नकटा।
Thursday, December 19, 2024
Tuesday, December 17, 2024
जीवन का उद्देश्य।
जीवन का उद्देश्य।
दो दिन पहले एक गाँव में एक शिक्षित युवक से भेंट हुई। ऊँचा क़द, काला शर्ट और लम्बे बाल। वह अमेरिका से एकाध महिने के लिए अपने माता-पिता के साथ भारत आया हुआ है। उसकी उम्र होगी क़रीब २५ साल। उसने गुजराती में वार्तालाप शुरू किया। वह गुजराती लिखना पढ़ना नहीं जानता लेकिन मातृभाषा उसी गाँव की उपभाषा के लहजे में बोल लेता है। मुझे संवाद में मज़ा आ रहा था इसलिए कुछ निजी बातें कर ली। क्या कर रहे हो? कहा नौकरी। किसकी नौकरी। कहा, अपने पिता का मोटल है वह चला रहा हूँ। पूछा क्या पढ़े हो? बताया कि एमबीए फ़ायनेंस। फिर भी मोटल चला रहे हो? वह तो नहीं पढ़ते तब भी कर लेते, मैंने ज़रा उकसाया। नहीं नहीं मुझे तो ढेर सारा डॉलर कमाना है। कैसे बनाओगे? फैक्ट्री खोलोगे? कई दुकान करोगे? बिल्डर बनोगे? डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी खोलोगे? लिकर शोप खोलोगे? कैसे डॉलर बनाओगे? हमारे यहाँ सुरत में चौथी-पांचवीं पढ़े लोग इतना कमाते हैं कि रुपयों से गोदाम भर जाती हैं। मैंने प्रश्नों की झड़ी चला दी। नहीं नहीं, एमबीए फ़ायनेंस किया है इसलिए फ़ायनेंस की ख़बर रहती है कि कैसे डॉलर की कमाई बढ़ाई जाए। जैसे कि एक नहीं लेकिन ५०-१०० मेटलों का मालिक बन जाना और उसको चलाना। बस जीवन का एक ही उद्देश्य है, खूब सारा डॉलर बनाना।
मुझे वहाँ की शिक्षा में दिलचस्पी हुई। पूछा वहाँ के नागरिकों के लिए मुफ्त होगी? नहीं, वहाँ हर सेवा का डॉलर लगता है। ग्रेजुएशन की शिक्षा में नागरिकों को एक साल की फ़ीस $ १०००० से ८०००० लगती है। सामान्य कॉलेज $१०००० लेगी और हार्वर्ड में $८०००० होंगे। अगर फेल हुए तो दूसरी बार फ़ीस लगेगी। हॉस्टल, खान-पान, परिवहन सब अलग। बाहर के विद्यार्थी के लिए यह फ़ीस दुगुना या उससे भी अधिक हो सकती है। अब पढ़ाई में इतना खर्च लगा तो पढ़ने के बाद वसूली तो करनी होगी।
अगर इतनी कठिनाई है फिर भी क्यूँ भारतीय और खास करकें गुजराती पटेल क़र्ज़दार होकर भी अमेरिका जाना चाहता है? मैंने उसकी गहराई नापनी शुरू की। मुझे भी नहीं समझ आता। यहाँ थोड़ी कमाई में अच्छा फ़्री जीवन है फिर भी पता नहीं क्यूँ लोग वहाँ आना चाहते है। वहाँ आकर एक मोटल के कमरों के जीवन से ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होना है। तीन-चार साल की मजबूरी से कुछ नहीं होना है। १५-२० साल के बाद ही कुछ कमाई दिखती है। तब तक तो जीवन की शाम ढल चूकी होती है और नई पीढ़ी अमेरिकन जीवन की आदी हो जाती है। न भारत वापस जा सकते हैं न डॉलर की दौड़ में टिक पाते है। यहाँ सही चल रहा है तो नहीं आना चाहिये। वह अपना तर्क लगा रहा था।
तुम क्यूँ नहीं आ जाते? नहीं नहीं मुझे तो ढेर सारा डॉलर कमाना है। एमबीए फ़ायनेंस किया है। यहाँ तो उकताना हो जाएगा। आज शादी में गया था। देखते देखते थक गया। लड़का लड़की शादी कर रहे थे और हमारा पूरा दिन देखने में चला गया। बोरिंग हो गया। उसे फुरसतवाले जीवन से अच्छा नहीं लग रहा था।
अब चले भारत की ओर। यहाँ सरकारी शिक्षालयों की शिक्षा लगभग मुफ्त है। कन्याओं को उच्च शिक्षा भी मुफ्त है। मेडिकल के अलावा बाक़ी शिक्षाओं में निजी संस्थाओं की फ़ीस भारी नहीं जितनी की अमेरिकी। ६० प्रतिशत आबादी को फ़्री या रियायती राशन उपलब्ध है। सरकारी अस्पतालों में मेडिकल सुविधाएं लगभग मुफ़्त है। निजी संस्थानों में इनपेशेंट सेवा में पीएमजय योजना से सरकारी सहाय से इलाज हो जाता है। घर बनाने में फ़ायनेंस और सरकारी सहाय उपलब्ध हो जाती है। पानी का किराया कम है या लोग नहीं भरते। बिजली सस्ती है।सोलर ऊर्जा ने और सस्ता कर दिया। परिवहन सस्ता है। मोबाइल भी कम लागत से चल रहा है। खाना फुटपाथ से खा लो तो घर के बराबर खर्चे में निपट जाता है। अर्थव्यवस्था की गति के लिए अथवा वॉट की राजनीति के लिए मुफ्त की योजनाओं के नोट भी मिल जाते है। देशीवालें को देशी और विदेशी के चाहक को विदेशी मिल जाती है। गुटका, तम्बाकू और मोबाइल रीचार्ज के पैसे की कमी नहीं रही। दूध की थैली लेने बाइक पर कीक लगानेवाले बढ़ गए है। सरकार अगर तेल पर जीएसटी लगा लेती तो यहाँ के शहरों के रोड वाहनों से भरे है, कार्यस्थल पर पैदल ही जल्दी पहुँच जाएँगे। गाँवों में पहले बैल ज़्यादा दिखते थे फिर उनका स्थान ट्रेक्टर्स ने लिया अब बाइक भर गए और शान की सवारी कार हमारी बढ़ रही है। जीवन में यहाँ फुरसत ही फुरसत है। कई लोग दिन में सात आठ घंटे व्हाट्सएप और यूट्यूब देख लेते है। जहाँ देखो वहाँ सोश्यल मीडिया के भूत सवार है। लोग व्हाट्सएप युनिवर्सिटी के ज्ञान से बहसबाजी कर रहे है। गूगल महाराज ने दिमाग़ की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिये है। मोदी जी कैसे राज करे और राहुल कैसे विरोध, सलाहकारों की भीड़ लगी हुई हैं।
अमेरिका हो या भारत, सब जगह सुविधा चाहिए, पैसे चाहिए, अपनी मर्जी का जीवन सुख चाहिए और ऐसा करते करते नैतिक मूल्यों का ह्रास हो उससे ग्लानि कम हो रही है। यह नया विश्व है।
पूनमचंद
१७ दिसंबर २०२४
Monday, December 16, 2024
क्या हुआ? किसका क्या गया?
क्या हुआ? किसका क्या गया?
