हिमालय के सिद्धयोगी।
कई साल पहले स्वामी योगानंद परमहंस की आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ मैंने पढ़ी थी। महावतार बाबा का साक्षात्कार दुर्लभ ही होगा लेकिन मन में एक उत्कंठा थी कि जीवन में स्वामी जी या लाहिड़ी महाशय जैसे किसी योगी से भेंट हो जाए।
हमारा परिवार सन २०१९ में एक बार धर्मशाला गया था। दलाई लामा तो नहीं मिले लेकिन हमारी बेचमेट मनीषा नंदाने एक योगीजी का पता दिया।कुछ धंटो की वह मुलाक़ात थी लेकिन चिरंजीवी हो गई। जैसे किसी अपने से बड़े क़रीब से मिलना हुआ। राष्ट्र प्रेमी योगी का साक्षात्कार हुआ। बातें की, चाय पी, कैम्पस देखा, फोटो खिंचवाई, भोजन प्रसाद ग्रहण किया और चल दिए। चाय का कप लेते मेरे से चूक हुई और चाय शर्ट पर गिर गई। बाबाजी ने तुरंत उठकर अपने रूमाल से साफ़ कर दिया। मैंने मेरे से झूठा हुआ वह रूमाल प्रासाद की तरह माँग लिया और उन्होंने दे भी दिया। उन्होंने मेरी फ़ोटो खिंचीं और एक अतूट नाते से बांध दिया।
इस हप्ते फिर दो दिन उनके सानिध्य का मौक़ा मिल गया। एक पालक की तरह उन्होंने हमारा और आएँ शिष्यों आगंतुकों का ख़याल रखा। जो भी फल मिठाई आती वह तुरंत बाँट देते थे। वक्त पर चाय, नास्ता, स्वादिष्ट भोजन मिल रहा था। सोने का कमरा सुविधाजनक था। इलेक्ट्रिक कंबल ने कड़ी ठंड को रोक रखीं थी इसलिए रात्रि भी शुभ रही।
वह उनका पूरा वक्त हमें दे रहे थे। अपने बग़ल में बिठाकर प्यार दुलार करते रहे। पहली शाम हुई। यज्ञ की आहुति और कर्ण प्रिय मंत्रों की गुंज ने मन को आह्लादित कर दिया। उसके बाद बाबाजी आए। हमें कुछ अनुभव साझा करने का मौक़ा दिया। उन्होंने अपनी प्राणवान और कर्णप्रिय आवाज़ में दो भजन गाएँ। फिर १९७० के दशक में गुजरात के लोद्रा गाँव के बलरामदास, उद्योगपति अग्रवाल परिवार और कुछ वैष्णव परिवार के साथ १८ लोगों की पोखरा यात्रा की कहानी सुनाई। डकोटा विमान की उनकी सफ़र, कच्चे रन वे पर उतरना, मौसम बदलने से डकोटा दो लोगों को लेकर वापस जाना, फिर २१ दिनों तक उसका वापस न आना और इस बीच १६ लोगों का डकोटा के इंतज़ार में रहना, उनके खानपान, कीचन में मुर्गी, वैष्णवों की वोमिटींग, वजन का गिर जाना इत्यादि बातें कर हम सबको हँसाते रहे। बाक़ी सब तो डकोटा के इंतज़ार में खाते रहे और फिर वोमिट करते रहे लेकिन वह तो भोजन नहीं करते थे इसलिए नज़दीक की पाठशाला में जाकर बच्चों को योग के पाठ पढ़ाते रहे और स्थानीय लोगों से बातें करते रहे और आत्मीय रिश्तें जोड़ते रहे। जहां वे रहे थे वहाँ कमरे का किराया खाने के साथ सिर्फ़ एक रूपया था लेकिन ट्रैकिंग का सामान जो छोड़ आए थे उसका किराया अग्रवाल जी को नेपाली ₹ ६ लाख भरना पड़ा।उन्होंने विमान कंपनी पर कोर्ट में दावा ठोक कर १२ लाख वसूल किए। ६ रखकर बाक़ी के ६ पशुपतिनाथ मंदिर की गोशाला को दान कर दिए।
