Wednesday, May 29, 2024

सृष्टि रहस्य।

 सृष्टि रहस्य या मिथक  


यह दृश्यमान जगत के रहस्य को उजागर करने मनुष्य जाति सदियों से लगी हुई है। वैज्ञानिकों ने कार्य कारण संबंध से उसका परीक्षण किया लेकिन पहला कार्य किस कारण से हुआ उसका पता नहीं चला। भारत के ऋषि मुन्नियों ने एक सत्ता के रूप में रचयिता की कल्पना की और आदि कार्य उसकी स्वतंत्रता मानकर समाधान कर लिया। फिर उस सत्ता के चेतन और जड़ रूप, पुरूष और प्रकृति रूप को आधार बनाकर जन समूह के सामने रूपक वार्ताओं के रूप में रख दिया। शिव-सती की कहानी भी ऐसी ही एक रोचक कथा है जिसमें मनुष्य रूप में शिव-सती, उनका विवाह, शिव के ससुर दक्ष प्रजापति द्वारा शिव का अपमान, सती का आत्मदाह इत्यादि पात्रों-घटनाओं से इस सृष्टि की रचना को समझाने का प्रयास किया गया है। 

शिव-सती कथा पुराणों से ली गई है। पुराण मतलब पुराना। किसी गड्डे को भरने को भी पुराण कहते है। मनुष्य की सृष्टि रहस्य खोजने की उत्कंठा में जहां जहां उसे अंतर नज़र आया कोई रूपक कथा से उसे जोड़ने का प्रयास किया।

सती अर्थात् सत, शाश्वत, eternal. जो शाश्वत है भला उसका जन्म कहाँ? फिर भी दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में शक्ति को प्रस्तुत किया गया है। जो दक्ष खुद शक्ति से प्रकट हुआ वह उसका पिता बना हुआ है और महादेव का ससुर।

दक्ष की एक और कहानी है। दामाद चंद्र और उसकी २७ पत्नियों की। वे २७ दक्ष की ही पुत्रियाँ थी। लेकिन चंद्र रोहिणी को ज़्यादा प्रेम करता था। २६ ने पिता दक्ष को शिकायत की और दक्ष ने चंद्र को शापित कर क्षयरोग दे दिया। यहाँ साढ़ूभाई काम आए। शाप का समाधान ढूँढ माह के दो पक्ष बनाकर एक पक्ष में (शुक्ल) चंद्रकला की वृद्धि और दूसरे पक्ष (कृष्ण) में क्षय का वरदान दिया। अब हम सब चाँद को भी मनुष्य बनाकर २७ मनुष्य कन्याओं की कल्पना कर उनका पति पत्नी संबंध जोड़ इस कथा को एक सत्य और ऐतिहासिक कथा के रूप में प्रस्तुत करें तो कौन रोक सकता है? फिर तो गणेश की कथा भी मनुष्य रूप से हाथी रूप बन ही जाएगी। रूपक समझना है।

यहाँ चंद्र और २७ पत्नियाँ नभ में रहे पृथ्वी के उपग्रह चंद्र और उसकी २७ नक्षत्रों में मासिक भ्रमण की खगोलीय घटना की रूपक वार्ता है। चंद्र दूसरे नक्षत्रों की तुलना में रोहिणी नक्षत्र में एक दिन ज़्यादा रहता है इसलिए मनुष्य ने उसमें अपनी प्रणय कथा का सहारा लेकर एक वार्ता के रूप में प्रस्तुत कर इस खगोलीय घटना को समझाने का प्रयास किया। २१ वी सदी के हम सब उँगली जिस ओर इंगित करती है उस दृश्य-घटना को छोड़ उँगली को ही पकड़कर बैठ जाते है। 

सती और शिव की घटना भी कुछ ऐसी ही सृजन शृंखला की कहानी का एक रूपक निरूपण है।

नासदीय सूक्त की भाषा इसी रहस्य का बयान है। भारत एक खोज का टाइटिल गीत याद होगा। 

“सृष्टि से पहले सत नहीं था,
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं,
आकाश भीं नहीं था
छिपा था क्या कहाँ,
किसने देखा था
उस पल तो अगम,
अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन हैं कर्ता
कर्ता हैं यह वा अकर्ता
ऊंचे आसमान में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वोहीं सच मुच में जानता.
या नहीं भी जानता
हैं किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता, नहीं है पता...........
वोह था हिरण्य गर्भ सृष्टी से पहले विद्यमान
वोही तो सारे भूत जात का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमाना धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग ओर सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
गर्भ में अपने अग्नी धारण कर
पैदा करता था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगह चुके वो का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ॐ ! सृष्टी निर्माता स्वर्ग रचायता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्मं पलक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर....”