इस महीने तीन घटनाओं से मेरा सामना हुआ। मेरे दूर की नज़र के चश्मे टूटे थे इसलिए नए के लिए गांधी रोड अहमदाबाद में स्थित एक परिचित की दुकान गया था। दुकान के मालिक की रूम के बगल में एक ३५ साल के आसपास का लड़का शांत बैठा था। बात निकली तो पता चला कि वह उनका पुत्र है जो जन्म से बहरा और गूंगा है। वह सुन नहीं पाया इसलिए समझ नहीं पाया और इसलिए बोल नहीं पाया। कुछ इशारे, कुछ गुजराती संज्ञा शिखाने का प्रयास किया लेकिन सामान्य युवक की तरह वह शिक्षित नहीं हो पाया। संयोग से परिवार को दूसरे वर्ण की एक बहरी और गूंगी लड़की मिल गई जिससे उसकी शादी करवाई। लड़की चतुर होने से उसे रेलवे में नौकरी मिल गई जहाँ वह रजिस्ट्री में निर्धारित काम करती है। युगल को एक लड़का हुआ लेकिन वह भी जन्म से बहरा और गूंगा हुआ। तीनों पात्रों पर गौर फ़रमाए। तीनों के पास स्वस्थ शरीर है। तीनों के पास मन है। मन है इसलिए बुद्धि और चित्त दोनों है। मैंने युवक से वार्तालाप का प्रयास किया। लेकिन पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से एक कर्णेन्द्रिय नहीं होने से वह बाह्य जगत को देख तो रहा है लेकिन उसके बारे में ज्ञान ग्रहण नहीं कर पाने से उसे दूसरे स्वस्थ पंचेन्द्रिय मनुष्यों की तरह न समझ आ रही है न उसके बोध को ग्रहण कर रहा है। शरीर की भूख, तृषा और तृष्णा को भोग लेता है लेकिन उसकी अभिव्यक्ति की समझ नहीं होने से वह देखते हुए भी अंधकार में जी रहा है।
दूसरी घटना में ८४ साल के हमारे एक निवृत सीनियर आईएएस अधिकारी को एक सुबह उठते ही वाणी और तर्क का औरिएन्टेशन चला गया। वह परिचित परिवार और दृश्यों को देखते हुए भी उसको सही ढंग से पहचान कर बोल नहीं पा रहे थे। उन्होंने लिखने का प्रयास किया लेकिन हाथ उनके मन में चल रहे शब्दों को प्रकट नहीं कर पा रहा था। इतने सालों से अर्जित की विद्वता पल में ग़ायब हो गई। उन्हें अस्पताल ले गए जहाँ ब्रेन में ट्यूमर निकला जिसे सर्जरी सी दूर करवाया। अब सर्जरी के बाद वह अपने पूर्व रूप में पुनः आ जाते हैं कि नहीं उसका पता कुछ दिनों या महीनों के बाद चलेगा। उनका शरीर स्वस्थ है। मन भी स्वस्थ था। चित्त भी है क्योंकि उन्होंने बार-बार अपने मन में चल रहे विचार प्रवाहों को बाहर प्रकट करने प्रयास किए लेकिन कर नहीं पाए। बस बुद्धि के कुछ क्षेत्रीय कार्य न्यूरॉन दब गए, बिखर गए जिससे उनका प्रसंग संदर्भ चला गया और वह जिह्वा होते हुए भी गूँगे हो गए।
तीसरी घटना मेरी इस हप्ते हमउम्र शिवजी से मुलाक़ात की है। चार साल हुआ था उनकी २७ सालकी एक बेटी के देहांत को लेकिन बात करते करते बेटी के जाने का ग़म चेहरे पर उभर आया और आँखें नम हो गई। क्या हुआ था? इतनी छोटी उम्र में वह कैसे चल बसी? मैंने सवालों की बौछार लगा दी। लेकिन जब जवाब सुना मैं अवाक हो गया। दरअसल वह बच्ची जन्म से ही कोमा में थी। फोरसेप डीलीवरी के कारण वह एक गहरी नींद में चली गई थी जहाँ वह कोई भी प्रतिक्रिया नहीं कर सकती थी। जन्म से लेकर २७ साल तक वह कोमा में रही और बिस्तर पर ही बड़ी हुई। शिवजी उसे हर दिन नहलाते, धुलाते और प्रवाही खुराक खिलाते और बड़ी करते। उसकी तबियत में हल्का सा उतार-चढ़ाव हो जाए तो डॉक्टर हाजिर। पूरा ध्यान बस एक ही लक्ष्य पर कि वह कोमा से बाहर आ जाए। २६ जनवरी २००१ के कच्छ भूकंप के दिन अहमदाबाद के कई मकान गिरे थे। उसमें उनका फ्लैट कोम्पलेक्स भी शामिल था। जैसे ही भूकंप आया, बिल्डिंग हिलने लगी और सब दौड़ के बाहर आए और जल्दी से नीचे उतर गए। शिवजी भी नीचे आ गए थे। लेकिन तुरंत याद आया कि ८ साल की वह बेसुध बच्ची तो उपर रह गई। वह तुरंत भागे उसको लेने। लोगों ने रोका, हाथ पकड़ा, कहा क्यूँ अपनी जान जोखिम में डाल रहे हो, बच्ची वैसे भी न जीने के बराबर है। लेकिन बाप नहीं रुका। दौड़ के चौथी मंज़िल चढ़ा और बच्ची को गोद में उठाकर नीचे ले आया। बिल्डिंग भी शायद यही इंतज़ार कर रही थी, उनके आते ही वह धराशायी हो गईं। शिवजी ने फिर पूरी बिल्डिंग और फ़्लैटों को नये से बनवाया लेकिन बेटी की देखभाल करते रहे। २०२० में एक दिन जब वह उसे नहला रहे थे तब उसने अपनी गर्दन उसके कंधे पर डाल दी और उसकी चेतना शांत हो गई। कुछ ही मिनटों में उसका शरीर नीला हो गया। डॉक्टर को बुलाया लेकिन वह गुज़र चुकी थी। २७ साल तक वह रही इस पृथ्वी पर सिर्फ़ हल्की सी एक चेतना के सहारे लेकिन उसके मन, बुद्धि, इन्द्रियों ने उसका साथ नहीं दिया। साथ क्या वह थे नहीं अथवा साथ देने के क़ाबिल नहीं थे।
उपयुक्त तीन कहानियों में दो विकलांगता जन्म से है और एक आयु बढ़ने से। तीनों ही स्थितियों में मनुष्य शरीर के साधन में कुछ कमी आने से उसका ज्ञानार्जन और अभिव्यक्ति बदल गए। प्रश्न यह उठ रहा है कि क्या यह परिवर्तन उसके स्थूल शरीर का है या सूक्ष्म शरीर का? क्या इस परिवर्तन का असर उनकी आत्मा पर होगा? क्या उसके कर्म संस्कार पर होगा? क्या उसके जन्म मरण के चक्र में कोई फर्क पैदा करेगा? जब बाह्य जगत को समझ पाना मुश्किल हो गया फिर अपने चैतन्य और चैतन्य के सोर्स को कैसे पहचानेंगे? ज्ञान ही नहीं रहा फिर ज्ञानी कहाँ रहा?
महाज्ञानी महापुरुष भी आयु से शरीर का अंत आते आते कमजोर पड़ते दिमाग़ और इन्द्रियों की वजह से जीवनभर जो कुछ ज्ञान उपार्जन किया था वह खोने लगते हैं। किसी को खोने में महिने लगते हैं कोई आखरी पल में खो देता है।जीवन प्रवाह बंद होते वक्त हो सकता है कोई एक विचार या स्मृति रहे लेकिन जैसे ही श्वास बंद हुआ सब शांत हो गया। जीवन समाप्त हो गया। न कुछ गया, न कुछ आया, विसर्जित हो गया।
पूनमचंद
१५ दिसंबर २०२४
Wednesday, December 4, 2024
Reflected Consciousness
Reflected Consciousness
Tuesday, December 3, 2024
Trip to Gangotri
A memorable visit of Gangotri
After a night stay and a good breakfast of Paratha-Sabji at HNB Guest House Srinagar (UK) on 20 November 2024, we departed at 8.30 AM and reached Uttarkashi by 2 PM. The PWD Guest House was closed and the caretaker was not available, therefore, we took a round of the city and had Darshana of Uttarkashi Vishwanath Shiv Temple and temple of Ma Annapurna. The pujari at the Uttarkashi Vishvanath Temple tried to explain that Linga of the temple is original and one of the biggest and is slanting. One young Pujari sat in the premise of the temple to perform ritual on demand happened to be an Acharya, did his MA in Sanskrit but opted for this profession. We went to Ganeshpura a nearby place where Swami Preamanand Sarasvati of Shivanand Ashram has established an Ashram on the bank of river Ganga. Swami welcomed us and offered to stay in the Ashram which we couldn't deny though Mr. Negi from PWD Guest House had confirmed our reservation. The place was 5 kms away from Uttarkashi and enroute to Gangotri and we had planned to leave for Gangotri very early in the morning next day, we accepted the loving offer. We joined the evening prayers where few foreigners were present. There were books of translated prayers in English made available to them. I don't know their tour model but many of them come in Himalayas, buy Indian clothes, find a place in one of the ashrams, stay and eat whatever is served, participate in the morning and evening prayers and do their touring of interests. They may be coming in groups but live scattered as per the availability of accomodation in ashrams and manage their tours and travel in coordination with each other. However, their love for the Indian spirituality, prayers and practices are sometimes more than the Indians. We did enjoy the prayers and the dinner of the Ashram. The Swamiji took special care, made a rasam soup and sweet dish available to us. He arranged for a glass of milk and place a cup full with freshly made Chyavanpras in our room. Next day morning before Lakshmi got ready I had attended the morning prayers and enjoyed a cup of tea. We started from the Ashram at 7 AM and reached Harshil by 9.30 AM. My wife has a picture memory and I have a sound memory, therefore, she immediately recollected the places of our first visit to Harshil and take me to the Post Office where heroine Mandakini (Ganga) of Raj Kapoor's blockbuster movie Ram Teri Ganga Maili (1985) used to come to find a letter from her Hero Rajiv Kapoor (Naren). Set up in a rented house in 1960, built of wood and local materials, the post office was featured in several key movies. There were Apple trees without Apple as the season got over. The shops were closed but one tea stall was open. I tried to feel taste of the watery tea but my wife served it to an ox standing besides. Two more oxen joined him. The vender was drunk. We stopped at Kedareshwar temple at 10.30 AM which is half in water and half above the ground. We bought some Rajma and apple from a shop in Dharali. Harshil is famous for pahari ivory rajma, greenish royal apple and potatoes. We reached Gangotri at 11.15 AM. The valley approaching Harshil and from Harshil to Gangotri is scenic and beautiful surrounded by mountains and forests. It is thrilling experience to travel through the curvy roads. Barring few cuts on the mountains the roads are not made national highways like Badrinath route, and that way the beauty of the valley hasn't been disturbed.
The shops and houses in Gangotri were closed but we could see few tourists. We went to the Gangotri temple premise, had darshana from outside, took prasad from a bottle kept out side, took pictures and sat on the bank of River Bhagirathi to enjoy the nature. All know the story of King Bhagirath who invited river Ganga from the heaven for salvation of his thousand step brothers. Gomukh is about 19 kms away from where the river originate. It suggests how much of the glaciers has been melted over the centuries.
It was scenic view in a sunny day where the river was flowing softly in the calm of mountains. I saw a small stone mobile Shivlinga at the edge of the river, took it and use it for worshiping using water of Ganga. My wife followed me. She offered the water 11 times and to her surprise, received coins of ₹11 from the river Ganga where she sat. She tasted the fresh ice. Both of us used the moments for meditation.
We got up to return but my wife took me to the other side of the river towards Surya Kund the place I had seen in past but forgot. We enjoyed the flow, fall and sound of water in the valley. As usual we took some pictures, videos and departed at 12.45 PM. On return, we stopped at Bhairav temple of Bhairoghati but it was closed. We took our lunch at Dharashu paying ₹60 for a plate of Rajma and Rice. I bought one radish @₹10 to rich my salad. We purchased sweet karela and semi as taste of mountains and returned Uttarkashi.
That evening of Shri Shivanand Ashram became vibrant with the visit of few local school girls in the prayer. They were so accurate in their pronunciation, rhythm and melody of the music and with speed that they could finish prayers, hanumanchalisa, some path of Ramcharitmanas and some verses of Sarasvati Rahasya Upanishad in one go of singing in 60 minutes. They made the prayer room vibrant and energetic.
