Thursday, October 26, 2023

मनु और शतरूपा।

 मनु और शतरूपा। 


भारत देश में मनु स्मृति के विवाद चलते रहते है। परंतु मनु कौन था या कौन है इसके बारे में कम चर्चा होती है। तुलसीदास ने भी रामचरितमानस के द्वारा समाज के मानस को ही चौपाई बद्ध कर दिया था। 

श्रुति कहती है की सृष्टि के पहले जब कुछ भी नहीं था तब भी कुछ नहीं (शून्य) का कारण (सच्चिदानंद) मौजूद था। उस परम (सदानंद) सत्ता (चिद्) को एक से अनेक होने का संकल्प (इच्छा) हुआ और सृष्टि (ज्ञान) का सृजन (क्रिया) हुआ। परंतु परम पुरुष ने संकल्प से पहले मन (इच्छा) पैदा किया। अलिंगी अरति था। अरति हटाने दूसरे (रति) की कामना की। आलिंगन का भाव हुआ। अपने देह को दो भागों में विभक्त किया और (पुरूष और स्त्री) पति पत्नी हुए। यही जोड़े से जगत बना। द्विदल बिना अंकुरण कहाँ? रति बिना रमण कहाँ? मनु संज्ञक यह प्रजापति ने अपनी पत्नीरूप कल्पना से शतरूपा नाम की कन्या से संयुक्त हुआ और जीवसृष्टि प्रकट हुई। 

मन ही मनु है जिसे प्रजापिता ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है। अकेला पुरूष मन जैव सृष्टि का सृजन नहीं कर सकता इसलिए उसने स्त्री का सृजन हुआ।फिर द्विदल के मिलन-मिथुन से सृजन कार्य आगे बढ़ता गया। स्त्री को शतरूपा नाम दिया है क्योंकि शतरूपा सोचती रहती है कि अपने से ही उत्पन्न करके यह मुझसे क्यों समागम करता है? मैं छिप जाऊँ। वह गौ हुई तो मनु वृषभ होकर संभोग में लग गया। वह घोड़ी हुई तो मनु घोड़ा बना। वह गधी बनी तो मनु गदर्भ बन गया। शतरूपा बकरी हुई तो मनु बकरा बना।शतरूपा मनुष्य, गाय, घोड़ी, गधी, बकरी, भेड़ इत्यादि रूप लेती रहती है और मनु पीछे पीछे उसी योनि का पुरूष बनकर संभोग से सृष्टि का विस्तार करता रहा। चींटी से लेकर हाथी तक (रूपक है अर्थात् सब) जितने मिथुन जोड़ें है वह मनु शतरूपा है जो सृष्टि की रचना में लगे हुए है। 

इस सृष्टि में अग्नि है और सोम है। सूर्य है और चंद्र है।नाड़ी पिंगला है और इडा है। तेज है और वीर्य (आर्द्र) है। अन्नाद है और अन्न है। अग्नि अन्नाद है और सोम अन्न। द्रवात्मक होने से सोम पोषक है। उष्णता और रूक्षता के कारण अग्नि अत्ता अर्थात् भक्षण करता है। सोम का भक्षण अग्नि करता है। यह जगत अग्निषोमात्मक है। सूर्य और चंद्र को इसलिए परमात्मा की दो आँखें का रूपक दिया गया है। 