अगर कुछ भी न था तब क्या था? 
यह सृष्टि कैसे बनी? 
शून्य से कुछ नहीं निकल सकता, वर्ना उसे शून्य कहें कैसे? 
एक अलौकिक सत्ता की हाज़िरी बनती है। 

उसे परम या ब्रह्म या अ़क्षर नाम उपाधि देते है। वैसे तो जिसका नाम उसका नाश इसलिए नाम देकर शाश्वत के सामने ग़ुस्ताख़ी हुई। लेकिन क्या करें लकीर खींचने बिंदु तो करना पड़ेगा। परम अहं रूप में आ जाता है। ‘मैं हूँ’ यह भान उसे आदिनाथ-शिव बना देता है। अहं कहते ही शक्ति का संचार होता है जिसे हम शिव का विमर्श, शक्ति, स्वातंत्र्य कहते है। पुरूष हुआ, प्रकृति हुई। दोनों के संयोजन से सृष्टि हुई। फिर यह दक्ष-पुत्री-दामाद-अपमान-अग्निस्नान क्या?

शिव क्या अस्तित्वहीन है? क्या एक विराट शून्य है? क्या अंधकार है? जिसके गर्भ से निकलकर यह गेलेक्सीयाँ, सितारे, चाँद, धरती, हम सब व्यक्त और फिर अव्यक्त हो जाते है। शक्ति बिना शिव शव है। उसमें एक चिनगारी, शक्ति-सती का आत्मदाह, सृजन की शृंखला की पहली कड़ी है। जिससे यह संसार बना है। सती-शिव प्रेमासक्त है इसलिए शिव अर्धनारीश्वर बन इस cosmos-ब्रह्मांड की सृष्टि स्थिति और लय में प्रवृत्त है, उच्छलित है। 

मिथक कहें या कल्पना शिव सत्य (सती) है, और यह सत्य हम आप ही है। 

पहचान कौन? 😁

पूनमचंद 
२९ मई २०२४

Thursday, May 23, 2024

बुद्ध पूर्णिमा।

 बुद्ध पूर्णिमा। 


बुद्ध का जन्म, बोध और मृत्यु इसी वैशाख पूर्णिमा पर हुआ था। उन्होंने अपना पहला बोध पाँच शिष्यों को सारनाथ में दिया था तब थी गुरू पूर्णिमा- आषाढ़ पूर्णिमा। बुद्ध बोध के पश्चात ४९ दिन बोध गया में रहे थे और फिर ११ दिन सासाराम के रास्ते चलकर २५० किमी दूर सारनाथ पहुँचे थे। 

बुध के चेहरे की शांति अलौकिक तेज देखकर रास्ते में एक बालक ने पूछ लिया। क्या आप भगवान हो? बुद्ध ने कहा नहीं। क्या आप देवदूत हो? बुद्ध ने कहा नहीं। क्या आप मनुष्य हो? बुद्ध ने कहा नहीं। फिर आप क्या हो। मैं बुद्ध (बुध) हूँ। जागा हुआ। बुद्ध ने जवाब दिया और चल दिए। बोध वह चैतन्य पट है जिस पर सब कुछ उभरता है और मिट जाता है। बोध का पट ज्यों का त्यों निश्चल बना रहता है। 

बुद्ध को इतिहास शाक्य मुनि के नाम से भी जानता है। कोई कोई उन्हें शक जाति के महात्मा के रूप में देखते है। लेकिन असोक के minor edict Maski (Karnataka) को पढ़े तो वहाँ असोक अपने लिए 2.5 years passed since he became बोध शाक्य दर्शाता है। शाक्य का अर्थ यहाँ हुआ शिष्य। समण (गुरू) -शिष्य परंपरा का भारतीय प्राचीन धर्म यहाँ उजागर होता है। सीख धर्म का सीख शिष्य का ही पर्याय है। 

असोक के उत्तर पश्चिम के शिलालेख खरोष्ठी में है जब कि बाकी सारे धम्म लिपि (प्राचीन ब्राह्मी) में है। ईरान के शासक (Achaemenid Empire) ईसा पूर्व छठी शताब्दी में सिंधु घाटी तक राज्य करते थे इसलिए इस प्रदेश में प्रचलित लिपि थी जो right to left लिखी जाती थी। जबकि भारत वर्ष (पूर्व) की लिपि left to right लिखी जाती थी। 

यहाँ के लोगों ने पश्चिम की लिपि को नाम दिया खरोष्ठी क्यों कि उसके वर्ण कुछ मरोड़ लेकर लिखे जाते थे जैसे की गधे काँ ओठ, खरोष्ठ। 😁

भारत में ध्यान की परंपरा, मुद्राएँ, सम्यक् बोध, art of living, बुद्ध की देन है। दुःख है। दुःख का कारण है तृष्णा। तृष्णा के त्याग से निर्वाण होगा। लेकिन इसके लिए अष्टांग सम्यक् मार्ग पर चलना होगा। 
सम्यक् दृष्टि। 
सम्यक् संकल्प।
सम्यक् वाक्। 
सम्यक् कर्म। 
सम्यक् जीविका। 
सम्यक् व्यायाम। 
सम्यक् स्मृति।
सम्यक् समाधि। 

आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर इस विश्व गुरू को नमन। 

🕉️ मणि पद्मे हम। सोहम। 

🙏🙏🙏

पूनमचंद 
२३ मई २०२४

Wednesday, May 8, 2024

तथागत।

 तथागत।


कल शाम श्री विजय रंचन साहब से भेंट हुई। कुछ सामाजिक चर्चा के बाद उनके दो काव्य ‘ब्रह्म राक्षस’ और ‘यथागत गुलामरसूल संवाद’ का रसास्वादन किया। काव्य रचना वह स्वयं प्रस्तुत करेंगे लेकिन मेरा कुतूहल तथागत में ज़्यादा रहा। तथागत ‘बुध’ का विशेषण था। रंचन साहब ने कुछ व्याख्या बताईं जैसे की ‘thus gone’ अथवा ‘तत् थत्’ अथवा जैनों कि ‘गच्छ’ (जाना) परंपरा के साथ जोड़कर जाने की बात समजाने का प्रयास किया।

क्या यह ‘तत् सत्’ का दार्शनिक पर्याय है? रास्ते में चलते चलते मेरा मनन रहा था। एक बात ज़रूर बैठी थी कि बात आने की नहीं, जाने की है। उन्होंने अपने काव्य संवाद में अनायास ही ‘यथा’ शब्द प्रयोग किया है परंतु मेरी बुद्धि ‘तथा’ के अर्थ को खोजनेमें लग गई।

मेरा ध्यान छह साल पूर्व औरंगाबाद के एक प्रवास पर चला गया जहां पानचक्की बगीचे में एक बुजुर्ग फ़क़ीर से मेरी मुलाक़ात हुई थी।वह दिखने में औरंगजेब (चित्र) जैसा था इसलिए मेरा ध्यान उसकी ओर सहसा आकर्षित हुआ था। औरंगजेब ने यहाँ अपने जीवन के आख़री २५ साल गुज़ारे थे और सादा जीवन जीते हुए बिना मक़बरा दो गज ज़मीन के नीचे दफ़्न हो गया था। उस फ़क़ीर ने इस्लाम की व्याख्या करते हुए समझाया की यह ज़मीन एक इम्तिहान कक्ष है जिसमें हम सब इम्तिहान देने आए है। इम्तिहान में जो लिखेंगे (जिएँगे) वैसा फल क़यामत के दिन मिलना है।इसलिए पल भी न गँवा कर उस परवरदिगार कीं बंदगी में बिताने में भलाई है।

गीता का अध्याय २ पूरी गीता का सार है। उसके श्लोक ११-३० वेदांत तत्वज्ञान का सार है, ३१-५३ कर्मयोग है और ५५-७२ स्थितप्रज्ञ के लक्षण है। हम सब ज़्यादातर लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए राजसी कर्मों में व्यस्त है इसलिए कर्म और उसके फल के बंधन से ग्रसित है। लेकिन कुछ सीमित लोग निःस्वार्थ सेवा को अपना जीवन बनाकर कर्मयोग की साधना करते है। ऐसा कर्मयोग मन को पवित्र करता है। पवित्र मन एकाग्र - स्थिर होता है और स्थिर मन में प्रज्ञा - स्वरूप ज्ञान (who am I) स्थित होता है।

प्रश्न यह उठेगा कि इस स्वरूप ज्ञान की, आत्मा की प्रत्यभिज्ञा की क्या ज़रूरत? यावत जीवेत सुखम् जीवेत। जो लोग अपने को शरीर-मन-प्राण का एक खोखा समझते हैं उनके लिए वर्तमान जीवन ही सत्य है। फिर भी किसी का भी जीवन ले लें, कोई भी पूर्ण सुख और पूर्ण दुःखमय जीवन से कभी नहीं गुजरता। जब सुख होता है आदमी मस्त हो जाता है, बेफ़िक्री आ जाती है। भूल जाता है कि संचित शुभ कर्मो का ढेर कम हो रहा है। दुःख भले दुःख दे, लेकिन दुःख में रामनाम सुखधाम हो जाता है; इन्सान भगवान की बंदगी करता है और अपने आत्म तत्व के निकट आ जाता है। गीता में इसलिए अपनी सच्ची पहचान में स्थित होने के लिए कर्मो के समत्व (evenness) और कुशलता (निष्काम कर्म) पर ज़ोर दिया गया है।

हम आ तो गए लेकिन ‘यथा’ जाना है या ‘तथा’, जीवनयात्रा का यही सत्व है। 

चयन है किः 

जैसे आए थे वैसे ही शरीर-मन-बुद्धि की सीमित पहचान को यथा पकड़कर ‘यथा-गत-जाना’

अथवा 

‘तथा’- अपने सत् स्वरूप को पहचान कर दुःखों (आवागमन) से मुक्त हो जाना - ‘तथागत’। 

जब चलना शुरू किया तब सही, लेकिन मंज़िल का हर कदम उत्थान की ओर ले जाएगा।

तत् सत्। तथागत।

Life is a journey within ‘No Time No Space’! 

पूनमचंद
८ मई २०२४
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