चीन युद्ध के पहले की बात है। किसी गाँव से गुजर रहे थे और गाँव लोगों को मादा बाघ से परेशान देखा। वह कुछ लोगों को हताहत कर चुकी थी। उन्होंने ने कारण पूछा तो पता चला कि गाँववालें उसके दो शावक (बच्चे) उठा लाए थे। मादा बाघ इसलिए आगबबूला थी। उन्होंने दोनों शावकों को अपनी गोदीं में उठायें और मादा बाघ की ओर चल पड़े। अंदर की और गए तो साक्षात कालरूप मादा बाघ के दर्शन हुए। लेकिन जैसे ही एक शावक धीरे से उसकी ओर आगे किया कि वह कोमल मातृरूप में परिवर्तित हो गई। फिर दूसरा शावक छोड़ा। दोनों माता के आँचल को लगकर दूध पीने लगे। वह भी जुड़ गए। मादा बाघ ने दोनों शावकों को चूमा चाटा और उनको भी। फिर उन्होंने मादा बाघ से एक शावक को भेंट देने की बिनती की और माँ ने अपने पैर से हल्का धक्का देकर एक शावक दे दिया। उसे गोदी में उठाकर वह आगे चल दिये और लदाख पहुँच गए। लदाख में आर्मी आ चुकी थी। दूध पीते पीते बाघ अब बड़ा हो चुका था। वह पाठशाला में योगा सिखातें रहे और पीछे आर्मी के जवान बाघ को चुपके से मांस खाने की आदत डालते रहे। फिर तो रात होते ही बाघ कुंडी उठाकर गाँव की ओर चल देता और अपना मारण कर लेता और मुँह साफ़ कर चुपचाप अपने पिंजरे में आकर बैठ जाता। जब गाँववालों को लगा कि बाघ मवेशियों को मार रहा है तब उन्होंने बाबाजी से शिकायत की। बाबा ने उस रात ध्यान में बैठकर स्वरों को साधा और उस पर ध्यान जमाया। आँधी रात हुई वह चल पड़ा और अपना काम पूरा कर चूपचाप वापस आकर बैठ गया। जब बाबा ने उसे डाँटा तो उसने भी ग़ुस्सा करना शुरू किया। अब उसे रखना नहीं था। उन्होंने दो सोने की बाली बनाकर उसके कान में और दो चाँदी के कड़े आगे के दो पैर में पहनाए। फिर कह दिया की अब हम अलग होंगे। उसको लेकर फिर जंगल की ओर चल पड़े। बिछडना कितना मुश्किल था? कुछ कदम वह चलता फिर वापस आता। कुछ कदम बाबा चलते और बापस आते। यह सिलसिला पूरा दिन चला। फिर आख़री बार उसने अपने कदम आगे बढ़ाए और फिर लौट के वापस नहीं आया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध में वह सरहद पर थे और घटनाओं को देखकर उन्होंने गीत रचा था, ए मेरे वतन के लोगों.. जो प्रदीप को दिया और प्रदीप ने अपने नाम उसे अमर कर दिया।
कश्मीर की पहाड़ियों में ऐसे ही एक दिन भालू के परिवार से भेंट करनी पड़ी। उनकी गुफा में कोई नहीं जा सकता। लेकिन वह गए और उनके साथ बैठकर दो घंटे ध्यान लगाया। फिर बाहर आकर उनको पुकारा। वे सात का परिवार बाहर आया और चुपके से चल दिया। साथ वाले दंग रह गए।