चातुर्वर्ण्य की व्याख्या भी कुछ इस प्रकार है। मुख लोमरहित है। मुख से अग्नि देव हुए। ब्राह्मण भी लोमशून्य होता है।दोनों मुखरूप वीर्यवाले है इसलिए यज्ञ अग्नि में आहुति और भोजन में ब्राह्मणों को भोजन का बड़ा महत्व रहा है। बल की आश्रयभूत भुजाओं से इन्द्रदेव और मनुष्यों में क्षत्रिय रचा गया। दोनों बाहुरूप वीर्यवाले है। उरूओं से वसु और वैश्य रचे गए। चरणों से पृथ्वी देवता पूषा (पोषक) और परिचर्चापरायण शुद्र रचे गये। अग्नि ब्राह्मणों का, इन्द्र क्षत्रियों का, वसु वैश्यों का और पूषा शुद्रों का देवता है। देव उसकी प्रजाति पर अनुग्रह रखता है इसलिए प्रजाति अपने अपने देव की पूजा में लग गई। यहाँ जन्म नहीं गुण कर्म प्रभाग है। एक ही शरीर में चातुर्कर्म लगा हुआ है।जीव जगत पूरा चार कर्मों में लगा हुआ है। मनुष्य, पशु, पंखी, कीट, पतंग, हर मुख अग्नि है (अहं वैश्वानरों भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः) इसलिए भूखे को अन्न पुण्यकर्म है। “कहे कबीर कमाल से, दो बातें कर ले। कर साहिब कीं बंदगी भूखे को अन्न दे।” 

अव्यक्त जगत नामरूप योग से व्यक्त हुआ। जैसे काष्ट में अग्नि गुप्त हैं वैसे ही जगत का नियंता जगत में गुप्त है। अदृश्य है। वही सब की आत्मा है। उसके ज्ञान से सब का ज्ञान हो जाता है। अविद्या से स्वरूप का अज्ञान हुआ है। इसलिए ज्ञान और कर्म के साधन से साध्य प्रजापति फल पाना है और संसार वृक्ष को उखाड़ना है। यही पुरूषार्थ है। उसकी उपासना करें। 

मनु और शतरूपा की संतान मनुष्य मननशील है  इसलिए उसने स्मृति रची और मानस भी रचा। लेकिन अज्ञानी भी है। इसलिए ज्ञानी ने रची श्रुति को अज्ञानी अपने अपने स्वार्थ में समझता गया और अर्थ करता गया और जगत को विभक्त करता गया। वह मनुष्य मन ही है जो शांति लाता है और युद्ध भी। मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है क्योंकि जैसा उसने माना, हो गया। बंधन कहा तो बंधन का अनुभव हुआ और मुक्ति कहा तो मुक्ति का अनुभव करने लगा। प्राणन से प्राण, बोलने से वाक्, देखने से चक्षु, सुनने से श्रोत्र, मनन से मन है लेकिन यह सब एक विशेषणरूप अपूर्ण है। जिस में सब आ जाए वह आत्मा है। जिसने उस आत्म तत्व का अनुसंधान किया, आत्म तत्व को जान लिया, वह मन से परे हो गया। परमात्मा (पूर्ण) हो गया। उस पूर्ण की उपासना करें। पूर्णोहं। 

पूनमचंद 
२६ नवम्बर २०२३

Monday, October 23, 2023

पूर्णता और गीता।

 पूर्णता और गीता। 

पूर्णता अमरता है। इसलिए जो अमर है उसका साक्षात्कार करने से मृत्यु के भय से छुटकारा होता है। 

श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि, जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।(भगी.२.२७)। (जो जन्मा है वह मरेगा और जो मरेगा वह फिर से जन्मेगा) इस बोध को ऊर्जा के नियम से जोड़ सकते हैं कि उर्जा का न तो निर्माण सम्भव है न ही विनाश; केवल इसका रूप बदला जा सकता है। 

लेकिन मृत्यु से पहले श्रीकृष्ण अमरता की बात करते है। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।(भगी.२.२०) न जन्मता है न मरता है। न उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है। (आत्मा) नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है, शरीर के मरने से नहीं मरता। इस बात को और ठोस करते हुए बताते हैं कि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।भगी २.२३।।शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकता, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती। 

फिर आत्मा नित्यता बताते हुए कहते है, अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।भगी.२.२४।।काटा, जलाया, गीला, सूखाया नहीं जा सकता क्योंकि (आत्मा) नित्य है, सब में है, स्थिर है, अचल है और सनातन है। 

हमें प्रश्न होगा कि हमारे सामने तो सब जन्मता है और मरता है, फिर यह महाशय जो सनातन है वह है कहाँ? 