Swamiji Premanand Sarasvati (84) was a nationalist participated in the freedom movement with his father and cried when Gandhiji was killed. He is BSc (Agr) but life took him to renunciation. He walked by foot from Rishikesh to Uttarkashi and settled in 1964. It took him 5-6 decades to reach to the state of an Ashram establishment. He was still sharing happy moments of his past when there was no electricity and thick chapati made of his hands added with salt giving him more happiness than the modern life of different facilities. He is working for the Divine Life Mission of community upliftment and helping the deprived of Ganeshpura. He gifted us Bhagwad Gita, Life mission Picture book of Swami Chinmayanand and 1 kg box of Chyavanpras.
Next day morning, we departed the Ashram after the breakfast and with one stop on the way at Adra Kheda, bought some pulses and Rishikesh in the afternoon. We visited Lakshman Jhula which is undergoing repairs and came to Chotivala restaurant travelling a big round of a circular route of 45 minutes in a car to have our lunch at 2.30 PM. Rishikesh has one road bridge to the east end for the four wheelers, therefore, it takes extra time to reach to the places and ashram at the west end. The market near Lakshman Jhula is losing it viability in absence of customers as the repairs of Jhula is taking longer time than expected. People are awaiting when the glass Jhula as promised will be completed and open for public.
Chotiwala's Thali is expensive costing ₹415 but one persons can't eat all therefore sharing makes it economical. After a thali lunch of Chotiwala, we took a room in Parmarth Niketan Ashran, placed our luggage and joined the evening Sandhya Aarti of River Ganga. The booking can be done online and if rooms are available one may get it from the reception on arrival. It costs only ₹500/bed. The canteen of the ashram is open to all, very economical as the fix thali costs only ₹100. There are other varieties available at very reasonable price. As we had late lunch therefore enjoyed mung dal halwa as sweet dish of the Ashram in dinner and concluded our trip to Himalayas.
Punamchand
3 December 2024
Sunday, December 1, 2024
Inner Voice
Inner Voice
The visible world, the existence, is the Mother Nature, manifestation as Shakti of the power of the Almighty whom different religions have given different name.
Nature is basically three qualities: सत्व-रजस-तमस of which the whole creation is made of. Humans being part of nature carry these three qualities. However, all are not equal in nature as one of the qualities dominate in the mind of each individual. Some are dominated by सत्व, some by रजस and some by तमस.
सत्व dominated people are good by heart, carry fear or live for God and his creation; their thrust is more for knowledge and therefore they gain peace and happiness. रजस dominated people are vibrant, active, try to dominate the surroundings with their ego, use force and receive unhappiness and sorrow as end results. तमस dominated people are depressed, curse others for their depression and live in darkness. There is fourth class which is mixture of रजस and तमस carry both the qualified of रजस dominated lot and तमस dominated lot. The Indian classification of Varna by inner quality and action (गुण कर्म विभाग) is a replica of this theory in practice; divided the humans in four categories (ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र, वैश्य respectively) and assign them work suitable to their nature. Unfortunately, it was converted into a rigid system of inequality by birth and became a stigma on Hinduism. In reality, each individual carries three qualities mentioned above and is dominated by one of them and accordingly he/she likes/chooses his/her profession.
To make the play further complex, the nature injected six impurities/enemies (षडरिपु); lust, anger, greed, affection, pride, envy (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) in our mind; added two puppies called attachment and hatred (राग-द्वैष) and therefore we are witnessing the whole drama of selfish actions in the name of creed, race, caste, etc. Multiplicity is another quality of Mother Nature and therefore each individual tries to multiply his/her existence, tries to encroach upon the territories of others. Somehow some equilibrium is maintained for our survival otherwise we would have been destroyed.
Each individual carries three bodies: the physical, the subtle and the causal. Subtle means mainly the mind, intellect, memory and ego. Our present life is governed by the subtle in which the mind is the major. Interestingly, the mind is made of सत्व, therefore, large majority of humans are good irrespective of their faith. But as the mind carries impurities mentioned above, each individual is running after the worldly matters to fulfill his/her desires.
But the whole play is performed on the screen of Atma/Soul/Prana/life energy; therefore, the inner voice is always present. Mind is made of सत्व, therefore, it listens the inner mind voice and acts. But while chasing the desires, the impurities multiply and make hard covering over the mind and therefore, the mind loses its hearing capacity. The inner voice always sounds but either the mind covered with the impurities can’t hear or avoid to hear.
The chakra of triangle to walk righteous path is fixed in each heart for movement/action. It carries edges, therefore, when it moves wrong, there is hurt inside. But as the individual multiplies his/her wrongs, the chakra triangle loses its edges and the shape becomes a circle. An individual can listen the inner voice more when he/she chakra triangle is intact, but as soon as it loses the edges and becomes a circle, he/she loses hearing capacity and make him/her a liability over the mankind.
Punamchand
1 December 2024
Saturday, November 30, 2024
Accidental gain from Badrinath
Accidental gain from Badrinath
The kapat of the temple of Badrinath (UK) were closed on 17th November 2024 when we were in Haridwar. Our original plan was to spend one day in Haridwar, two days in Uttarkashi and two days in Rishikesh touching Devprayag. But while taking dinner on 17th, we changed our programme and decided to visit Panchprayag and replan the visit as we travelled. On 18th, we made halts at Devprayag (confluence of Bhagirathi and Alaknanda), Dharadevi, Karnaprayag (confluence of Pindari and Alaknanda), Nandprayag (confluence of Nanda and Alaknanda) and reached Joshimath by evening. We visited Jyotir Math the northern peeth of Atharvaveda established by Adi Guru Shankaracharya by appointing his disciple Todakacharya as its first head. There is a cave in which we could see the two Shivlingas made of crystal brought from Badrinath and one ancient Shivlinga. The main hall of the Peeth has one side the seat of Shankaracharya and opposite to it the crystal Shriyantra in the shape of Shivlinga four feet above and four feet underground. The side walls have idols of 64 yoginis covering the walls. The present Jagadguru comes occasionally at the time of opening and closing of Kapat of Badrinath Temple and to attend to other events organised at the Peeth. He stays mostly in Varanasi otherwise. We visited the Narsimha temple. Lucky we were that we got a room and dinner service at NTPC Guest House. Next day morning, there was no water flow in the taps as we forgot to keep the bucket full with water as the water pipes get chalked in mountains in winter. The campus was empty and the service staff was to come at 7 AM. Considering the travel schedule, we somehow managed our daily routine using jug water and water bottles available and departed for Badrinath at 6 AM.
We reached at Hanumanchatti at 7 AM and stopped for Darshana. One security man came out of the tent hearing the sound of the car and told us to return unless have a written permission of the authority to move forward. I requested him to allow to travel to visit the Badrinath temple from outside and also argued that had we not stopped for darshana of Hanumanchatti the road was open and we would have travelled ahead when he was in his room. He allowed us and we reached Badrinath at 7.20 AM. It was empty town with all shops closed and no humans except few individuals seen at the hot water stream near the temple.
In the absence of the rush of the pilgrims we could enjoy the nature, the flow of river Alaknanda, the temple premises very well. We had no plan to take bath in the Tapta Kunda located in the courtyard but somehow when we went there it has attracted me. I didn’t carry a towel and changing clothes as there was no plan to take bath and the car was parked away. But the attraction of the natural hot water pool containing sulphur was pulling me in. In absence of rush for the bath, I took bath for an hour in that sulphuric hot water as my wife also went for a bath in the women pool. I allowed the inner garment to dry on its own, put on same clothes and moved forward towards Mana, the first village of India facing China border. It was empty village except the sound of couple of starlings. We visited Bhim pul, Saraswati Dhara, Pandavas route to heaven, Vyas cave and Ganesh cave where the epic of Mahabharata composed and returned. We halted at Pandukeshwar at 11 AM and have darshana of Kuber, Yogbadri and Vasudev Temples. At 12 PM we reached Vishnuprayag to enjoy confluence of river Dhauli Ganga with Alaknanda and reached Rudraprayag in the evening to have magnificent view of confluence of river Mandakini with Alaknana. The road changed to the right to go for Gangotri. We concluded our visit of five Prayags and reached Srinagar (UK) in the evening where we got a room in HNB University guest house.
I shall write the details of our journey to Uttarkashi and Gangotri later but the intention of this article is to narrate how an accidental change in our tour programme pulled us to the Tapta Kunda of Badrinath which has resolved my health problem I was facing for 55 years.
When I was 9 years old, my back was injured by the forceful jump of opponent players when I was touching the border line while playing kabaddi in the street of my chawl. After a pain for a fortnight, I forgot the incident but as I grew older the fracture was fused through sacralisation of L5-S1 vertebrae with the hip bone. It had restricted my mobility and weaken my left side of the body.
When we returned home after the trip of Badrinath, it gave me a great surprise. My left hip fused with the vertebrae for 55 years suddenly got relieved, the neck was relived from the tension and with the removal of inflammation in the spine the irritation of mind has gone. Isn’t it an accidental gain out of a visit of a famous temple whose doors were closed?
Jai ho Badri Vishal ki😊🙏🙏🙏
Punamchand
30 November 2024
Thursday, November 28, 2024
The Lost Gold
Lost Gold
There is a couple in their nineties. The man narrated a story of their past, a story of ‘lost gold’.
The couple went to attend a marriage. The lady in rush or in pressure of silky garments dropped ornaments weighing 12 tolas. They came to know after some hours and the mood of joy changed into a state of sorrow. Wife was crying and husband dropped a letter before his house deity that he wouldn’t accept the gold even if it was returned by somebody.
