योग।
भारत अर्थात् जो भा-ज्ञान में रत है अथवा भरत-भरण पोषण करता है। भारत देश योग पर टिका है। योग का अर्थ है जोड़ना-जुड़ना-to connect. अपने मन को आत्मा से- परमात्मा से, अपने अस्तित्व के कोर के साथ जोड़ना।
दो प्रमुख धारा प्रवाह बने है। एक है पतंजलि का योगः चित्तवृत्ति निरोधः और दूसरा है श्रीकृष्ण का योगः कर्मसु कौशलम्।
जीव का सृजन वासना-इच्छा की अतृप्ति अथवा पूर्ति के लिए हुआ है। पुर्यष्टक (आठ की नगरी) अर्थात् पाँच इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि, अहंकार का यह नगर (शरीर) बाह्य संसार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का भोग करता हुआ अपने निज सच्चिदानंद स्वरूप को खोजने और उससे जुड़ने की प्रक्रिया में लगा हुआ है। लेकिन बाह्य सुखं क्षणिक है, खंडित है, क्षणभंगुर है, हार्मोन का खेल है; इसलिए जब बाहर से हार थक जाता है तब वह अखंड आनंद और परम शांति की खोज के लिए आख़िर मुड़ ही जाता है।
पतंजलि चित्तवृत्ति निरोध का अष्टांग मार्ग है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम (संयम) हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - नियम (पालन) हैं। स्थिरं सुखं आसनम्, सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है।प्राणायाम साँसों का नियंत्रण है।
यम, नियम, आसन शरीर की स्थिरता प्राप्त करने के लिए है। प्राणायाम प्राण (श्वासोच्छ्वास) की स्थिरता के लिए है। प्रत्याहार (इन्द्रियों को वापस लेना) मन की स्थिरता प्राप्त करने हेतु है। मन भोग भोगता है। पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ लेकर वह बहिर्मुख बनकर संसार का आहार करता है। अब आनंद का स्रोत भीतर है और मन बाहर है इसलिए उसे जब तक भीतर की ओर मोड़ा न जाए तब तक सब व्यर्थ है। इसलिए प्रति आहार, अर्थात् मन को बाहरी भोग से हटाकर भीतर लाना है और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का आहार भीतर से, आत्म क्षेत्र में प्रवेश करके लेना है। विवेक रूपी चौकीदार बैठाना है और सतत जागरूक रहना है। जीतेन्द्रिय अथवा इन्द्रियजीत होना इतना सरल कहाँ? इसलिए गांधी जैसे कोई कोई महापुरुष अपनी अग्नि परीक्षा के लिए बाह्य प्रयोग कर लेते है।
धारणा (मन की एकाग्रता) तब तक नहीं स्थिर हो सकती जब तक शरीर, प्राण और मन स्थिर नहीं होते। ध्यान और समाधि का मार्ग पर उसके बाद ही प्रस्तुत होता है। जिस पर चलकर कोई कोई विरला सन्तुलन और सिद्धि पा लेता है और अपने सच्चिदानंद स्वरूप में स्वस्थ (स्व में स्थित) हो जाता है।
श्रीकृष्ण-वेद व्यास का गीता मार्ग योग की परिभाषा कर्म की कुशलता से करते है। मनुष्य संसारी है और कर्म करने से मुक्त नहीं रह सकता। इसलिए अपने जीवन आजीविका के लिए कर्म को करने में जब वह ध्यानपूर्वक और चित्त की स्थिरता के साथ करने लग जाता है तब स्थिरता और कार्य सिद्धि उपरांत स्वयं से, आत्मा से, अस्तित्व के केन्द्र से जुड़ जाता है। वैज्ञानिकों के आविष्कार, खिलाड़ीयों के मेडल या सिद्धि, अधिकारी के आयोजन-संयोजन, अभिनेता का अभिनय, कारीगरों की कला, योद्धा का पराक्रम, रसोई का स्वाद, भक्ति का रस, ज्ञान का तेज, इत्यादि कुशलता से किए कर्मो की योग-सिद्धि है। यही योग है जो निष्काम (अथवा परमार्थ के लिए) करने से स्वयं को परम से जोड़ देता है।
जब स्वार्थ हट जाता है तब परमार्थ प्रकट हो जाता है। जब मामका पांडवा की संकुचितता हट जाती है तब विराट का अनुभव होता है। यह संसार संकोच से तो बना है। परमात्मा ने संकोच किया और अंकुरित हुआ, अहं और इदं में विभाजित हुआ। माया-पुरूष-प्रकृति का खेल रचा। पुर्यष्टक (player) बनाया और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की तन्मात्राओं के भोग के लिए तत्व संकोचन से आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि पाँच महाभूतों का क्षेत्र (play ground) बना। विश्वरूप भी परमात्मा के रूप है और विश्वोर्तीर्ण भी वही है। लिंग, कुल, जाति, देश, धर्म इत्यादि संकोच की दिवारें है तब तक संसार है। यह दिवारें तोड़कर विराट के दर्शन करना पुरूषार्थ है। लाखों में कोई एक अपनी नैया पार लगा लेता है। चित्तवृत्ति निरोध से अथवा कर्म की कुशलता से वह परम से योग कर लेता है।
गन्ने को संस्कृत में इक्षु कहते है। भगवान राम, बुद्ध और महावीर इक्ष्वाकु वंशज माने जाते है। जैसे गन्ने में रस होता है तब तक उसका मूल्य होता है इसी तरह जवानी में योग करने से सिद्धि और स्वस्थता सरलता से प्राप्त होती है। बगास से क्या निकलेगा? बुढ़ापे का योग अफ़सोस देता है। हाँ, लेकिन प्रत्याहार सरल है। जीवनभर की भागदौड़ से थका मन अब शक्तिहीन इन्द्रियों से काम नहीं ले सकता। हार्मोन अब वापस नहीं आ सकते। इसलिए सरलता से प्रत्याहार कर आत्मस्थ हो सकता है। इसलिए चार आश्रमों में संन्यास आश्रम आख़िरी है।
योग करें, स्वस्थ रहें।😊
पूनमचंद
२४ मार्च २०२४
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