श्रीकृष्ण कहते है, अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।भगी.२.२५।। (आत्मा) अव्यक्त है, चिंतन का विषय नहीं है, अविकारी है। ऐसा जानकर (मृत्यु का) शोक करना उचित नहीं है। देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।भगी २.३०।।देही (आत्मा) नित्य है, अवध्य है, इसलिए सभी प्राणी और भूतों के लिए शोक नहीं करना है। 

हम है न देही? फिर क्या करना है? 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।भगी २.३१।। अपने धर्म (कर्त्तव्य) को देखकर उससे विचलित नहीं होना है। यहाँ सुननेवाला अर्जुन है जो युद्ध के मैदान में खड़ा है इसलिए उसे अपने क्षत्रिय कर्म को देखते हुए धर्ममय युद्ध के लिए आह्वान किया गया है। हमें अपने अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना है  कर्तव्य से भाग जाने से अमरता नहीं  मिलतीं। अमरता उसे मिलती है जो अमर को पहचान लेता है। मृत्यु के भय से मुक्त निष्काम कर्म करेगा, कुशलता से करेगा, और निश्चिंत होकर करेगा। देही जिस रूप धर व्यक्त है उसकी अभिव्यक्ति पूर्णरूप से करेगा। ऐसा करने से भी उसकी पूर्णता बरकरार रहेगी। 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। वह (परमात्मा) पूर्ण है। यह (जगत) भी पूर्ण। क्योंकि पूर्ण (विश्वोर्तीर्ण) से पूर्ण (विश्वरूप) प्रकट हुआ है। शिव भी पूर्ण, शक्ति भी पूर्ण, शक्ति शिव का ही विमर्श है। दोनों का सामरस्य (एकत्व) है। 

पूर्ण रहें।पूर्ण ही सनातन है।

पूनमचंद 

२३ अक्टूबर २०२३

Sunday, October 22, 2023

सुर-असुर।

 सुर-असुर। 

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति (ब्रह्मा) के पुत्रों में बड़े (ज्यादा) असुर थे और छोटे (कम) सुर। इन दोनों का द्वंद्व युद्ध चलता रहता था। जिस की जीत होती है उसका राज होता था। 

वास्तव में सुर-असुर हमारे चित्त की वृत्तियाँ है। जिस वृत्ति का बल रहेगा, कर्म वैसे होंगे और क्रमानुसार अच्छा बुरा कर्मफल ले आएगा। सुर वृत्ति के साथ पुण्य और कर्मफल देव पद और स्वर्ग को जोड़ा गया है। असुर वृत्ति के साथ पाप और कर्मफल नर्क जोड़ा गया है। एक को बढ़ाने दूसरे का अतिक्रमण करना होता है।हमारे जो प्राण है, चक्षु है, श्रोत्र है, मन है, उनकी अनुक्रम से सूंघने, देखने, सुनने और सोचने की जो वृत्तियाँ है उसी पर यह नियम लागू है। शास्त्रकारों ने सुर वृत्ति को धर्म कहा और असुर को अधर्म। धर्म में माननेवाले देवगण और अधर्मवाले असुरगण करार दिया और धर्म बढ़ाने मृत्यु के बाद एक को स्वर्ग और दूसरे को नर्क मिलने का फल बताया। 

विश्व के सभी धर्मों ने अच्छाईयों पर ज़ोर दिया है। क्योंकि उनको पता था कि मनुष्य के मन मर्कट को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो मौत के बाद जो हो न हो लेकिन जीते जी वह पृथ्वी को नर्क बना देंगे। 

