पूर्ण।
पूर्ण अर्थात् जिसमें कोई कमी नहीं। उसमें से कुछ निकाल भी लो फिर भी वह अपने आप पूरितः-भर देगा। जो निकला वह भी पूर्ण होगा। ऐसा पूर्ण, परम शिव जो अमर है, अपनी शक्ति के रूप धरता है। निर्गुण से सगुण होता है। प्रकाश का विमर्श होता है। शक्ति बना तब शिवत्व नहीं गया। एक का उन्मेष दूसरे का निमेष है। लेकिन शिवशक्ति का सामरस्य बना रहता है।
शिव, शक्ति पंचक है। चिद् है, आनंद है, इच्छा है, ज्ञान है और क्रिया है। चिद् यानि चैतन्य। आनंद यानि peaceful-blissful, इच्छा यानि will, ज्ञान यानि सर्वज्ञता, क्रिया यानि सर्वकर्तृत्वता। शिव ही शक्ति बन विश्वरूप धारण करता है। शक्ति सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह करती है। पंच शक्तियों के संकोच से नाना प्रकार की सृष्टियाँ बनती है। चिद् संकोच, आनंद संकोच, इच्छा संकोच, ज्ञान संकोच, क्रिया संकोच। शक्तियों का संकोच ही दृश्य जगत है, रूप जगत है, रंग जगत है। रंगमंच है। जैसा संकोच वैसी उपाधि। उपाधि भेद से इच्छाभेद, ज्ञानभेद, कर्मभेद होता है। जिससे हर कोई अपने अपने संकोच के दायरे में रहकर यह जगत खेल का हिस्सा बना है।कोई घन सुषुप्त है, कोई क्षीण सुषुप्त, कोई स्वप्न सुषुप्त। तत्वरूप में सब शिव है और विमर्श रूप में शक्ति। इसलिए नाना प्रकार ही सही लेकिन इस जगत का हर जीव, हर कण शिव है, शक्ति है, पंचशक्ति पंचकृत्यकारी है।
संकोच सीमा पैदा करता है। कमी लगती है। कुछ अंधकार-अज्ञान जैसा लगता है। शरीर और संसार से आसक्त जीव मौत से डरता रहता है। अपूर्णता उसे खटकती है। मूलतः अपना स्वरूप पूर्ण है इसलिए अविद्या के कारण अनुभव हो रही अपूर्णता से छूटने और पूर्णता पाने बहिर्जगत की ओर अथवा कोई कोई गुरूगमवालें अंतर्जगत की ओर चल पड़ते है।
परम, शिव हुआ, शक्ति हुई। कृष्ण हुए, राधा हुई। है दोनों एक, लेकिन एक देखता रहेगा, दूसरी लीला करेगी। कहीं शक्ति देगी, कहीं से हट जाएगी। जीवन संचार करेगी, समाप्त करेगी। शिव साक्षी - कृष्ण साक्षी निष्कंप होकर दृष्टा बन अपनी ही शक्ति का, अपनी दुर्गा का, अपनी राधा का खेल देखता रहेगा। एकोहं बहुष्याम् की यही को लीला है। जब शिव संकल्प की अवधि पूरी होगी, उपाधि सब विलय हो जाएगी। फिर नया संकल्प, नया संसार। शिव की पूर्णता का उच्छलन ही शक्ति है, जगत है, विश्वरूप है।
क्या चाहिए? जगत के भोग या अमृत? दोनों मार्ग खुले है। शक्ति दायाँ भी देगी और बायाँ भी। चाह जाँचिए और चल पड़े। जो माँगे वह मिलेगा। अमृत कुंभ छोड़ कौन मृत्यु के मुँह में जाएगा?
अपनी ह्रदय गुहा में जो संस्कार पड़े है उसके अनुरूप शिव भजें या शक्ति, निर्गुण भजें या सगुण, कृष्ण भजें या राधारानी, सब नाव नदी पार कराएगी। जिसमें चित्त स्थिर हो, बैठ जाना। पहुँचने की जगह तो एक ही है। ह्रदय गुहा। जहां अपने असली रूप की पहचान करनी है। असत (नश्वर) छोड़ना है और सत (शाश्वत) का साक्षात्कार करना है। अंधकार-अज्ञान-अविद्या से मुक्त होना है और परम तेज-बोध-ज्ञान पाना है। अमरत्व की पहचान करनी है और मृत्यु से पार हो जाना है।
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
पूर्ण को अपूर्णता कैसी?
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
क्या होगा? आँखें बदल जाएगी। नई आँखें लग जाएगी। संकोच सब हट जाएगा। चारों ओर एक ही नज़र आएगा। उसके वैभव को देख, अपने वैभव को देख, गदगद होगा, द्रवित हो उठेगा, नाचेगा, गाएगा और मौन हो जाएगा।
पूर्ण है, पूर्ण है, पूर्ण है।
पूनमचंद
२५ मार्च २०२४
साभारः कश्मीर शैव दर्शन, बृहदारण्य उपनिषद।
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