Luckily, the gold was found out by a poor unemployed man who came next day and handed it over to the family. But the husband was determined to not to accept it. They debated for whole night and as the husband was adamant, they finally decided to offer it to the Guru of the man who found out the gold. The man was follower of BAPS Seaminarayan. They all went to offer the gold to Pramukh Swami. As he was getting ready to pick up flight for London his access was denied initially. But when Dr. Swami came to know that the visitors have come to offer gold, they were allowed to meet. They dedicated the gold to him but he advised it to do so before the Shriji. Two idols (Swami-Narayan) were brought immediately to whom they offered the gold, of which half was kept and half was returned as offerings. Look at the nature of the husband, he sold it to the market and from the money received, he organised a lunch party of his society of 160 families, narrated the whole story of the lost gold and paid respect to the man who returned the gold by giving him a silver memento of Sidi Saiyyid’s jali.
My wife asked me a question, who became the real beneficiaries of the lost gold? Neither the family who lost it, nor the person who found it. The BAPS and the Society were the real beneficiaries who received the lost gold and the delicious lunch respectively. The story proceeds further.
The man who returned the gold was unemployed after closure of Calico Textiles Mill. He went as volunteer to serve water in the Katha of Morari Bapu organised by Karasanbhai Patel of Nirma. The man came in the eyes of Karsanbhai and luckily for him he was from the same village of Karsanbhai. He was appointed in the store section and later promoted to supervise the purchases of the company. The company gave him flat near law garden Ahmedabad and granted scholarships for the education of his daughter. He visited USA couple of times and live happily these days.
The husband who denied accepting the gold was making will of individuals free of cost, and by chance he made a will of a Marvadi Sheth of a tree garden in Kolkata who invited the couple in a marriage event of the family. The Marvadi Sheth gifted a gold necklace of 25 tolas to his wife. The lost gold doubled and returned though another hand. But the story moves further. The husband was a sleeping partner is a travel business which went in losses. One day, the wife of his partner raised the issue of some losses in the business. He immediately gave away those 25 tolas of necklace to her. But how long one can held an unlawful collect. They return the necklace after three years when the couple returned from the USA.
Good acts always pay back.
Punamchand
28 September 2024
Thursday, November 14, 2024
Met a gorgeous Lady
Met a gorgeous Lady
I met a gorgeous lady in Delhi this week. When she introduced herself as Ms. Shashi Uban Tripathi (IFS:1970), I couldn’t catch her surname. When I asked her again she replied with a broad smile on her face. ‘Uban is my surname from my father and Tripathi is a surname from my husband’. Uban was their native place located in North West Frontier Province. Her father was a Captain in Indian Army and was posted in Delhi at the time of partition of India. Her grandmother was living in Ravalpindi. When she was to move to Delhi as Pakistan was formed, she denied by saying राजाओ का बँटवारा होता है, प्रजा का बँटवारा नहीं होता। However, the family somehow convinced her to come to Delhi as her daughter in law was expecting a delivery of her first baby (Ms. Shashi). She came but was saying that she would return to Ravalpindi after three four months. She couldn’t because the situation worsen thereafter.
Whomsoever the migrants one meets, their love and attachment to their native land and love to the people of that land are visible on their face and expressions. Many of them don’t carry the hatred of partition instead remember the days of loving relationships of both the communities. Destiny had scattered their lives. The act of violences by some anti socials and misguided youths hurt both the communities badly resulting in killings of one million people and displacement of 15 million. They couldn’t forget, the warmth of relations as well a the unfortunate partition. However, life has to move forward.
Ms. Shashi was born in the year of Partition of India. After her graduation, she joined IFS:1970 and served in the External Affairs Ministry and abroad as Ambassador & High Commissioner to Poland, Zimbabwe and Canada. Her husband Manilal Tripathi was also from IFS:1970 had served on various capacities as diplomat of India. Ms. Shashi served as Member of UPSC post retirement.
She was sharing anecdotes. It was Indian PMs visit to Moscow in 1979. He was accompanied by the MFA Atal Bihari Vajpayee. Mr. Gujaral was the Ambassador. The couple was serving as First Secretary in the Indian Embassy of Moscow. The Embassy had prepared the toast speech of H’ble PM in English. But when Mr. Vajpayee came to know that the USSR President Brezhnev was going to toast in Russian, he proposed that our PM would toast in Hindi. But who would translate? There was no facility of translator and the officers and staff were carrying english background. Finally, Mr. Vajpayee himself translated the speech and gave dictation to Ms. Shashi who wrote it down on a paper neatly. PM Morarjibhai read the toast speech in Hindi. What a coincidence it was that the three men present in the event Morarjibhai, Vajpayee and Gujaral became the PM of India.
At 76, she carries childlike innocence and her face lights up with her smile. She is a diplomat in action, very courteous, speaks precisely, reads carefully, writes neatly and verifying before sending the note to another hand. I read somewhere that neat handwriting is a sign of organization and discipline. Furthermore, people who write neatly tend to be reliable and dedicated. They are conscientious and take a pride in their work. They have a strong work ethic and are meticulous about following instructions and procedures. I could mark all these qualities present in Ms. Shashi Uban Tripathi. Our salutes to her.🙏🙏🙏
Punamchand
13 November 2024
New Delhi
Tuesday, October 29, 2024
Spirituality is a quest
Spirituality is a quest
Search of knowledge is the basic instinct of humans living on the earth including India. Who is He behind the play/creation was the quest and in realising Him (knowing the truth), man used his available five senses of perception and ultimately surrendered when failed to realise. It was beginning of the prayers. All our practices and rituals of religions are mainly aimed at realisation of the true self. If atom-quantum-photon is the basic element behind the creation of the visible world, consciousness is us is the basic element of the universal power of the Purusha/God. All mantras, suktas are payers to pray the Shakti of the Shaktiman and all the japs, tirthatans, meditation, yoga, etc, are means to realise Shakti and Her Shaktiman. The five senses of perception when are outward, run after the world-bhog for getting happiness. But when fail, revert inward and make the mind powerful which connects itself with the soul/individual consciousness and the smaller I further deeper get connected with the universal real I in Samadhi. Knowledge of the real true self (the eternal- सनातन) is the quest.
As all humans are not equal intellectually, therefore, they interpret the pathways differently and therefore there are many practices and orthodoxies across the Indic and other religions.
Spirituality/peace/happiness is the inner most thrust of the mankind, therefore humans will continue running after it knowingly or unknowingly.
Punamchand
29 October 2024
Monday, October 21, 2024
Indian Spirituality, a search for thyself
Indian Spirituality, a search for thyself
Many Indian myths are symbolic and therefore carry multiple interpretations. Let some people call them imaginary or some call them rich thoughts of ancient Indian minds but even if they are imaginary, are useful in the research of modern science on theory of creation.
A mechanical diploma holder clerk (Einstein) had changed the vision of the scientific world with his thoughts in the beginning of 20th century and within a century modern physics has uncovered many mysteries of creation with the theories of Big Bang, black holes and strings. Physicists have identified four fundamental forces (gravitational, electromagnetic, strong nuclear, weak nuclear) and 12 building blocks made of 6 quarks (up, down, top, bottom, charm, strange) and 6 leptons (electron, electron neutrino, muon, muon neutrino, tau, tau neutrino) along with gluon, photon, z boson and higgs boson. The photons released by the Big Bang are makers of our universe/s of galaxies, stars, planets and satellites but what was before Big Bang, what is dark matter and dark energy are yet to be proved with evidences. The biologists are simultaneously working and have discovered DNA, RNA and mRNA. But the beginning is yet to be made on the ‘origin of thought’, whether it is a product of physics or beyond. Some of the scientists have started addressing consciousness but are unclear whether it is an outcome of the permutations and combinations of physical particles or something independent to them.
Ancient Indian thoughts hv described the un-manifested Supreme with his manifestation through Power (शक्ति) in form of creation as visible world/s. It is imagined as a play out of ecstasy (KSD). The consciousness is taking different forms as solid, emaciated, dream states through reflection. The dream state is further classified as ignorance (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति) as reflected consciousness through which a yogi transcends crossing the voids and realises the true self, the master or creator of the creation. They hv also claimed space travel with subtle body and narrated multiverses they had visualised. As human eyes have limitations, Galileo initiated the efforts to see the world using telescope and now we see it using JWST.
Spirituality in India therefore is a search of the reality by the Indians worshiping different forms of Gods and Goddesses through idols and rituals but are aimed at either to pay respects to the fundamental forces of creation or realising thyself.
Once we free our minds from the imaginations of human forms of Krishna-Kali-Radha, Shiv-Shakti and interpret them as un-manifested and manifested power of creator/creation, we may feel amazed with the glory.
Our heart-mind is the field to create joy or sorrow ourselves. Whatever we see is the world is the reflection of our mind on the mirror of consciousness. It’s a choice of an individual to select the spectacles (thoughts) through which he/she sees and interprets the visible world.
It was a thought of Einstein that discovered relativity. Quantum mechanics has taken another leap. Let’s admire the thoughts/myths of the ancient sages and enjoy them by linking with modern science; but not at the cost of human dignity, equality, liberty and justice.
Punamchand
21 October 2024
Tuesday, September 24, 2024
Formless Form
Formless Form
Prajna is the light in the darkness. Void or Self, there is unity in formless non duality. Physicists are busy in study of the forces that put the existence in existence: gravity and quantum gravity of electromagnetic interaction, the strong and weak nuclear forces; the end result may be voidness. But the causality of existence is still a mystery. Who and why was it brought up?
One who crosses (पारमिता) the borders of duality may attain the unity of non duality, the voidness or the self.
Either say:
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
or
शून्यमदः शून्यमिदं,शून्यात् शून्यमुदच्यते। शून्यस्य शून्यमादाय, शून्यमेवावशिष्यते।।
None can explain without experience. And to explain, one needs a mind, mind and form are interdependent, mind can’t express without form and without form mind can’t be expressed.
The root cause is ignorance and it can’t go away without following Prajna Pramita either of Buddha or Shankara.
