मनु और शतरूपा।
भारत देश में मनु स्मृति के विवाद चलते रहते है। परंतु मनु कौन था या कौन है इसके बारे में कम चर्चा होती है। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस के द्वारा समाज के मानस को ही चौपाई बद्ध कर दिया था।
श्रुति कहती है की सृष्टि के पहले जब कुछ भी नहीं था तब भी कुछ नहीं (शून्य) का कारण (सच्चिदानंद) मौजूद था। उस परम (सदानंद) सत्ता (चिद्) को एक से अनेक होने का संकल्प (इच्छा) हुआ और सृष्टि (ज्ञान) का सृजन (क्रिया) हुआ। परंतु परम पुरुष ने संकल्प से पहले मन (इच्छा) पैदा किया। अलिंगी अरति था। अरति हटाने दूसरे (रति) की कामना की। आलिंगन का भाव हुआ। अपने देह को दो भागों में विभक्त किया और (पुरूष और स्त्री) पति पत्नी हुए। यही जोड़े से जगत बना। द्विदल बिना अंकुरण कहाँ? रति बिना रमण कहाँ? मनु संज्ञक यह प्रजापति ने अपनी पत्नीरूप कल्पना से शतरूपा नाम की कन्या से संयुक्त हुआ और जीवसृष्टि प्रकट हुई।
मन ही मनु है जिसे प्रजापिता ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है। अकेला पुरूष मन जैव सृष्टि का सृजन नहीं कर सकता इसलिए उसने स्त्री का सृजन हुआ।फिर द्विदल के मिलन-मिथुन से सृजन कार्य आगे बढ़ता गया। स्त्री को शतरूपा नाम दिया है क्योंकि शतरूपा सोचती रहती है कि अपने से ही उत्पन्न करके यह मुझसे क्यों समागम करता है? मैं छिप जाऊँ। वह गौ हुई तो मनु वृषभ होकर संभोग में लग गया। वह घोड़ी हुई तो मनु घोड़ा बना। वह गधी बनी तो मनु गदर्भ बन गया। शतरूपा बकरी हुई तो मनु बकरा बना।शतरूपा मनुष्य, गाय, घोड़ी, गधी, बकरी, भेड़ इत्यादि रूप लेती रहती है और मनु पीछे पीछे उसी योनि का पुरूष बनकर संभोग से सृष्टि का विस्तार करता रहा। चींटी से लेकर हाथी तक (रूपक है अर्थात् सब) जितने मिथुन जोड़ें है वह मनु शतरूपा है जो सृष्टि की रचना में लगे हुए है।
इस सृष्टि में अग्नि है और सोम है। सूर्य है और चंद्र है।नाड़ी पिंगला है और इडा है। तेज है और वीर्य (आर्द्र) है। अन्नाद है और अन्न है। अग्नि अन्नाद है और सोम अन्न। द्रवात्मक होने से सोम पोषक है। उष्णता और रूक्षता के कारण अग्नि अत्ता अर्थात् भक्षण करता है। सोम का भक्षण अग्नि करता है। यह जगत अग्निषोमात्मक है। सूर्य और चंद्र को इसलिए परमात्मा की दो आँखें का रूपक दिया गया है।
चातुर्वर्ण्य की व्याख्या भी कुछ इस प्रकार है। मुख लोमरहित है। मुख से अग्नि देव हुए। ब्राह्मण भी लोमशून्य होता है।दोनों मुखरूप वीर्यवाले है इसलिए यज्ञ अग्नि में आहुति और भोजन में ब्राह्मणों को भोजन का बड़ा महत्व रहा है। बल की आश्रयभूत भुजाओं से इन्द्रदेव और मनुष्यों में क्षत्रिय रचा गया। दोनों बाहुरूप वीर्यवाले है। उरूओं से वसु और वैश्य रचे गए। चरणों से पृथ्वी देवता पूषा (पोषक) और परिचर्चापरायण शुद्र रचे गये। अग्नि ब्राह्मणों का, इन्द्र क्षत्रियों का, वसु वैश्यों का और पूषा शुद्रों का देवता है। देव उसकी प्रजाति पर अनुग्रह रखता है इसलिए प्रजाति अपने अपने देव की पूजा में लग गई। यहाँ जन्म नहीं गुण कर्म प्रभाग है। एक ही शरीर में चातुर्कर्म लगा हुआ है।जीव जगत पूरा चार कर्मों में लगा हुआ है। मनुष्य, पशु, पंखी, कीट, पतंग, हर मुख अग्नि है (अहं वैश्वानरों भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः) इसलिए भूखे को अन्न पुण्यकर्म है। “कहे कबीर कमाल से, दो बातें कर ले। कर साहिब कीं बंदगी भूखे को अन्न दे।”
अव्यक्त जगत नामरूप योग से व्यक्त हुआ। जैसे काष्ट में अग्नि गुप्त हैं वैसे ही जगत का नियंता जगत में गुप्त है। अदृश्य है। वही सब की आत्मा है। उसके ज्ञान से सब का ज्ञान हो जाता है। अविद्या से स्वरूप का अज्ञान हुआ है। इसलिए ज्ञान और कर्म के साधन से साध्य प्रजापति फल पाना है और संसार वृक्ष को उखाड़ना है। यही पुरूषार्थ है। उसकी उपासना करें।
मनु और शतरूपा की संतान मनुष्य मननशील है इसलिए उसने स्मृति रची और मानस भी रचा। लेकिन अज्ञानी भी है। इसलिए ज्ञानी ने रची श्रुति को अज्ञानी अपने अपने स्वार्थ में समझता गया और अर्थ करता गया और जगत को विभक्त करता गया। वह मनुष्य मन ही है जो शांति लाता है और युद्ध भी। मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है क्योंकि जैसा उसने माना, हो गया। बंधन कहा तो बंधन का अनुभव हुआ और मुक्ति कहा तो मुक्ति का अनुभव करने लगा। प्राणन से प्राण, बोलने से वाक्, देखने से चक्षु, सुनने से श्रोत्र, मनन से मन है लेकिन यह सब एक विशेषणरूप अपूर्ण है। जिस में सब आ जाए वह आत्मा है। जिसने उस आत्म तत्व का अनुसंधान किया, आत्म तत्व को जान लिया, वह मन से परे हो गया। परमात्मा (पूर्ण) हो गया। उस पूर्ण की उपासना करें। पूर्णोहं।
पूनमचंद
२६ नवम्बर २०२३