चिदाकाश।
मन है इसलिए शब्द है। शब्द है इसलिए मन। दोनों के पार है अद्वय। न तुम, न मैं।
पहले तो खुद को पहचानना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, चैतन्य हूँ। चैतन्य अजर अमर है।
दूसरा चैतन्य के स्वरूप को जानना है। वह खंड लगता है परंतु अखंड है। घटाकाश से महाकाश की यात्रा करनी है।
तीसरा जहां खंड भी नहीं और अखंड भी नहीं; प्रकाश भी नही अंधकार भी नहीं, सत् भी नहीं और असत् भी नहीं। केवल। चिदाकाश। शून्य। क्या नाम देंगे, जिसका न तो नाम है न रूप।
साकार से सर्वाकार फिर निराकार।
अनंत यात्रा है अगर विशेष रहे। सामान्य के लिए तो बस यूँही चुटकी बजा के। ठंड में चाय का कस लीजिए और बस खो जाइए उस अनंत में।
न तुम, न मै। है बस केवल। धर्म का धर्मी और तरंग का जल यूँ मिल जाना आसान थोड़ी है? 😊
पूनमचंद
२० नवम्बर २०२३
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