Punamchand
24 September 2024
Friday, September 20, 2024
आत्मा-अनात्मा (self - no self)
आत्मा-अनात्मा (self- no self)
How could we teach the mystery of creation and bondage through an example other than us when we ourselves is a great example of the mystery? How to break the ignorance? How to cross the body-mind-ego identity and realise the truth? How to move from the reflective I to the real I? There are many questions with different-confusing answers.
Mirror has been used as an example. Imagine that the image person in the mirror is the body-mind-ego identity of the real one who is out of the mirror. The real I of the mirror in this example has a form but the real I which we are trying to realise is formless and has form (विश्वोर्तीर्ण, विश्वरूप). Can the image person realises the real person? Will it be possible for him to reach out to the real by putting all his efforts?
Buddhism helps here. It teaches that we are anatma. It calls the Chetana as Vigyan which is a flow of energy like a flame of a lamp though looks constant but changing continuously with continuous replacement of the previous. Five skandh (रूप-पदार्थ, वेदना-संवेदना, संज्ञा-विषय, संस्कार-मानसिक गठन, विज्ञान-चेतना-जागरूकता) for them are parts of the physical world. Five skandha is another way of presenting physical, subtle and causal bodies. Buddhism believes in the theory of karma and rebirth but call it भव संसरण of संस्कार, the thread of desire carried forward on the vehicle of vigyan-consciousness. Our belief of journey of birth and rebirth is through the subtle (पूर्यष्टक) body.
Our teaching of calling ourselves Atma many times becomes a road block in leaving our body-mind-ego identity of the self. Instead of unification of all creatures and the visible world as manifestation of one Atma (विश्वरूप), we end up in differentiating ourselves with I, you and they. Our likes and dislikes remain as they are. To identify ourselves Anatma (no self) is a quick solution of the problem of leaving body-mind-ego identity. If we carefully analyse, our body-mind-ego identity is not the Atma (self) but Anatma (no self). We have also place them in the compartment of ignorance, the bodies or koshas. As soon as we accept the image person as Anatma, the bondage of I limited to the image disappears. Our borders break and we enter into the vast ocean of emptiness. Remember the journey from सकल to अकल taught in KSD. If we don’t follow any taught model of self hypnosis, the pure I or no I, reveals its identity itself. How a compressed चित्त acts and how the expanded चिति express, the realised one only can experience. What is truth and what is the play, unless one goes through the experience of realisation, the ignorance can’t go. शनैः शनैः one has to continue on the path through a process of शील (सात्विक जीवन), समाधि (meditation to resolve संदेह) and प्रज्ञा (pure intellect - pure wisdom) to overcome ignorance. It’s a process of merger of a drop into the ocean. The drop is not lost but it realises its true state, the water, of which the drop and the ocean are made. Truth is not hidden, removal of the cover-मल is the process to uncover it. Shakti-universal consciousness- विज्ञान helps.
To start with ‘no self’ (अनात्मा) may be another way to make the process faster.
Punamchand
20 September 2024
Sunday, September 8, 2024
मायापुरी (unreal universe)
मायापुरी (not locally real: unreal universe)
साक्षात्कार किताबों और प्रवचनों से नहीं होता, अनुभव में आना चाहिए। वे मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन स्वरूप स्वानुभूति ही प्रमाण रहेगा। मोटे तौर पर दो विश्व मानते है; एक दृश्यमान और दूसरा अदृश्य। दूसरे को विश्व कहे या कुछ और, नहीं पता।
सब जीवों में मनुष्य जटिल दिमाग़ लेकर जन्मा है इसलिए सृष्टि के रहस्यों की खोज में वह सदियों से लगा हुआ है। पहले तो पृथ्वी को केन्द्र मानकर चल रहा था लेकिन फिर सूरज को केंद्र बना दिया। आगे चलकर वैज्ञानिक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गति के सिद्धांत देकर विश्व को २०० साल तक अपनी आँखों से चलाया। फिर आया वैज्ञानिक आइन्स्टाइन जिसने सापेक्षवाद और दिक्-काल के सिद्धांतों से हमारी नज़र ही बदल दी। फिर आए बोहर, वर्नर, पौली इत्यादि; क्वांटम यांत्रिकी लाकर भौतिकी असल दुनिया (particle) को नक़ली और उसके नीचे की स्पन्दित दुनिया (wave) को आगे कर दिया। भौतिक दरिया लहर के समुद्र पर जैसे तैर रहा है। सब तरंगें एक ही है, एक साथ जुड़ी है, सब पानी है। तीन वैज्ञानिकों की ‘the universe is not locally real’ शोध को नोबेल पुरस्कार (२०२२) भी मिल गया। तरंगों की दुनिया जिसमें एक अणु दूसरे से जुड़ा है। चाहे कितना भी दूर हो, प्रकाश की गति से भी कईं गुना अधिक, तुरंत, एक का बदलाव दूसरे को बदल देगा। एक दक्षिणावर्त (clockwise) चलेगा तो दूसरा वामावर्त (anti-clockwise)। ऐसा लगता है दोनों दूर होते हुए भी एक दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में है, और संतुलन बना रहे है। एक का बदलाव दूसरे को तुरंत बदल देता है। हम quantum entanglement and quantum teleportation के ज़रिए Quantum computer के जमाने में आ गए। संचार अब तुरंत, प्रकाश की गति से भी ज़्यादा तेज़ी से होगा।
जो चीज़ वैज्ञानिक भौतिक जगत की प्रयोगशाला में खोज रहे हैं वह हमारे प्राचीन ऋषिगण अपनी चेतना में ध्यानस्थ होकर टटोल रहे थे। किसी एक विषय पर केन्द्रित होकर वे उनका अवलोकन निष्कर्ष दे रहे थे। कुछ हज़ार साल पहले हिन्दुस्तानी दिमाग़ ऐसा तेज था यह अचरज की बात है।
पूरा विश्व एक दूसरे से जुड़ा है; सतह के नीचे चल रहे स्पंदनों का दृश्यमान रूप है। दृश्यमान जगत परिवर्तनशील है इसलिए मिथ्या है लेकिन जिस पर्दे पर उसका खेल चल रहा है वह सचेत-जागरूक-चेतना एक एवं अपरिवर्तनशील है। चेतना के पीछे क्या है किसी को नहीं पता। उस अनिर्वचनीय को कईं नाम दिए गये लेकिन कोई बयान नहीं कर सकता। प्रकाश और विमर्श। विमर्श के भी दो रूप, दृश्यमान जगत और अदृश्य शक्ति। शक्ति के भी दो रूपः शिव और शक्ति, entangled, एक का उन्मेष दूसरे का निमेष, परस्पर, एकसाथ।
बाह्य जगत को भोगने हमारे पास साधन है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार। एक रथी (सीमित चैतन्य-जीव), दूसरा सारथी (बुद्धि), तीसरा लगाम (मन) और चौथे घोड़े (इन्द्रियाँ)। लेकिन अक्सर देखा जाता है की सामान्य जनसमूह की इन्द्रियाँ दौड़ती रहती है। मन उस पर लगाम कस नहीं सकता क्यूँकि उस पर बुद्धि की पकड़ कमजोर है। बुद्धि की पकड़ इसलिए कमजोर है क्योंकि जीव बेपरवाह है। इसलिए जीव अपने ६०-८० साल के इस छोटे से भौतिक आवर्तन में सुख की खोज में अभाव का दुःख लिए भटकता रहता है और शरीर जीर्ण होते ही छोड़ जाता है।
जो बुद्धिवादी और तर्क संगत है उनके लिए अपने दिमाग़ की सीमाएँ एक मर्यादा बन जाती है। वे भौतिक से अभौतिक की खोज में लगे है इसलिए उनका तर्क उनको वास्तविक दृश्यमान दुनिया से अलग नहीं होने देता। जबकि सत्य तो अदृश्य विश्व में छिपा पड़ा है।
जहां न पहुँचे दिमाग़ वहाँ ह्रदय पहुँचता है। ह्रदय के द्वार खोले बिना सत्य का साक्षात्कार हो नहीं सकता। ह्रदय प्रेम भाव से भरपूर है इसलिए वह तुरंत जुड़ जाता है। इसलिए अगर उस अगोचर से ह्रदय का नाता जोड़ लिया तो वह प्रकट हो जाएगा। जीव शिव से entangled है। जीव का मेसेज जाएगा तो शिव का जवाब आना ही आना है।जीव जैसे स्पीन करेगा शक्ति वैसे स्पीन करेगी। वे दो नहीं, एक ही है, संसार लीला में खेल रहे है।
हमें चेतना के संकोचन से बाहर निकलना है। चिति जो चित्त बनी है उसे चिति में परिवर्तित करना है। इसके लिए अपनी चेतना का विस्तरण करना होगा। सर्वं समाविष्ट ह्रदय विकसाना पड़ेगा। प्रेमनगर में किसका विरोध करेंगे? विस्तारित चेतना के सब विरोध जब शांत हो जाएँगे तब वह अखंड चेतना का अनुभव होगा। वही माँ अंबा है, जगदंबा है, जिसके अनुग्रह से शिव का साक्षात्कार होगा।
आओ इस मायापुरी को प्रेमनगर बना लें। जाना तो है, दोनों के पार।
पूनमचंद
८ सितंबर २०२४
Monday, September 2, 2024
Big Bang and Adwaita
Big Bang and Adwaita
If scientists hv concluded Big Bang as the cause of this universe, which has expanded from a hot dense energy ball, which with its spacetime curvature manifested as the visible world; but they hv no answer for the creation of the base coil, the egg of the mass and energy. Some say it was compression of earlier universe as Big Crunch but they have yet to prove it beyond doubt.
Which came first the egg or chicken, the causality dilemma won’t end.
Our world of vision is nothing but the vision of our intellect which is evolving. As human intellect evolves further it may uncover more secrets. A day may come when it reaches to its highest peak (पूर्णत्व) and explains the truth.
Interestingly, it is searching for all, counting all, but unable to see the Self, the visionary researcher who is making the experiments. The manifested consciousness and its unmanifested state are beyond the scope of the physicists it seems.
