आँख।
मनुष्य जगत अपने इष्ट की पूजा में रत है क्योंकि उसे परमात्म दर्शन करना है। किसी को अपनी ह्रदय गुहा में बैठा देखना है तो किसी को बाह्य विराट में। चर्म चक्षु से काम नहीं हो रहा इसलिए आँखों की तलाश में है। किसी को ज्ञान की आँख चाहिए औरक़िस्मतों भक्ति की आँख। लेकिन भक्ति बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना भक्ति नहीं। अजब ग़ज़ब का जोड़ है।
मनुष्य चित्त तीन गुणों सत्व, रजस और तमस से चलता है जिसे मायिक कहा गया है। साधनाएँ सब सत्व की वृद्धि के लिए है। लेकिन भगवद् दर्शन के लिए यह पर्याप्त नहीं है। अप्राकृत के दर्शन के लिए अप्राकृत सत्व चाहिए जो बिना भाव और भक्ति से मिल नहीं सकता। भाव जगेगा नहीं, भक्ति होगी नहीं तब तक प्रेम फल आता नहीं। प्रेम जब तक राधा नहीं बनता तब तक कृष्ण दर्शन होता नहीं।
इसलिए दिमाग़ को छोड़ ह्रदय पर ध्यान देना है जहां ह्रादिनी शक्ति का साथ मिलेगा। मांसपिंड ह्रदय नहीं, हमारे होने का, भाव केन्द्र ह्रदय। चित्त को वहीं विश्राम कराना है। तभी भगवद् दर्शन होंगे। स्वयं की तब अनुभूति होगी। फिर क्या करेंगे अंदर बाहर। अंदर भी वही और बाहर भी वही। यहाँ एक के सिवा दूसरा कोई है ही नहीं। स्वयं को स्वयं के प्रेम में पागल करना है। राधा बनकर श्याम की बंसी का स्वाद लेना है अथवा श्याम बन राधा संग रास रचाना है।
भारत में फिलोसोफी को ‘दर्शन’ कहते है। चित्त के आयने पर पूर्ण चित्काकलामय भगवद् दर्शन।
बस भगवद् कृपा चाहिए। यही कामना करें। ह्रदय में वास (भक्तिभाव का) हो और दर्शन के लिए आँख (प्रज्ञा) हो।
पूनमचंद
२० दिसंबर २०२३
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