प्राणायाम।
प्राण अर्थात् जीवनी शक्ति; उसका आयाम अर्थात् विस्तार। जीवनी शक्ति को लम्बा करना, उसका बल बढ़ाना और प्राकृतिक जगत को वशीभूत करना उसका लक्ष्य होता है।
पतंजलि योग सूत्र मे प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि। सूत्र हैः - तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ अर्थात् श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है।
प्राण के पाँच मुख्य और पाँच उप-प्राण है। जैसे कि प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। पांच उप-प्राण हैः नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला और धनन्जय। शरीर में बल संचार करता प्राण है। शरीर से मल इत्यादि बाहर फेंकने की शक्ति अपान है। समान रूप से शरीर की शक्ति को ज्वलंत रखता समान है। शरीर को उठाये रखे वह उदान है। सारे शरीर में व्याप्त व्यान है। अपान का स्थान मूलाधार में, समान का मणिपुर नाभि में, प्राण का अनाहत में, उदान का विशुद्धि में, और व्यान का पूरे शरीर में है। प्राण का उप नाग, अपान का कूर्म, समान का कृकल, उदान का देवदत्त और व्यान का धनंजय है। नाग वायु संचार, डकार, हिचकीं; कूर्म नेत्र क्रिया; कृकल भूख प्यास; देवदत्त जम्हाई, अंगड़ाई; और धनंजय सफ़ाई का काम करता है। मुर्दे में धनंजय बना रहता है, विसर्जन के लिए। आयुर्वेद त्रिगुणः सत्व, रजस, तमस; तीन प्रकृतिः वात, पित्त और कफ; और यह दस प्राण पर अवस्थित है।
शरीर विज्ञान से अब अध्यात्म की ओर चलें।
जब हम श्वास अंदर लेते हैं वह है अपान और छोड़ते हैं वह है प्राण। लगभग बारह अंगुल की लम्बाई से एक तंदुरुस्त साँस चलता रहता है। हमारे शरीर की उष्मा को बनाये रखने का यह भगवान ने दिया चरखा है जो जीवनभर चलता रहता है। दो नथुनो से एक के बाद दूसरे में वह प्रभावी रूप से दायाँ और बायाँ क्रम से चलता रहता है। दायाँ गर्म है, सूर्य है, पिंगला है। पहाड़ों मे बसे तपस्वी लोग सर्दीओ में इसके सहारे अपने शरीर की ठंड से रक्षा कर लेते है। कम्बल की ज़रूरत पूरी करता है। दूसरा बायाँ शीत है, चंद्र है, इडा है। ठंडक देता है। गर्मीओ में इसका प्रयोग करने से गर्मी से राहत मिलती है।
इस चरखे का अचरज यह है कि हर देढ घंटे में वह अपनी साइड बदलता रहता है। जब बदलने का वक्त आता है तो वह कुछ साँस मध्य चलता है। वही मध्य को सुषुम्ना के नाम से जाना गया है। उसी में लिया राम नाम हिसाब में जमा होता है। इसके अलावा जब त्रिकाल संध्या का वक्त होता है, सुबह, मध्याह्न और शाम; तब सुषुम्ना चलने का वक्त ज़्यादा होता है। इसलिए सभी जाप, आरती, मंत्र, नमाज़ इसी समय अदा की जाती है।
मध्य के चलते मन की स्थिरता बढ़ने से और संसार विचार कम होने से वाहन चालक इसी समय चूक करता है और ज़्यादातर रोड अकस्मात् इसी संध्या काल में होते है।
विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ओक्सिजन प्राणवायु है और कार्बन डाइऑक्साइड मृत्युवायु। शरीर में ओक्सिजन की बढ़ोतरी दिमाग़ को तेज और आयु को लम्बा करता है। कार्बन डायऑक्साइड की बढ़ौतरी धीरे धीरे मृत्यु के समीप ले जाती है। यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥ (जब तक शरीर में वायु (ओक्सिजन) है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध (संभाले रखना) करना चाहिये।) हमारे बचपन के शरीर का रंग रूप और बुढ़ापे के शरीर का रंगरूप यही ओक्सिजन कार्बन डाइऑक्साइड की लड़ाई में हुई हमारे हालहवाल को बयान करता है। अद्भुत व्यवस्था है। कार्बन खाने में फ़ायदा करता है और ओक्सिजन साँस लेने में। एक पेट के लिए दूसरा फेफड़ों के लिए फ़ायदेमंद । अगर उल्टा हुआ तो खतम।