एक दिन वह पंजाब में मर्सिडीज़ कार चला रहे थे। बाहर धूंद थी। कुछ भी नहीं दिख रहा था। ३०-४० की स्पीड पर कार चल रही थी। अचानक रोड पर पड़े पत्थर से कार टकरा गई और उसका रेडीयेटर टूट गया। ट्रकवाले जब रोड पर रूकना होता है तब पत्थर लगाते हैं लेकिन जाते वक्त उसे उठाके दूर करते नहीं। खैर, उन्होंने सामने आती एक कार को हाथ कर रोका। अंदर बैठे एक आदमी ने जैसे ही सफ़ेद वस्त्रों और लंबे बालों वाली आकृति देखी और चिल्ला दिया भूत-भूत। बाबा ने फिर बताया की उनकी कार ख़राब हुई है इसलिए यह जगह कौनसी हैं वह पूछने आए थे। फिर वह बाहर आए। सबके कंधे पर एके ४७ लगी थी। वह पटियाला की ओर किसी को टपकाने निकले थे और रास्ता भटक गए थे। उन्होंने किसी ट्रक को रोककर रबर ट्युब इत्यादि इकट्ठा कर कार को टो कर गराज तक पहुँचाया और देखते ही देखते उनका मुखिया सरबजीत सिंह बाबा का प्रेमी हो गया। बाबा की सलाह पर उसने अपना रास्ता बदला लेकिन जिस पिता की हत्या उसके भाई ने की थी उस जुर्म में उस पर मुक़दमा चला। बाबा जी ने वकील रखकर उसे बाइज़्ज़त बरी करवाया। होनी कौन टाल सकता है? बाबाजी सोच रहे थे कि संस्थान उसे सौंपकर वह फिर वह हिमालय चल पड़े लेकिन वह एक दिन उसकी गाड़ी किसी डम्पर से टकराईं और वह वही पर चल बसा। उसके मूर्त शरीर को उठाकर बाबाजी ने दाह संस्कार किए। उनका स्वर यहाँ आते आते मंद हो गया। किसी प्रेमी को खोने का क्या गम था? लेकिन वह कहते रहे वर्तमान में रहो। भूत के बवंडर में मत उलझो। जो बीता उसे पकड़कर नहीं रहना है। परमात्मा न तो आपका कुछ बुरा करता है न अच्छा। प्रकृति का क़ानून क़ायम है। जो कर्म किए फल भुगतना है। आज नहीं तो कल इस जन्म नहीं तो अगले जनम।
उनकी जवानी के दिन थे। वह एक लंगोट में रहा करते थे। बाल इतने लंबे की एड़ी तक पहुँच जाते थे। छह फूट से बड़ी हस्ट पुष्ट काया और रास्ते से गुजर रहे थे। अचानक एक महिला पर नज़र पड़ी जो नहाने के बाद अपने बालों से पानी झाड़ रही थी। उस पर नज़र गड गई। रूप के अंबार को देखकर उनके पैर और आँखें दोनों रूक गए। वह मन ही मन परमात्मा से अभिभूत थे कि उसने कैसा अनुपम सौंदर्य बनाया। वह स्टैच्यू बन गए थे और नज़र महिला पर गड़ी थी। वह महिला ने बाबा को देखा और विक्षिप्त हो गई। उसने अपने शौहर को बुलाया और फ़रियाद की वह बाबा उसे एकटक झांक रहा है। सरदार जी थे। ग़ुस्सा आ गया। लठ ली और बाबा की पीठ पर जो दे मारा। पीठ में चरचराहट हुई। ध्यान भंग हुआ और परमात्मा को कहा कि मैं तो आप की सौंदर्य रचना के अचरज में पड़ा था, न मेरे मन में दुर्भाव था फिर यह लठ क्यूँ? वह सरदार बेहोश होकर गिर पड़ा। उसकी बीबी वह सुंदरी दौड़ते हुए सामने आई और लड़ने लगी की उसके पति को क्या कर दिया? बाबा ने कहा जैसे तुने अपने मालिक को शिकायत की वैसे मैंने अपने मालिक को शिकायत की।हिसाब बराबर हो गया।
मसूरी अकादमी में हमारे गुजराती शिक्षक कालिदास त्रिवेदी उनके भक्त रहे है। मसूरी अकादमी का जहां बिल्डिंग है उसके कोट से लगी एक पाठशाला में वह अभ्यास करते थे। वहाँ के श्रीकृष्ण मंदिर के ओटे पर वह बैठते थे जहां कालिदास जी मिलने आते थे।
