लक्ष्य वेध।
पांचाल के राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह एक महान पराक्रमी राजकुमार से कराना चाहते थे। द्रोपदी के लिए योग्य वर की तलाश के लिए पांचाल कोर्ट में ही द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया और उसकी एक शर्त भी रखी। कोर्ट के केंद्र में एक खंबा खड़ा किया हुआ था, जिस पर एक गोल चक्र लगा हुआ था। उस गोल चक्र में एक लकड़ी की मछली फंसी हुई थी जो कि एक तीव्र वेग से घूम रही थी। खम्बे के बीच में एक तराज़ू लगा हुआ था। उस खम्बे के नीचे पानी से भरा हुआ पात्र रखा था। एक धनुष बाण रखा था जिसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर उस धनुष की मदद से तराज़ू में खडे रहकर नीचे रखे पानी से भरे पात्र में खम्बे के उपर घुमती हुई मछली का प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख में निशाना लगाना था। जो भी राजकुमार मछली पर सही निशाना लगेगा उसका विवाह द्रोपदी के साथ होगा। सब राजा-राजकुमार असफल रहे। लेकिन अर्जुन सफल रहा। उसने धनुष को नमन कर उसकी प्रदक्षिणा की, फिर उठाकर प्रत्यंचा चढ़ाई और तराज़ू के दोनो पल्लों में पैर जमाकर दाँया-बायाँ को मध्य में स्थिर किया। फिर अपनी आँख को अर्धखुली अवस्था में नीचे मछली के प्रतिबिंब पर एकाग्र कर अभ्यास किया। जैसे ही मध्य नाड़ी से साम्य पैदा हुआ ऊर्ध्व अनुसंधान हुआ। उस ऊर्ध्व में चित्त एकाग्र कर बाण को चढ़ाया और प्रत्यंचा खींच उपर की ओर छोड़ दिया। चतुर्थ सिद्ध हुआ और मछली की आँख का वेध हुआ। सर्वत्र जयजयकार हुआ। द्रौपदी ने वरण किया।
शिव (कूशा, प्रकाश) की अभिव्यक्ति शक्ति (पूषा, ह्रद, विमर्श, चिति, संविद, अंबिका, विश्वरूप) का सरोवर है। बीच में एक मेरुदंड का खम्बा (द्रुपद) खड़ा है। मेरूदंड के मूल में साडे तीन चक्कर कुंडल मारकर शक्ति सोई पड़ी है। प्राण अपान का तराज़ू है। इडा (बायीं, चंद्र, शीतल, सव्य) और पिंगला (दाँयी, सूर्य, गरम, अपसव्य) नाड़ी के दो पलड़े लगे हुए है। कभी इड़ा का ज़ोर होता है कभी पिंगला का। लेकिन जब इडा से पिंगला या पिंगला से इडा का बदलाव होता है तब मध्य से गुजरना होता है। मध्य आते ही सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है। इडा और पिंगला सम हो जाते है। प्राण अपान की गति सहज, सरल और समान हो जाती है। विचारो का जाल नष्ट हो जाता है और मन एकाग्र हो जाता है। स्थिर आसन में, सुखासन में सवार होकर, प्रयत्न शैथिल्य से, पूर्णोहं का बीजमंत्र धारणकर, उसी मध्य में जो अर्जुन अर्ध खुले नीचे नेत्र से ठहर गया, उसका सुषुम्ना लगते ही धनुष पर बाण चढ़ जाता है और बीच खुले ऊर्ध्व मार्ग से शक्ति उठकर उपर सहस्रार में रहे शिव की ओर चल पड़ती है। अनुसंधान अड़िग रहा तो लक्ष्य वेध हो जाता है। शिव शक्ति (द्रोपदि) का मिलन हो जाता है। सच्चे स्वरूप की पहचान (प्रत्यभिज्ञा) होती है। मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है। जीवन मुक्ति होती है।
पूषा से कुशा का मार्ग एक गज से भी कम है। देर किस बात की? पल में पार हो जाएगा। लक्ष्य वेध करो।
पूनमचंद
६ अक्टूबर २०२३
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