of the problem of leaving body-mind-ego identity. If we carefully analyse, our body-mind-ego identity is not the Atma (self) but Anatma (no self). We have also place them in the compartment of ignorance, the bodies or koshas. As soon as we accept the image person as Anatma, the bondage of I limited to the image disappears. Our borders break and we enter into the vast ocean of emptiness. Remember the journey from सकल to अकल taught in KSD. If we don’t follow any taught model of self hypnosis, the pure I or no I, reveals its identity itself. How a compressed चित्त acts and how the expanded चिति express, the realised one only can experience. What is truth and what is the play, unless one goes through the experience of realisation, the ignorance can’t go. शनैः शनैः one has to continue on the path through a process of शील (सात्विक जीवन), समाधि (meditation to resolve संदेह) and प्रज्ञा (pure intellect - pure wisdom) to overcome ignorance. It’s a process of merger of a drop into the ocean. The drop is not lost but it realises its true state, the water, of which the drop and the ocean are made. Truth is not hidden, removal of the cover-मल is the process to uncover it. Shakti-universal consciousness- विज्ञान helps. 

To start with ‘no self’ (अनात्मा) may be another way to make the process faster. 

Punamchand 

20 September 2024

Sunday, September 8, 2024

मायापुरी (unreal universe)

मायापुरी (not locally real: unreal universe)

साक्षात्कार किताबों और प्रवचनों से नहीं होता, अनुभव में आना चाहिए। वे मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन स्वरूप स्वानुभूति ही प्रमाण रहेगा। मोटे तौर पर दो विश्व मानते है; एक दृश्यमान और दूसरा अदृश्य। दूसरे को विश्व कहे या कुछ और, नहीं पता।

सब जीवों में मनुष्य जटिल दिमाग़ लेकर जन्मा है इसलिए सृष्टि के रहस्यों की खोज में वह सदियों से लगा हुआ है। पहले तो पृथ्वी को केन्द्र मानकर चल रहा था लेकिन फिर सूरज को केंद्र बना दिया। आगे चलकर वैज्ञानिक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गति के सिद्धांत देकर विश्व को २०० साल तक अपनी आँखों से चलाया। फिर आया वैज्ञानिक आइन्स्टाइन जिसने सापेक्षवाद और दिक्-काल के सिद्धांतों से हमारी नज़र ही बदल दी। फिर आए बोहर, वर्नर, पौली इत्यादि; क्वांटम यांत्रिकी लाकर भौतिकी असल दुनिया (particle) को नक़ली और उसके नीचे की स्पन्दित दुनिया (wave) को आगे कर दिया। भौतिक दरिया लहर के समुद्र पर जैसे तैर रहा है। सब तरंगें एक ही है, एक साथ जुड़ी है, सब पानी है। तीन वैज्ञानिकों की ‘the universe is not locally real’ शोध को नोबेल पुरस्कार (२०२२) भी मिल गया। तरंगों की दुनिया जिसमें एक अणु दूसरे से जुड़ा है। चाहे कितना भी दूर हो, प्रकाश की गति से भी कईं गुना अधिक, तुरंत, एक का बदलाव दूसरे को बदल देगा। एक दक्षिणावर्त (clockwise) चलेगा तो दूसरा वामावर्त (anti-clockwise)। ऐसा लगता है दोनों दूर होते हुए भी एक दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में है, और संतुलन बना रहे है। एक का बदलाव दूसरे को तुरंत बदल देता है। हम quantum entanglement and quantum teleportation के ज़रिए Quantum computer के जमाने में आ गए। संचार अब तुरंत, प्रकाश की गति से भी ज़्यादा तेज़ी से होगा।

जो चीज़ वैज्ञानिक भौतिक जगत की प्रयोगशाला में खोज रहे हैं वह हमारे प्राचीन ऋषिगण अपनी चेतना में ध्यानस्थ होकर टटोल रहे थे। किसी एक विषय पर केन्द्रित होकर वे उनका अवलोकन निष्कर्ष दे रहे थे। कुछ हज़ार साल पहले हिन्दुस्तानी दिमाग़ ऐसा तेज था यह अचरज की बात है। 

पूरा विश्व एक दूसरे से जुड़ा है; सतह के नीचे चल रहे स्पंदनों का दृश्यमान रूप है। दृश्यमान जगत परिवर्तनशील है इसलिए मिथ्या है लेकिन जिस पर्दे पर उसका खेल चल रहा है वह सचेत-जागरूक-चेतना एक एवं अपरिवर्तनशील है। चेतना के पीछे क्या है किसी को नहीं पता। उस अनिर्वचनीय को कईं नाम दिए गये लेकिन कोई बयान नहीं कर सकता। प्रकाश और विमर्श। विमर्श के भी दो रूप, दृश्यमान जगत और अदृश्य शक्ति। शक्ति के भी दो रूपः शिव और शक्ति, entangled, एक का उन्मेष दूसरे का निमेष, परस्पर, एकसाथ।