गाँधीजी के तीन बंदर जिसे उनको एक जापानी लामा निचिदात्सु फ़ीजी ने भेंट किये थे, बुरा मत देखो (see no evil), बुरा मत सुनो (hear no evil) और बुरा मत बोलो (speak no evil)  इसी सोच के प्रतीक है।चौथा है बुरा मत करो (do no evil)। मन को मर्कट ही कहा गया है। उस मर्कट के संयम में शांति टिकीं है। यह प्रतीक चीन से जापान गये थे और उनका मूल ईसा पूर्व की चीनी कन्फ़्यूशियस, ताओ और बौद्ध शिक्षा में पाया जाता है, जो बाद में जापान शिन्तो शिक्षा में उतारा गया था। जापान में ६० दिन के कोसीन त्योहार में लोग उसका पालन करते थे जिससे की सालभर पालन कर सके।The gentleman makes his eyes not want to see what is not right, makes his ears not want to hear what is not right, makes his mouth not want to speak what is not right, and makes his heart not want to deliberate over what is not right. 

यह तो हुई व्यक्तिगत व्यवस्था। व्यक्ति व्यक्ति मिलकर समाज बनता है इसलिए समाज में सब अच्छे हो तब तो कोई हर्ज नहीं लेकिन बुराई बढ़ जाए तो क्या होगा? इसलिए नियंत्रण सत्ता के रूप में राजसत्ता अथवा क़ानून व्यवस्था बनी। क्योंकि बुराइयों के सामने आँख मुँद नहीं सकते। (can’t turn blind eye to wrong).

हिंदू धारा आगे जाकर संकुचित हुई और शास्त्र के भाष्यकारों ने शास्त्रों की सूचनाओं के अनुसार चलनेवाले को सुर और विरोध करनेवाले को असुर करार दिया। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था इसी शास्त्रीय सूचना का हिस्सा बन गई और हिंदू समाज विभक्त हो गया। मन की लड़ाई समाज में फैल गई। धार्मिक अधार्मिक जूथ बन गए और महाभारत शुरू हो गया। 

विश्व भी तो लढ झगड़ रहा है। वर्तमान विश्व को देखिए, दिन प्रतिदिन लड़ाई बढ़ रही है। एक दूसरे को मारने मिटने पर तुले है।ज़मीन के झगड़े इन्सानों की आहुति ले रहे है। बम वर्षा हो रही है। यादवस्थली की तरह एक दूसरे को ख़त्म करेंगे। स्वर्ग कहाँ, यह तो नर्क बना रहे है। 

अन्यथा यह जीवन एक मधुवन है जहां सब शहद से भरा है। कोई उपकारक कोई उपकार्य। सब पूर्ण। न कोई आधा न अधूरा। वह पूर्ण से पूर्ण ही प्रकट हुआ, पूर्ण से पूर्ण लेने से पूर्ण ही रहेगा। अगर कमी रही तो पूर्ण कैसे कहेंगे? यह जगत उसका शक्ति रूप प्राकट्य है। मातृरूप है। 

सबको साथ लेकर घुल मिलकर रहना है। अपने अंदर की आसुरी वृत्तियों का दमन करना है और सुर वृत्तियों को बढ़ाया देना है। ऐसा सब करेंगे तो यह पृथ्वी नंदन वन बनेगी। वसुधैव कुटुंबकम् (धरती एक परिवार) का मंत्र सार्थक होगा। 

पूनमचंद 

२२ अक्टूबर २०२३

Thursday, October 19, 2023

Mother

 Mother 


Kauravas and Pandavas had similar genes coming from Sage Parashar and Sage Ved Vyas but they were different in their acts and energy levels. Gandhari and Kunti made the difference. In a family of four brothers, we see children of each family in different levels of energy. What makes them different from one another? The mother. 

When sperm fertilizes an egg, the egg becomes a zygote. The zygote goes through a process of becoming an embryo and developing into a fetus. The zygote typically has 46 chromosomes 23 from the biological mother and 23 from the biological father. Chromosomes are made up of long strands of DNA, which contain all the body's genes. Each chromosome has very specific chapters that tell the cell what kinds of characteristics you will have (like eye colour and hair colour, etc). But there is one special, the mitochondrial DNA that produces ATP which is source of energy to our body. It is called the power house, which gives energy power to each cell. All other DNA come from the parents 50:50 but Mitochondria and their DNA only come from the mother to the baby. 

