बीजावधानम्।
एक दिन एक दिलचस्प सत्संग हुआ। बात निकली थी नरसिंह मेहता और कबीर साहेब की। १५वी सदी में हुए दोनों महापुरुष समकालीन थे। नरसिंह मेहता के श्रीकृष्ण और गोपियों की रासलीला के सगुण दर्शन के चर्चे सत्संगीओ में खूब थे। कबीरदास की निर्गुण धारा भी लोकप्रिय थी। कहते हैं कि एक दिन कबीर साहब नरसिंह मेहता को मिलने चले गए। यह परखने कि नरसिंह मेहता को वास्तविक में श्रीकृष्ण-राधा-गोपियों के दर्शन होते है? नरसिंह मेहता ने उनका स्वागत किया। कबीरदास ने मेहता से पूछा कि आप श्रीकृष्ण रासलीला का दर्शन कैसे करते हो? मेहता ने बताया कि जैसे मैं आपको देख रहा हूँ बस वैसे ही कनैया और उसकी राधा-गोपिय संग रासलीला का दर्शन होता है। कबीरदास ने बिनती की कि क्यूँ न उनकी हाज़िरी में उस रासलीला का दर्शन किया जाए। नरसिंह मेहता खुश हुए और अपने करताल लेकर, आँखें बंदकर श्रीकृष्ण की आराधना में लग गए।
भावविभोर होकर भक्तकवि तल्लीनता से एक के बाद एक भजन गा रहे थे। अचानक उन्होंने बाँह पकड़ी और कबीरदास को पुकारा। कबीर, कबीर देखो मैंने कनैया की बाँह पकड़ ली। यह कनैया है और उसकी चारों ओर गोपियाँ रास कर रही है। रासलीला के इस अद्भुत दृश्य को तुम भी देख लो।
कबीरदास श्रीकृष्ण के इस महान भक्त को एकटक देख रहे थे। नरसिंह मेहता की पुकार सुनी और उनकी पकड़ी हुई बाँह देखी और मन ही मन मुस्काए। उन्होंने ने मेहता का हाथ पकड़ लिए और कहाँ मेहता आप धन्य हो, अपनी भाव समाधि से बाहर आओ। नरसिंह मेहता ने आँखें खोली, दोनों ने कुछ वार्तालाप किया और कबीरदास लौट गए।
प्रश्न यह उठता है कि कबीरदास क्यूँ मुस्कुराए?
क्या वाक़ई में नरसिंह मेहता ने श्रीकृष्ण की बाँह पकडी थी?
क्या उन्होंने श्रीकृष्ण रासलीला का दर्शन किया था?
कबीरदास इसलिए मुस्कुराए थे क्योंकि नरसिंह मेहता ने जो बाँह पकड़कर कबीरदास को दिखाई थे वह तो उनकी अपनी ही बाँह थी। भावावस्था में भक्त जब असीम चेतना के साथ एकरूप हो जाता है तब उसका चित्त संकल्प की भाव सृष्टि का सृजन कर लेता है। इसलिए भावजगत में नरसिंह मेहता को श्रीकृष्ण और उनकी रासलीला का दर्शन होता था।
शिव पंचशक्ति हैः चिद्, आनंद, इच्छा, ज्ञान, क्रिया। शिव पंचकृत्यकारी हैः सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह। हम सब शिव के ही संकुचित नाना रूप है इसलिए कम मात्रा में ही सही लेकिन पंचशक्ति और पंचकृत्य के हम भी धनी है। हमारा मन ब्रह्मा है। वह कोई भी दृश्य की रचना कर लेगा। हमें दृश्य पर नहीं दृष्टा को पहचानना है। मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में भी एक चेतना का धागा जो अहं बन कर पिरोया रेहता है उस तूरीय को पहचानना है और उस किरण को पकड़कर उस के स्रोत महादेव-परम-पूर्णोहं का साक्षात्कार करना है।
साधना का आनंद ले लेकिन सावधान भी रहें।
पूनमचंद
१७ मार्च २०२४
पुनमचंद परमार का आध्यात्मिक ज्ञान अद्वितीय है।
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