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥१.१.१॥ The first mantra of the Rig Veda tells that Agni is invoked as the priest of the Yagna who invoke the other Devas in the Yagna. Agni is the power which connects all the other divine powers. What could be the state of the energy before the Big Bang? A very hot dense energy ball unable to take shapes as objects. The Hindu cosmic order suggests that the Agni (self) invokes three deities (GOD) who drank Soma (grace-cooling) hv awaken the Yagya (creation). The whole of the universe is a Yagya of which Agni is the Purohit (fills energy).
Buddhism proposed the state of void from which the play of creation begun. But void without energy is a dead element, can’t be the base of the play; therefore, the Adwaita vedantis named it void but with potential energy of creation, the unmenifested form of the creation. HE manifests as power (shakti-kinetic energy) which take forms of different elements by its compression and forms the visible world.
One may and may not believe in the theory of God with his physical incarnations as human Gods, but the formless Almighty is yet to be realised by the physicists. The commoners are happy within their faiths as they feel human life is short to realise the truth. But the evolving intellect of the scientists (modern sages) may uncover the truth one day. From the ancient sages who experienced HIM, some tried to explain the mystery in words but many went in silence, as HE is beyond the reach of human intellect and impossible to explain through human language. The Self only can be realised by the Self.
Punamchand
2nd September 2024
Saturday, August 31, 2024
Adwait
Adwait
There are five levels of the universe: 1) energy fields (cosmological) 2) atoms (physical) 3) plants (biological) 4) animals (psychological) 5) humans (intellectual). They are interconnected as one is a means for the activation of the next. Cosmological energy (pure) field is a means to activate physical phenomena, physical is a means for activation of biological phenomena, biological is a means to activate psychological, psychological is a means to activate intellect phenomena. Each level is formed on the space fabric of the previous. Vacuum has no physical particles but has cosmological particles and therefore light travels from it. This emptiness is the space fabric on which the whole of physical world exists. If cosmological space fabric disappears, the physical world can’t exist. Space fabric is a field of electromagnetic and gravitational pull. Time is an activation of physical entity remains active until space fabric is physically activated.
Human intellect is evolving continuously. We had conceived the world of Newton (motion and gravity) for 200 years. It was replaced by the world of Einstein (relativity) and is advanced in Quantum mechanics in which tiny particles behave totally different from normal objects and therefore it is impossible to know exactly where they are or what they do. Exotic. As human intellect evolves further it will uncover more secrets of nature. What would be the state of a complete or whole of the intellect?
Where physics end, faith begins. Our ancient sages called it the cosmic mind, the intellect of an Ishwara which governs the play of the universe. It is manifestation of the divine; the Shakti of Shiva. The visible world is Shiva (absolute) himself in manifested form as Shakti (energy).
When was the play begun and when will it end, human mind can’t estimate. To puzzle our minds in this play of infinity, the sages gave a rough estimate with reference to human years. A day of Brahma is one kalpa that is four yogas (4.32 million years); such 365 days make one year of Brahma. Life span of one Brahma is 100 year; life span of 100 such Brahma is a day of Vishnu. 100 years of Vishnu makes a day of Rudra. In one day of Rudra 100 Vishnu takes birth and merges. Life span of 100 Rudra makes a blink of an eye of Mahakali. What to imagine about the like span of Mahakali and its source the Param/absolute! Hindu Purans imagined different lokas : Indralok, Brahmlok, Vishnulok, Kailash, etc, to explain the greater and higher dimension state of Consciousness present in those lokas.
Ancient sages have explained the creation story in which the consciousness is taking different forms from intellect (महत्) to the earth. They tell that the visible world is illusionary (माया), a play on the screen of the ब्रह्म (ultimate reality). Kashmir Shaiv presents it with 36 elements, of which 5 pure, 7 pure-impure and 22 impure elements. The Absolute turns सच्चिदानंद (existence-सद्, consciousness-चिद्, bliss-आनंद), comes in action through इच्छा-ज्ञान-क्रिया (will-knowledge-action). He has पंचशक्ति (Consciousness, bliss, will, knowledge, action) and he is पंचकृत्यकारी (Creation-Maintenance-Destruction-Concealment-Grace).
The play begins when the Absolute pairs as Naad-Bindu (Shiv-Shakti) as Jnana and kriya (knowledge and action) it sprouts as Sadasiva, appearance as Self. It objectivises as Ishwara which comes in action as Shuddhvidhya. Then comes Maya which blocks the subject from its true identity and create sense of separateness with five Kanchukas: kal (veil of time), Vidhya (veil of limited knowledge), raga (veil of desire), niyati (veil of causality), kala (veil of being limited). Purusha (soul) then get activated by pairing with Maya and manifest with five kanchukas. He can’t play alone, therefore to facility his play, there are 24 impure elements created as physical body of the universe. They are four inner elements (prakriti, intellect, ego, mind). Intellect is the first evolute of Prakriti which evolves into Ahankara (ego). The self then experience the world through sensory system made of mind and ten senses (five sense organs and five action organs), five tanmatras (subtle elements : शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) and five mahabhutas (gross elements: space, air, fire, water, earth). From Shiva to the earth, it’s a play of Consciousness. If individual mind climbs the ladder upwards with the grave of the almighty, he can attain the state of higher consciousness.
All is one, adwaita, the Brahman, one without a second.
Punamchand
31 August 2024
Thursday, August 1, 2024
હરડે માતા
હરડે માતા
જન્મ આપનારી માતા, પાલક માતા, દેવી માતા (અંબિકા, કાળકા, દુર્ગા, મેલડી, ચામુંડા, ઈત્યાદિ) વિશે આપણે બધાં પરિચિત છીએ. પરંતુ શું હરડે માતા વિશે જાણો છો? આયુર્વેદમાં હરડેને માતા કહી છે અને તે લાંબુ આયુષ્ય આપનાર હોઈ અમૃતા પણ છે. હરડે માતાને પ્રેમ કરનાર સુખી રહે. પહેલું સુખ તે જાતે નર્યા.
હરડેમાં ખારા સિવાયનાં પાંચ રસો છે. તેથી તે રૂક્ષ, ગરમ, અગ્નિ દીપ્ત કરનારી, બુદ્ધિને વધારનારી, આંખોને હિતકારી, રસાયણરૂપ, આયુષ્ય વધારનારી અને પવનને સવળો કરનારી છે. તે મળબંધ, પેટમાં ગોળો, આફરો, ઉલટી, હેડકી, હ્રદય રોગ, કમળો, પથરી, મૂત્ર અટકાવ, ડાયાબિટીસ, શ્વાસ, ઉધરસ વગેરે રોગોમાં ઉપયોગી ઔષધ છે.
આપણે બધાં રાંધેલો ખોરાક ખાઈએ છીએ. આપણે જે પણ થઈએ તેની સાત ધાતુ બને અને આપણું જીવન ચાલ્યા કરે. ખોરાકનો રસ બને, રસમાંથી રક્ત બને, રક્તમાંથી માંસ બને, માંસમાંથી મેદ બને, મેદમાંથી અસ્થિ બને, અસ્થિમાંથી મજ્જા બને અને મજ્જામાંથી વીર્ય બને. આ સપ્ત ધાતુ જેની સારી તેની તંદુરસ્તી સારી અને આયુષ્ય પણ સારું.
પરંતુ આપણો અનુભવ કેવો છે? ઉંમર કરતાં મોટાં દેખાઈએ છીએ અને શરીર સુડોળને બદલે બેડોળ કરી રહ્યા છીએ. જીવવા માટે જમવાને બદલે જાણે આપણે જમવા માટે જીવતાં હોય તેમ રહીએ છીએ. “ભૂખ લગે તો ખાના ખા” એ ઉત્તમ જીવન મંત્ર છે પરંતુ ઘણીવાર ભૂખ ન હોય તો પણ ખાઈએ છીએ. પેટમાં કબજીયાત હોય તો પણ ખાતા રહીએ છીએ. ચા-રોટલી-શાક-મરચાં-માંસ-ખીચડી-ભાત-દાળ-ભજીયાં વગેરે બધુ જઠર આંતરડાંમાં ઠલવતાં રહીએ છીએ. પરિણામે અપચો થાય. નહીં પચેલો ખોરાકનો આમવાત થાય, બધાં સાંધા-શરીરમાં ફેલાઈ જાય અને ત્રિદોષ થતાં અસાધ્ય રોગો થાય અને એક દિવસ મરી જવાય.
લાંબુ આયુષ્ય વાત, પિત્ત અને કફના સમતોલનમાં છે પરંતુ આપણે બધાં તેની અસમતુલાને કારણે ઓછી તંદુરસ્તી કે રોગોનો અનુભવ કરીએ છીએ. વાત પિત્ત અને કફની સમતુલા તોડવામાં સૌથી મોટો ફાળો ભોજન અને તેના અપચા- કબજીયાતનો છે.
આપણે એવું સમજીએ છીએ કે હરડે લઈએ એટલે ઝાડા થઈ જાય. એ સાચું અને સાચું નહીં પણ. બાબત માત્રાની છે. હરડે પાચક છે અને રેચક પણ છે. તેથી તે પ્રથમ ખોરાકને પચાવવાનું કામ કરે છે અને પછી અપાન વાયુને નીચે ખસેડી મોટા આંતરડા તરફ ધકેલી બહાર કરી દે છે. એકવાર ગટરની લાઈન સાફ કરાવીએ તો આપણાં બાથરૂમ, મોરી, જાજરૂમાં કેવું લાગે છે? બિલકુલ એવું જ આપણી મોઢાથી લઈ ગુદા સુધીના પાઈપની સફાઈ અને તંદુરસ્તીની છે. હરડે તેને તંદુરસ્ત અને સાફ રાખવામાં રામ બાણ ઈલાજ છે.
શું કરવું જોઈએ?
