Tuesday, March 5, 2024

पूर्णार्थ।

 पूर्णार्थ। 


अपने ही पूर्ण सत्व को, पूर्ण अर्थ को जानने की प्रक्रिया। पूर्ण तो अपने आपमें पूर्ण है। लेकिन जब तक हम जानेंगे नहीं तब तक मानेंगे कैसे? पूर्ण की पहचान ही मुक्ति है। दुःखों से मुक्ति। मृत्यु से मुक्ति। 


कैसे जाने? 

मैं कौन हूँ? 

अचरज है कि मैं हूँ पर मुझे ही नहीं जानता। 


तादात्म्य, एकरूपता, समापत्ति, समावेश की भूमिका पर बैठना पड़ेगा। पंजाब को अमृतसर की ओर मोड़ना होगा। अभी तो पंजाब (पंच आब, पाँच नदियाँ, पाँच इन्द्रियाँ) का प्रवाह बाहर की ओर, संसार की ओर प्रवाहित है; उसे उस महाह्रद (समुद्र), अमृतसर की ओर घुमाना है। शरणागत होना है। 


शरणागति ही प्रक्रिया है पूर्ण को पहचानने की। अपनी प्रत्यभिज्ञा करने की। 


सबकुछ पूर्ण ही है। पूर्ण से पूर्ण प्रकटता है। पूर्ण से पूर्ण ले लो फिर भी पूर्णता बनी रहती है। 


पूर्णता कोई वस्तु थोड़ी है जो घट बढ़ सकती है? दिव्य चेतना है। अनंत है। अनिर्वचनीय है। पाँच फ़ीट के शरीर में एक किलो के दिमाग़ से समझने से थोड़ी आएगी? वह आएगी तो उसकी मर्ज़ी से। लेकिन तब आएगी जब जातक शरणागत होगा। अपने एन्टेना को सेट करेगा, अपनी ट्यूनिंग ठीक करेगा। बाहर से हट अंदर उतरेगा। 


कितने भी तीर्थ कर लो। शास्त्र पढ़ लो। घूम फिर के यहीं आना है। 


मैं कौन हूँ?


एक चींटी थी। हिमालय में खड़ी थी। हिमालय तब शक्कर का पहाड़ था। चींटी को हिमालय को जानने की इच्छा हुई। वह चल पड़ी। लेकिन इतना विशाल हिमालय ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। थक गई। हार ही रही थी और बडी चींटी मिल गई। पूछा क्या हुआ? क्यूँ हारी थकी सी हो? छोटी चींटी ने अपना हाल सुनाया। हिमालय को नापने और जानने चली है लेकिन यह को ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। ऐसे तो मौत आ जाएगी। बड़ी चींटी ने कहाँ, अरे पगली, तेरी आयु का ख़्याल किया होता। क्या पता कब मौत आ जाए? तुं जहां खड़ी है बस उसी जगह चख ले, सारा हिमालय एक जैसा ही है। लघु चींटी ने गुरू चींटी की बात मान ली, शरणागति स्वीकार ली और शक्कर का स्वाद ले लिया। 


चेतना पूर्ण है। जहां से भी प्रवेश किया पूर्णता होगी। पूर्णता के अलावा और कुछ भी नहीं। 


वह शक्ति है। अपने अहंकार से हाथ न आएगी। शरणागति, श्रद्धा और सबूरी काम आएगी। शरणागति भक्ति का दूसरा नाम है। विद्या विनयेन शोभते। विनम्रता की झोली न हो तो विद्या दान नहीं मिलता। उसे ग्रहण करने अपने आप को तैयार करना होगा। तन से, प्राण से, मन से, बुद्धि से। शक्ति का अनुसंधान करना है। हर दिन धीरे-धीरे आगे बढ़ना है। अभ्यास बढाना है। एक दिन महानुसंधान हो ही जाएगा। माँ कैसे बालक की पुकार को अनसुना करेंगी?


एक बार स्व की पहचान हो गई फिर पर नहीं रहता। क्योंकि स्व ही संसार बना हुआ है। पूर्ण की दृष्टि मिल गई फिर चारों और एक ही पूर्णता विविध रूपों में अचरज देगी, आह्लादित करेगी, प्रसन्नता देगी और आनंद रस से भर देगी। 


रसात्मा संसार के गोबर में आनंद खोज रहा है। उसे जब परमात्मा का रसास्वादन होगा तब वह हनुमान की तरह मोती की माला तोड़ देगा और राम होगा वही रहेगा। 


स्थिर आसन, स्थिर प्राण, स्थिर मन, स्थिर बुद्धि, मध्य पर ध्यान और पूर्णता में प्रवेश। 


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥ (वृहदारण्यक और ईशावास्य उपनिषद) 


पूनमचंद 

५ मार्च २०२४

0 comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.