We get 100% mitochondrial DNA from the mother. Our mother gets it from her mother and our father also gets it from his mother. The God of power in each individual is therefore the Mother which is present in the form of Adi Shakti, Ma Bhagavati, the mother of the universe. 

All the perfect mantras, pooja of Maa Durga work on a subtle level to energise and empower us, therefore, worshiping Mother and Mother Goddess have been given highest importance in Hinduism. 

माँ तुझे सलाम। 🙏🙏🙏

Punamchand 
19 October 2023

Mother Goddess (माँ भगवती)

 Mother Goddess (माँ भगवती)

Bharat is celebrating Navratra festival in the Shukla paksha (bright moon) of Ashwin month of Hindu Calendar. People worship nine forms of Mother Durga and specially the Gujaratis play devotional Garaba and Bengalis decorates and worship idols of Maa Durga for all nine nights. The word Garaba derived from Garbha, the antrum, the womb of creation, in which people lit the lamp or place idol of mother goddess and perform Garaba dance around it. Millions of Bharatiya observe fast and pray the mother during this parva. Maa Bhagavati, Bhagvan and Bharat are the inbuilt culture of India. 

Bha means nine, therefore, Indian spirituality revolves around nine manifestations of the mother Goddess. One that possesses Bhaga (feminine) is called Bhagavati. The nine forms of Mother Goddess are known as: Shailputri, Brahmacharini, Chandraghanta, Kushmanda, Skandamata, Katyayani, Kaalratri, Mahagauri, and Siddhidatri. There is a practice of worshiping nine angled yantra (figure).  

Bhaga signifies the knowledge of creation, destruction, origin of beings, divine truth and ignorance. He that knows all these six is qualified for the title Bhagvan. 

As per Agamas, the Mother has nine manifestations: Kala (time), Kula (form), Nama (name), Jnana (intelligence), Chitta (mind), Nada (sound), Bindu (sprout), Kala (keynotes, limited action) and Jiva (bondage of matter). The groups include all in the universe/s. Therefore, we all being part of this universe are part of the manifestation of Maa Bhagavati and have strength to acquire the state of Bhagavan.  

Bha means nine, rat means engrossed. Bha refers to light, the Kali, the Supreme who illuminates all things in this universe with its infinite varieties of subjects and objects with her own light. It is manifestation of the Supreme Lord (Shiva, masculine) as universe in his self expansion of Shakti (feminine) aspect. It’s a divine will. Therefore, all on this pious land engrossed in search of this divine knowledge for centuries are called Bharat. The people that worship nine manifestations of Maa Bhagavati are called Bharat.

Bhag is division and Bhagya is fortune. To make out fortune from the divisions needs blessings of the Mother Goddess. There are Bhagvas, either worshipers of the mother goddess or escapers from Samsar/responsibility.

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता 

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

या देवी सर्वभूतेषु शांति-रूपेण संस्थिता 

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

Punamchand 

19 October 2023

Sunday, October 15, 2023

सूरज के रंग।

 सूरज के रंग। 


रोज़ सुबह सूरज आकर, सबको सदा जगाता है। 

शाम हुई लाली फैलाकर, अपने घर को जाता है। 

दिनभर खुद को जलाकर, यह प्रकाश फैलाता है। उसका जीना ही जीना है, जो काम सभी के आता है। 


उगते सूरज का रूप और लालिमा किसे नहीं लुभाता? सूरज है तो सफ़ेद रंग का और इन्द्रधनुष के सातों रंग लिए है, लेकिन पृथ्वी का वातावरण ऋतुचक्र से उसका दर्शन प्रभावित होता है। सुबह और शाम के वक्त सूरज की रोशनी जिस वातावरण से गुजरती हैं वैसे ही उस के लाल रंग की आभा अलग-अलग नज़र आती है। 