૧) દરરોજ બે ટાઈમ ભોજન પછી હરડેનો મુખવાસ તરીકે ઉપયોગ કરવો. માત્રા શરીરની અનુકૂળતા મુજબ સેટ કરવી
૨) જેમને કબજીયાતની તકલીફ હોય તેમણે દર રવિવારે સવારે પાંચ વાગે ઉઠી નરણાં કોઠે એક ચમચી હરડે ગરમ પાણી સાથે લેવી. નવ સાડા નવે સીસ્ટમ સાફ થાય પછી ચા-નાસ્તો કરવો.
તંદુરસ્ત તન તેનું તંદુરસ્ત મન. તન અને મન તંદુરસ્ત હોય તેને ધન મેળવવામાં અડચણ ઓછી આવે. તેથી માતા પૂજવી હોય તો હરડે માતાને અગ્ર સ્થાન મળે.
“ઓકી દાતણ કરે, નરણાં હરડે ખાય; દૂધે વાળું જે કરે, તે ઘર વૈદ્ય ન જાય”.
પૂનમચંદ
૧ ઓગસ્ટ ૨૦૨૪
Thursday, July 25, 2024
असीम संभावना।
असीम संभावना।
Monday, July 15, 2024
असीम संभावना क्षेत्र ।
असीम संभावना क्षेत्र।
जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की सृष्टि है, जैसे एक गेऊ के दाने से अनेक दाने उत्पन्न होते हैं वैसे ही मनुष्य इत्यादि योनि एक जीवन से दूसरे जीवन का पुनर्जन्म है। यहाँ कुछ भी नाशवान नहीं है, बस स्वरूप रूपांतरण हो रहा है।
जैसे अंतरिक्ष के वस्त्र पर सभी आकाश गंगा, निहारिका, तारें, सूर्य, ग्रह, उपग्रह विद्यमान हैं वैसे ही चैतन्य के पट पर यह सारा ब्रह्मांड लीलामय है।
यहाँ कोई बड़ा नहीं कोई छोटा नहीं; सब कोई चैतन्य की अभिव्यक्ति है।
जैसे अंधेरे में रहा मुर्ग़ा बाँग देकर अपनी मौजूदगी ज़ाहिर करता है, यह सृष्टि उसकी मौजूदगी की खबर देती है।
हर जीव का स्रोत उस शक्ति-चैतन्य से है इसलिए हर जीव शक्ति से जुड़ा है। इसलिए उस शक्ति को प्रकट करने की असीम संभावना हर जीव में विद्यमान है। क्षणिक जीवन में कौन कितना कर सके यह उसका स्वातंत्र्य है।
शक्ति के पीछे शिव है। आगे पीछे कहाँ? दोनों का सामरस्य है। उन्मेष निमेष का चक्र है। इसलिए दोनों का अनुभव और दोनों की अभिव्यक्ति हर जीव का संभावना क्षेत्र है। जब तक अनुभूत नहीं हुआ, और अनुभूति अभिव्यक्त नहीं हुई तब तक चलते रहना है।
जागते रहो और चलते रहो।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते रहो। (सुनो/पढो, समझो और अमल करो)।
पूनमचंद
१६ जुलाई २०२४
Wednesday, July 10, 2024
Dharma of Asoka
Dharma of Asoka
The Nittur MREs inscribed that when the King of Jambudip (Bharat) Asoka was away (from the capital on pilgrimage) for 256 nights, it was 2.5 years of he became ‘Upasak’ and not feeling zealous about others for a year and for more than a year he has been associated with the ‘Sangh’ and exerting himself as a result unmingled people were mingled in his kingdom. He believed that big and small, rich and poor can exert themselves and therefore he dispatched the commands through edicts throughout his kingdom (earth) and bordering kingdoms so that people living at the borders should also know about these teachings. He told the Kumars and the Mahamantris to pass orders on Rajikas who in turn pass orders on people living in country side and Rastikas with the help of teachers, Brahmanas, elephant riders, scribes and charioteers. He told to (instruct pupils) follow this ancient wisdom (porana pakiti).
Wednesday, May 29, 2024
सृष्टि रहस्य।
सृष्टि रहस्य या मिथक
यह दृश्यमान जगत के रहस्य को उजागर करने मनुष्य जाति सदियों से लगी हुई है। वैज्ञानिकों ने कार्य कारण संबंध से उसका परीक्षण किया लेकिन पहला कार्य किस कारण से हुआ उसका पता नहीं चला। भारत के ऋषि मुन्नियों ने एक सत्ता के रूप में रचयिता की कल्पना की और आदि कार्य उसकी स्वतंत्रता मानकर समाधान कर लिया। फिर उस सत्ता के चेतन और जड़ रूप, पुरूष और प्रकृति रूप को आधार बनाकर जन समूह के सामने रूपक वार्ताओं के रूप में रख दिया। शिव-सती की कहानी भी ऐसी ही एक रोचक कथा है जिसमें मनुष्य रूप में शिव-सती, उनका विवाह, शिव के ससुर दक्ष प्रजापति द्वारा शिव का अपमान, सती का आत्मदाह इत्यादि पात्रों-घटनाओं से इस सृष्टि की रचना को समझाने का प्रयास किया गया है।
शिव-सती कथा पुराणों से ली गई है। पुराण मतलब पुराना। किसी गड्डे को भरने को भी पुराण कहते है। मनुष्य की सृष्टि रहस्य खोजने की उत्कंठा में जहां जहां उसे अंतर नज़र आया कोई रूपक कथा से उसे जोड़ने का प्रयास किया।
सती अर्थात् सत, शाश्वत, eternal. जो शाश्वत है भला उसका जन्म कहाँ? फिर भी दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में शक्ति को प्रस्तुत किया गया है। जो दक्ष खुद शक्ति से प्रकट हुआ वह उसका पिता बना हुआ है और महादेव का ससुर।
दक्ष की एक और कहानी है। दामाद चंद्र और उसकी २७ पत्नियों की। वे २७ दक्ष की ही पुत्रियाँ थी। लेकिन चंद्र रोहिणी को ज़्यादा प्रेम करता था। २६ ने पिता दक्ष को शिकायत की और दक्ष ने चंद्र को शापित कर क्षयरोग दे दिया। यहाँ साढ़ूभाई काम आए। शाप का समाधान ढूँढ माह के दो पक्ष बनाकर एक पक्ष में (शुक्ल) चंद्रकला की वृद्धि और दूसरे पक्ष (कृष्ण) में क्षय का वरदान दिया। अब हम सब चाँद को भी मनुष्य बनाकर २७ मनुष्य कन्याओं की कल्पना कर उनका पति पत्नी संबंध जोड़ इस कथा को एक सत्य और ऐतिहासिक कथा के रूप में प्रस्तुत करें तो कौन रोक सकता है? फिर तो गणेश की कथा भी मनुष्य रूप से हाथी रूप बन ही जाएगी। रूपक समझना है।
यहाँ चंद्र और २७ पत्नियाँ नभ में रहे पृथ्वी के उपग्रह चंद्र और उसकी २७ नक्षत्रों में मासिक भ्रमण की खगोलीय घटना की रूपक वार्ता है। चंद्र दूसरे नक्षत्रों की तुलना में रोहिणी नक्षत्र में एक दिन ज़्यादा रहता है इसलिए मनुष्य ने उसमें अपनी प्रणय कथा का सहारा लेकर एक वार्ता के रूप में प्रस्तुत कर इस खगोलीय घटना को समझाने का प्रयास किया। २१ वी सदी के हम सब उँगली जिस ओर इंगित करती है उस दृश्य-घटना को छोड़ उँगली को ही पकड़कर बैठ जाते है।
सती और शिव की घटना भी कुछ ऐसी ही सृजन शृंखला की कहानी का एक रूपक निरूपण है।
नासदीय सूक्त की भाषा इसी रहस्य का बयान है। भारत एक खोज का टाइटिल गीत याद होगा।
“सृष्टि से पहले सत नहीं था,
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं,
आकाश भीं नहीं था
छिपा था क्या कहाँ,
किसने देखा था
उस पल तो अगम,
अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन हैं कर्ता
कर्ता हैं यह वा अकर्ता
ऊंचे आसमान में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वोहीं सच मुच में जानता.
या नहीं भी जानता
हैं किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता, नहीं है पता...........
वोह था हिरण्य गर्भ सृष्टी से पहले विद्यमान
जो है अस्तित्वमाना धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग ओर सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
गर्भ में अपने अग्नी धारण कर
पैदा करता था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगह चुके वो का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ॐ ! सृष्टी निर्माता स्वर्ग रचायता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्मं पलक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर
ऐसी ही देवता कि उपासना करे हम अवि देकर....”
अगर कुछ भी न था तब क्या था?