कभी वह ६० के दशक की बातें करेंगे कभी सत्तर की।और कभी कभी १९०४ की। कोई नहीं जानता उनकी आयु। कोई कहता है १०० कोई १६५। महावतार बाबा ने चुन लिया था उन्हें बचपन में। आज भी ध्यान में उनकी भेंट महावतार बाबा से होती रहती है। वह न पानी पीते हैं न दूध, न कोई सरबत। कोई सेब केला लाया हो तो कोई दीन एकाद टुकड़ा मुँह में रख लें या एकाद बादाम। न कोई भोजन करते है। बस करते है तो ध्यान और भ्रमण। भारत देश की पैदल यात्रा उन्होंने तीन बार की है। नंदादेवी से लेकर एवरेस्ट तक सब चोटी को छुआ है। अफ़ग़ानिस्तान से मानसरोवर तक पैदल भ्रमण किया है। कैलाश मानसरोवर अनेक बार गए है।पैर तो चलाए है लेकिन साइकिल और कार भी चलाई है। बड़े के साथ बड़े और छोटों के साथ छोटे बन जाते है। एक दिन एक अफ़सर के टीनेज बेटने नई लाई साइकिल सीखने को कहा तो केंद्रीय पर आसन लगाया, बैठे और चल दिए। साईकिल नासिक पहुँच गई। कुछ साल बाद उन्होंने साइकिल को इन्फिल्ड बुलेट बाईक बनाकर युवक को लौटाई। फ़ोटोग्राफ़ी का शौक़ है।उन्होंने लिए प्रकृति की सुंदरता के फ़ोटो अद्भुत है। कभी कभी बाँसुरी बजाते है। भजन के लिए उनका कंठ भक्तिरस से भरा मधुर है। कल उन्होंने दो भजन गाए।पहला था, “करो मेरे जीवन में ऐसा उजाला कि हर साँस हो तेरे चिंतन की माला; मेरे मन की दुनिया को इतना बदल दो कि दुनिया ये तेरी दिल से लग जाए।” दूसरा बड़ा अभी भी घूम रहा है। “घूम रही माया ठगनी ले लेगी तेरी गठरियाँ रे, मोह का पिंजरा है ए जग यहाँ कल की नहीं खबरियां रे.. अलख निरंजन। भर ले तुं संतोष के धन से, तन और मन की गगरियाँ रे… घूम रही माया ठगनी।” उनकी लिखी यह गीत फ़िल्म माया मच्छिन्द्र (१९७५) में फ़िल्माया गया था।
पालमपुर आश्रम कैम्पस रमणीय है। समर्पण बैठक और यज्ञ खंड है। ध्यान खंड है। ७१ कमरों का दर्पण आवास है। भोजनशाला है। उत्तर में हिमालय की पहाड़ियाँ, कुछ सफ़ेद चोटियाँ और पूरब से सूरज की निकलती धूप। सर्दियों में यहाँ बैठकर धूप सेकने का मज़ा ही कुछ और है। कैम्पस का मंत्र है निर्भयता, संगठन और आनंद। राष्ट्र देवो भवः वसुधैव कुटुंबकम्।
उनका संदेश है। वर्तमान में रहो। भूत के बवंडर में मत उलझो। किसी का बुरा मत करो। जितनी हो सके ज़रूरतमंदों की मदद करो।राष्ट्र को प्रेम करो। अपने साँसों का अभ्यास कर उसमें स्थिरता लाओ। विचारों की खरपतवार दूर करो। जब भूमि बीज के लिए तैयार होगी तब उसमें बीज मंत्र बोया जाएगा।
हिमालय के सिद्धयोगी बाबा अमर ज्योति जी का फिर एक बार साक्षात्कार कर जीवन धन्य हुआ और परमात्मा ने हमें इस जीवन रूप में दिए अमूल्य उपहार की समझ और बढ़ी।
पूनमचंद
पालमपुर, हिमाचल प्रदेश
(महावतार बाबाजी मेडीटेशन सेन्टर, रामछेहर)
१० फ़रवरी २०२४
१० फ़रवरी २०२४