निर्विचार।
विचार पर दुनिया क़ायम है। एकोहं बहुस्यामः का विचार नहीं उठता तो शिव की यह सृष्टि नहीं होती। सर्वं शिवं होने से विचार या निर्विचार स्थिति शिव से बाहर नहीं है।
परमात्मा चिद्रूप है। इसलिए उसमें पंचशक्ति और पंचकृत्य का वैभव बना हुआ है। अव्यक्त का व्यक्त रूप चिति स्वेच्छा से संकोच कर चित्त बना है और विविध भौतिक रूपों लिए यह जगत लीला में मस्त है। चित्त शक्ति की अभिव्यक्ति है। वही चित्त को कर्म भेद से हम बुद्धि और मन कहते है।
मनुष्य मन का ही रूप है। स्मरण शक्ति, चिंतन शक्ति, विचार शक्ति इत्यादि मन के प्रारूप है। यह शरीर, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ मन के विचारो को कार्यान्वित करने के साधन है। मन आनंद की खोज में है, सुख की खोज में है, संतोष की खोज में है, शांति की खोज में है और बहिर्मुख है। इसलिए मन जिस संस्कारों में रंगा है उसके विचार उठते रहते है। सब विचार कर्म में परिवर्तित नहीं होते लेकिन जिस विचार के साथ प्राण शक्ति जुड़ती हैं वह कर्म की ओर आगे बढ़ता है। कर्म की शृंखला मनुष्य का स्वभाव बनाती है। स्वभाव से बुद्धि का विकास होता है और यथा मति तथा गति होती है।
अब मन जिस आनंद, सुख, संतोष, शांति की खोज बाहर संसार में करता है वह है लेकिन खंडित है, क्षणभंगुर है। एक बार मिलने से मन तृप्त नहीं होता। इसलिए बह बार बार मृगमरिचिका बन मिराज के पीछे दौड़ता रहता है। लेकिन इन्द्रियों की शक्तियाँ सीमित है, शरीर आयु से बँधा है। शक्ति क्षीण होती रहती है। यह दौड़ भाग से आख़िर वह हार जाता है और एक दिन साधन छोड़ देता है। फिर नया साधन, नई दौड़, चक्कर से बाहर नहीं होता है।
मन जिस अखंड आनंद, सुख, संतोष, शांति की खोज करता है वह तो भीतर है। काम तो बस छोटा है। अंतर्मुख होना है। लेकिन अनंत संस्कारों के रंग में रंगा मन इतना सरल काम करने में असमर्थ हो जाता है इसलिए उसे मोड़ने के तरीक़े, तरकीबें आज़माई जाती है।
मन को प्राणायाम के माध्यम से निर्विचार करना ऐसी ही एक विधि है। अक्सर यह देखा गया है कि मन और प्राण की गति एक दूसरे से सीधे आनुपातिक (directly proportional) है। अर्थात् वे एक साथ बढ़ती है या घटती है। विचार बढ़ेंगे तो प्राण की गति तेज होगी, विचार शांत होंगे तो प्राण शांत होगा। प्राण (श्वासोच्छ्वास) की गति बढ़ेगी तो विचार की गति बढ़ेगी और विक्षिप्तता बढ़ेगी। प्राण शांत होगा तो विचार भी शांत होंगे। विचार भी कैसे? खर पतवार। हमारी आसक्ति की दौड़। अतृप्त कामनाओं की दौड़। लेकिन दौड़ के आगे मौत है।
हमें तो अमर होना है इसलिए भीतर जाना है। अपने ही मन की शांत स्थिति से बनी एक सात्विक बुद्धि नैया में बैठ शनैः शनैः भीतर उतरना है। आत्माराम में उतरना है। अमृतसर में उतरना है।
वह चिद्रूप है, चिद्घन भी। उपर की सतह पर लहरें है, मन है, क्रिया कलाप है, लेकिन भीतर शांति है, ठहराव है। दोनों ही भूमिका से शिव भिन्न नहीं। बस मन को मनाना है इसलिए यह सब करना है। मन को प्रमाण चाहिए मानने के लिए। शब्दों से वह तृप्त नहीं होगा। जब तक गुड़ खायेगा नहीं उसके स्वाद की कितनी भी व्याख्या कर लें वह मानेगा नहीं। इसलिए उसे मनाने के लिए यह सब प्रयास है। वर्ना मन चंगा तो कठौती में गंगा।
जब तक विचार है, मन है। जैसे जैसे विचार शांत होते जाएँगे, मन भी शांत होता जाएगा। एक स्थिति आएगी जब अमना हो जाएगा। मौन। स्थिरता। तब जो यात्रा शुरू होगी वह यात्रा आत्मा की होगी। स्व की पहचान की होगी। प्रत्यभिज्ञा की होगी। स्व के साक्षात्कार की होगी।
साक्षात्कार होगा, निर्भयता आएगी। मृत्यु का भय चला जाएगा क्योंकि मृत्यु है ही नहीं। शांति, सुख, संतोष, आनंद फल प्राप्त होगा और मन निजानंद की मस्ती में जीवन मुक्त होकर विहार करेगा।
मन को मना लो। मनचला है, सरलता से मानेगा नहीं।
पूनमचंद
९ मार्च २०२४
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