Thursday, May 23, 2024
बुद्ध पूर्णिमा।
बुद्ध पूर्णिमा।
Wednesday, May 8, 2024
तथागत।
तथागत।
कल शाम श्री विजय रंचन साहब से भेंट हुई। कुछ सामाजिक चर्चा के बाद उनके दो काव्य ‘ब्रह्म राक्षस’ और ‘यथागत गुलामरसूल संवाद’ का रसास्वादन किया। काव्य रचना वह स्वयं प्रस्तुत करेंगे लेकिन मेरा कुतूहल तथागत में ज़्यादा रहा। तथागत ‘बुध’ का विशेषण था। रंचन साहब ने कुछ व्याख्या बताईं जैसे की ‘thus gone’ अथवा ‘तत् थत्’ अथवा जैनों कि ‘गच्छ’ (जाना) परंपरा के साथ जोड़कर जाने की बात समजाने का प्रयास किया।
क्या यह ‘तत् सत्’ का दार्शनिक पर्याय है? रास्ते में चलते चलते मेरा मनन रहा था। एक बात ज़रूर बैठी थी कि बात आने की नहीं, जाने की है। उन्होंने अपने काव्य संवाद में अनायास ही ‘यथा’ शब्द प्रयोग किया है परंतु मेरी बुद्धि ‘तथा’ के अर्थ को खोजनेमें लग गई।
मेरा ध्यान छह साल पूर्व औरंगाबाद के एक प्रवास पर चला गया जहां पानचक्की बगीचे में एक बुजुर्ग फ़क़ीर से मेरी मुलाक़ात हुई थी।वह दिखने में औरंगजेब (चित्र) जैसा था इसलिए मेरा ध्यान उसकी ओर सहसा आकर्षित हुआ था। औरंगजेब ने यहाँ अपने जीवन के आख़री २५ साल गुज़ारे थे और सादा जीवन जीते हुए बिना मक़बरा दो गज ज़मीन के नीचे दफ़्न हो गया था। उस फ़क़ीर ने इस्लाम की व्याख्या करते हुए समझाया की यह ज़मीन एक इम्तिहान कक्ष है जिसमें हम सब इम्तिहान देने आए है। इम्तिहान में जो लिखेंगे (जिएँगे) वैसा फल क़यामत के दिन मिलना है।इसलिए पल भी न गँवा कर उस परवरदिगार कीं बंदगी में बिताने में भलाई है।
गीता का अध्याय २ पूरी गीता का सार है। उसके श्लोक ११-३० वेदांत तत्वज्ञान का सार है, ३१-५३ कर्मयोग है और ५५-७२ स्थितप्रज्ञ के लक्षण है। हम सब ज़्यादातर लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए राजसी कर्मों में व्यस्त है इसलिए कर्म और उसके फल के बंधन से ग्रसित है। लेकिन कुछ सीमित लोग निःस्वार्थ सेवा को अपना जीवन बनाकर कर्मयोग की साधना करते है। ऐसा कर्मयोग मन को पवित्र करता है। पवित्र मन एकाग्र - स्थिर होता है और स्थिर मन में प्रज्ञा - स्वरूप ज्ञान (who am I) स्थित होता है।
हम आ तो गए लेकिन ‘यथा’ जाना है या ‘तथा’, जीवनयात्रा का यही सत्व है।
जैसे आए थे वैसे ही शरीर-मन-बुद्धि की सीमित पहचान को यथा पकड़कर ‘यथा-गत-जाना’
अथवा
‘तथा’- अपने सत् स्वरूप को पहचान कर दुःखों (आवागमन) से मुक्त हो जाना - ‘तथागत’।
जब चलना शुरू किया तब सही, लेकिन मंज़िल का हर कदम उत्थान की ओर ले जाएगा।
तत् सत्। तथागत।
Life is a journey within ‘No Time No Space’!
पूनमचंद
८ मई २०२४
Saturday, April 13, 2024
पूर्ण।
पूर्ण।
ईशावास्य और बृहदारण्यक उपनिषद का शांति पाठ पूर्णमदः पूर्णमिदं… एक अद्भुत रचना है।
अर्थ अनेक होंगे लेकिन एक पूर्ण कहीं दूर और एक पूर्ण यहाँ अपने सामने ऐसा नहीं लगता। अदः और इदं दो अलग-अलग नहीं परंतु एक है।
अदः शब्द रूप पुल्लिंग प्रथमा विभक्ति एकवचन है। सर्वनाम है। इदम् स्री लिंग एकवचन सर्वनाम है। परम का अनुक्रम से शिव और शक्ति रूप इंगित है। दो नहीं एक है, सामरस्य है। अदृश्य दृश्य।
परम में होने की आहट चिदानंद शिव (प्रकाश-awareness) है। इच्छा-ज्ञान क्रिया शक्ति (विमर्श) है। अंकुरण ध्वनि ओम (तत्सत) सदाशिव है। फिर ईश्वर, शुद्ध विद्या और आगे मायालय का हमारा पृथ्वी तत्व तक का हमारा विश्व। व्यापकता से संकोचन की यात्रा। जितना संकोच उतनी जड़ता और जितनी व्यापकता उतनी चेतनता।
संकोच विस्तार की क्रिडा है।
किसकी?
अद्वैत की।
कहाँ हो रही है?
पूर्णोहं के पटल पर।
कहाँ है?
है, हम परिचित है। बस ठीक से इंगित कर पहचानना बाकी है। कोई नया नहीं जो मिल जाएगा। कोई दूर नहीं जहां जाना है।
हमारे साधन शीशे है, उसे माँझ लेना है निष्काम कर्म से; स्थिर करना है उपासना, भक्ति से; और जान लेना है शरणागति, श्रद्धा, ज्ञान से।
प्राप्तस्य प्राप्ति। निवृतस्य निवृत्ति।
पूर्णता अमरता है। मृत्यु के भय से पार शाश्वत का साक्षात्कार। आत्मा की प्रत्यभिज्ञा।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
अद्भुत मंत्र है। मंत्र का साक्षात्कार करें।
पूनमचंद
१३ अप्रैल २०२४
Thursday, April 4, 2024
बोध।
बोध।
सन २००१ जनवरी-फ़रवरी की बात है। हम सब कच्छ में आए भयानक भूकंप के बाद बचाव और राहत कार्य में जुड़े थे। न बिजली थी, न पानी। न गाड़ियाँ थी न उसके चालक। न कचहरी थी न काग़ज़। सबकुछ बिखर गया था, तहस-नहस हो गया था। ऐसे में पूरा दिन इधर-उधर भागना दौड़ना और गांधीनगर से लाए अपने सरकारी वाहन को नया तैल मिलने तब तक सँभालकर चलाना और हताहत हुए लोगों को निकालना, घायलों को अस्पताल पहुँचाना और बचे हुए को राशन, पानी, आश्रय की व्यवस्था करनी, इत्यादि कार्य में सब जुट गए थे। कुछ लोग बिजली के सब स्टेशन को रीस्टोर कर बिजली आपूर्ति में, कुछ जलापूर्ति में, कुछ संचार आपूर्ति के कार्य में लग गए थे। कुछ आश्रय स्थानों के बनाने में और कुछ राहत सामग्री के स्वीकार और वितरण कार्य में लगे थे। हम सब दिनभर १८-२० घंटे काम में लगे रहते थे। रात में तीन-चार घंटे शरीर सीधा कर सुबह फिर काम में लग जाते थे। जैसे जैसे दिन बढ़ते गए मन थका नहीं था लेकिन शरीर साथ छोड़ने लगा। शरीर में पीड़ा होने लगी। लोगों की पीड़ा के सामने यह कुछ भी न था लेकिन फिर भी विराट कार्य में टिके रहने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना उतना ही ज़रूरी था। न योगासन करने का वक्त था न व्यायाम का। बस पूरे दिन और देर रात तक दौड़ते रहना, संसाधन जुटाना और व्यवस्था संचालन के लिए टीम के सदस्यों को दौड़ाते रहना ही कर्तव्य पथ था।
एक दिन सुबह जब मैं उठा, उठते ही आह निकल गई। पीठ और कमर में में ज़ोरों से पीड़ा हो रही थी। बाहर की कोरिडोर में सुबह की चाय का कप लेकर मैं नेपथ्य को देख रहा था इतने में अचानक एक कुत्ता सामने आ गया। मेरे सामने ही खड़ा हो गया। उसने मेरी ओर देखा और अपने आगे के पैरों को थोड़ा आगे किया और पीछे के पैरों को पीछे और बीच की पीठ को ज़मीन की ओर झुकाकर एक खिंचाव पैदा किया और फिर मुक्त किया। ऐसा उसने पाँच-छह बार किया और हर वक्त मेरे सामने नज़र करता रहा, मानो कुछ कह रहा हो। वह कुछ ही देर में अपना खिंचाव और मुक्ति दिखाकर चला गया और इस तरफ़ मेरी पीठ का दर्द उपाय माँग रहा था। मैं सहसा उठकर कमरें में गया और कुत्ते ने जो सीखाया था वह आसन धीरे से करने लगा। ८-१० बार दोहराने से मेरी पीठ का दर्द कुछ कम हुआ। उसके बाद सुबह-शाम पुनरावर्तन करने से तीन दिन में दर्द ग़ायब हो गया। फिर एक नए उत्साह से मैं राहत व्यवस्था कार्य में तल्लीनता से लग गया।
गुरू व्यक्ति नहीं शक्ति है। वह कोई भी रूप में आकर मार्गदर्शन कर सकता है। नदी हो, सरोवर हो, पत्थर हो, सूरज हो, चंदा हो, कुत्ता हो, भेड़ बकरी या कोई इन्सान हो। वह कोई भी रूप में आकर अपने बोध को प्रकट कर हमें मार्गदर्शन कर सकता है। हमारी चेतना में उस चेतना की ज्योति का प्रकाश जुड़ने से बोध का उजाला हो जाता है। बस इतना ही चीज ज़रूरी है, खुली आँख, विनम्रता और स्वीकार।
यहाँ अस्तित्व जो भी है सब कुछ एक ही तत्व का अखंड प्रकाश है। चाहे कोई भी नाम दे दो, चाहे कोई भी शास्त्र या किताब पढ़ लो, चाहे कितने ही प्रवचन सुन लो, लेकिन जब तक उस नाम, शब्द के स्वरूप का अनुभव नहीं हुआ तब तक वह एक जानकारी है, ज्ञान नहीं। ज्ञान अनुभूति है, साक्षात्कार है, अपने सच्चे स्वरूप का; इसलिए महापुरुषों ने साक्षात्कार को ही लक्ष्य बनाया था।
अद्भुत है यह विद्या, पहचान करने की। जो स्वात्मा है वही परमात्मा है। अद्वय है इसलिए यह कहकर इसे अपने से अलग कर नहीं सकते। दूसरा है ही नहीं। विभाजन नहीं, सम्यक् भूमिका है। इस सर्वसमावेशी भूमि पर अपना पराया नहीं रहता, मैं और तुम अलग नहीं रहता। इस एकता में प्रभुता है। इस बोध का साक्षात्कार, सत-चित-आनंद स्वरूप का साक्षात्कार ही मुक्ति है, अमरत्व है।
पूनमचंद
४ अप्रैल २०२४