एक बात और भी है। प्राण अपान की (प्रश्वास श्वास) की गति का सीधा संबंध हमारे मन और विचारों से है। उनके चलायमान होते ही मन विचार भी चलायमान होने लगते है। या तो प्राण से मन पर नियंत्रण करें अथवा मन से प्राण पर। यही योग का क्षेत्र है। हठयोग कहता हैः चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्, योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥ (अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।) हमारे अंदर की नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकल के मन और आत्मा को शुद्ध करने प्राणायाम ज़रूरी है।
अब तक बात साफ़ हो चुकी हैं कि प्राण अथवा प्राणायाम का हमारे जीवन में कितना महत्व है। आदि शंकराचार्य श्वेताश्वतर उपनिषद पर अपने भाष्य में कहते हैं, "प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय में उल्लेख है। स्वामी विवेकानंद इस विषय में अपना मत व्यक्त करते हैं, जिसने प्राण को जीत लिया है उसने प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त कर ली।
भौतिक प्राणायाम के कईं प्रकार है। आप जानते ही होंगे। जैसे कि सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, इत्यादि। अब चलते हैं भीतर की ओर। सुषुम्ना की ओर। मध्य चलते ही निर्विचार स्थिति में प्रवेश होता है। मन भीतर की ओर मुड़ जाता है। अंदर एक स्तंभ सा महसूस होता है जो ऊर्ध्व है। धीरे-धीरे चक्र अनुसंधान होने से प्राण मूलाधार से सुषुम्ना मार्ग से ऊर्ध्व चलना आरंभ करते है। धीरे-धीरे अभ्यास से एक के बाद एक चक्र में गति होते ही हमारे विचार, स्वभाव, नज़रिया बदलने लगता है। जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे संसार कम और परम ज़्यादा पसंद आने लगता है। अनाहत पहुँचते ही जैसे नया जन्म हो गया। द्विज हो गया। व्यक्ति बदल गया। विशुद्धि आते ही सरस्वती प्रकट हो जाती है। आज्ञा पहुँचते वह जितेन्द्रिय बन जाता है। आज्ञा से सहस्रार की यात्रा गुरूगम के साथ करनी होती है। वह जब पूरी होती है तब मूलाधार से चली शक्ति अपने गंतव्य शिव तक पहुँच जाती है। स्वरूप पहचान होती है। जीवन मुक्ति होती है।
यहाँ साँस धीरे-धीरे चलते चलते जैसे बंद ही हो जाती है। हल्की सी जैसे मिलीमीटर में चलती है।साँस शांत होते ही मन ग़ायब हो जाता है और अहं रूबरू होता है। शरीर की सीमा टूटते ही असीम का साक्षात्कार हो जाता है।
यह मार्ग भौतिक नहीं है इसलिए मुर्दे में नहीं प्राप्त होगा। चैतन्य मार्ग है इसलिए ज़िंदा व्यक्ति के लिए इस मार्ग को खोजकर उसपर चलना कितना महत्वपूर्ण है वह अब समझ सकते है।
या तो साँस से मन का अनुसंधान करें अथवा मन से साँस का। आयु अवस्था को देखते उचित का चयन करें। बस याद यह रखना है कि हम शक्ति रूप है। शक्ति को जगाना है और शिव को मिलाना है। मुक्त है, मुक्ति का अनुभव करना है। सत का साक्षात्कार करना है।
पूनमचंद
१४ अक्टूबर २०२३
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