बाह्य जगत को भोगने हमारे पास साधन है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार। एक रथी (सीमित चैतन्य-जीव), दूसरा सारथी (बुद्धि), तीसरा लगाम (मन) और चौथे घोड़े (इन्द्रियाँ)। लेकिन अक्सर देखा जाता है की सामान्य जनसमूह की इन्द्रियाँ दौड़ती रहती है। मन उस पर लगाम कस नहीं सकता क्यूँकि उस पर बुद्धि की पकड़ कमजोर है। बुद्धि की पकड़ इसलिए कमजोर है क्योंकि जीव बेपरवाह है। इसलिए जीव अपने ६०-८० साल के इस छोटे से भौतिक आवर्तन में सुख की खोज में अभाव का दुःख लिए भटकता रहता है और शरीर जीर्ण होते ही छोड़ जाता है। 

जो बुद्धिवादी और तर्क संगत है उनके लिए अपने दिमाग़ की सीमाएँ एक मर्यादा बन जाती है। वे भौतिक से अभौतिक की खोज में लगे है इसलिए उनका तर्क उनको वास्तविक दृश्यमान दुनिया से अलग नहीं होने देता। जबकि सत्य तो अदृश्य विश्व में छिपा पड़ा है। 

जहां न पहुँचे दिमाग़ वहाँ ह्रदय पहुँचता है। ह्रदय के द्वार खोले बिना सत्य का साक्षात्कार हो नहीं सकता। ह्रदय प्रेम भाव से भरपूर है इसलिए वह तुरंत जुड़ जाता है। इसलिए अगर उस अगोचर से ह्रदय का नाता जोड़ लिया तो वह प्रकट हो जाएगा। जीव शिव से entangled है। जीव का मेसेज जाएगा तो शिव का जवाब आना ही आना है।जीव जैसे स्पीन करेगा शक्ति वैसे स्पीन करेगी। वे दो नहीं, एक ही है, संसार लीला में खेल रहे है।

हमें चेतना के संकोचन से बाहर निकलना है। चिति जो चित्त बनी है उसे चिति में परिवर्तित करना है। इसके लिए अपनी चेतना का विस्तरण करना होगा। सर्वं समाविष्ट ह्रदय विकसाना पड़ेगा। प्रेमनगर में किसका विरोध करेंगे? विस्तारित चेतना के सब विरोध जब शांत हो जाएँगे तब वह अखंड चेतना का अनुभव होगा। वही माँ अंबा है, जगदंबा है, जिसके अनुग्रह से शिव का साक्षात्कार होगा।

आओ इस मायापुरी को प्रेमनगर बना लें। जाना तो है, दोनों के पार।

पूनमचंद

८ सितंबर २०२४

Monday, September 2, 2024

Big Bang and Adwaita

Big Bang and Adwaita 

If scientists hv concluded Big Bang as the cause of this universe, which has expanded from a hot dense energy ball, which with its spacetime curvature manifested as the visible world; but they hv no answer for the creation of the base coil, the egg of the mass and energy. Some say it was compression of earlier universe as Big Crunch but they have yet to prove it beyond doubt. 

Which came first the egg or chicken, the causality dilemma won’t end. 

Our world of vision is nothing but the vision of our intellect which is evolving.  As human intellect evolves further it may uncover more secrets. A day may come when it reaches to its highest peak (पूर्णत्व) and explains the truth.

Interestingly, it is searching for all, counting all, but unable to see the Self, the visionary researcher who is making the experiments. The manifested consciousness and its unmanifested state are beyond the scope of the physicists it seems.

ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥१.१.१॥ The first mantra of the Rig Veda tells that Agni is invoked as the priest of the Yagna who invoke the other Devas in the Yagna. Agni is the power which connects all the other divine powers. What could be the state of the energy before the Big Bang? A very hot dense energy ball unable to take shapes as objects. The Hindu cosmic order suggests that the Agni (self) invokes three deities (GOD) who drank Soma (grace-cooling) hv awaken the Yagya (creation). The whole of the universe is a Yagya of which Agni is the Purohit (fills energy).

Buddhism proposed the state of void from which the play of creation begun. But void without energy is a dead element, can’t be the base of the play; therefore, the Adwaita vedantis named it void but with potential energy of creation, the unmenifested form of the creation. HE manifests as power (shakti-kinetic energy) which take forms of different elements by its compression and forms the visible world.

One may and may not believe in the theory of God with his physical incarnations as human Gods, but the formless Almighty is yet to be realised by the physicists. The commoners are happy within their faiths as they feel human life is short to realise the truth. But the evolving intellect of the scientists (modern sages) may uncover the truth one day. From the ancient sages who experienced HIM, some tried to explain the mystery in words but many went in silence, as HE is beyond the reach of human intellect and impossible to explain through human language. The Self only can be realised by the Self.

Punamchand 

2nd September 2024


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