हर ऋतु में सूर्योदय के वक्त सूर्य बिंब अलग रंग लिए है। शिशिर (माघ-फाल्गुन) में ताँबे जैसा लाल, वसंत (चैत्र-वैशाख) में कुमकुम वर्णी, ग्रीष्म (ज्येष्ठ-आषाढ़) में पाण्डु (फीका) वर्णी, वर्षा (सावन-भाद्रपद) में एक से ज़्यादा वर्ण का, शरद (आसो-कार्तिक) में कमल जैसा और हेमंत (मृगशीर्ष-पोष) में रक्त वर्ण दिखता है। 


इस रंग का अभ्यास करते हुए भारतीय ज्योतिषियों ने इसे पृथ्वी पर हो रही घटनाओं से जोड़ा है। नारद संहिता कहती है कि अगर सर्दियों (मृगशीर्ष-फाल्गुन) में सूर्य बिंब पीला, वर्षा (सावन से कार्तिक) में श्वेत, गर्मियों (चैत्र-आषाढ़) में लाल रंग का दिखे तो अनुक्रम से रोग, अनावृष्टि तथा भय पैदा करता है। सूरज अगर ख़रगोश के खून जैसे रंग का दिखे तब राजाओं के बीच महायुद्ध होता है। उदय और अस्त के वक्त अत्यंत रक्त वर्ण का दिखे तो राजा का परिवर्तन होता है। 


अभी शरद काल है। सूर्य कमल जैसा होना है। लेकिन रक्त वर्ण लिए है। युद्ध और राज परिवर्तन का संकेत है। 


पूनमचंद 

१५ अक्टूबर २०२३

प्राणायाम।

 प्राणायाम। 


प्राण अर्थात् जीवनी शक्ति; उसका आयाम अर्थात् विस्तार। जीवनी शक्ति को लम्बा करना, उसका बल बढ़ाना और प्राकृतिक जगत को वशीभूत करना उसका लक्ष्य होता है। 


पतंजलि योग सूत्र मे प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि। सूत्र हैः - तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ अर्थात् श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है।

प्राण के पाँच मुख्य और पाँच उप-प्राण है। जैसे कि प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। पांच उप-प्राण हैः नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला और धनन्जय। शरीर में बल संचार करता प्राण है। शरीर से मल इत्यादि बाहर फेंकने की शक्ति अपान है। समान रूप से शरीर की शक्ति को ज्वलंत रखता समान है। शरीर को उठाये रखे वह उदान है। सारे शरीर में व्याप्त व्यान है। अपान का स्थान मूलाधार में, समान का मणिपुर नाभि में, प्राण का अनाहत में, उदान का विशुद्धि में, और व्यान का पूरे शरीर में है। प्राण का उप नाग, अपान का कूर्म, समान का कृकल, उदान का देवदत्त और व्यान का धनंजय है। नाग वायु संचार, डकार, हिचकीं; कूर्म नेत्र क्रिया; कृकल भूख प्यास; देवदत्त जम्हाई, अंगड़ाई; और धनंजय सफ़ाई का काम करता है। मुर्दे में धनंजय बना रहता है, विसर्जन के लिए। आयुर्वेद त्रिगुणः सत्व, रजस, तमस; तीन प्रकृतिः वात, पित्त और कफ; और यह दस प्राण पर अवस्थित है। 


शरीर विज्ञान से अब अध्यात्म की ओर चलें। 


जब हम श्वास अंदर लेते हैं वह है अपान और छोड़ते हैं वह है प्राण। लगभग बारह अंगुल की लम्बाई से एक तंदुरुस्त साँस चलता रहता है। हमारे शरीर की उष्मा को बनाये रखने का यह भगवान ने दिया चरखा है जो जीवनभर चलता रहता है। दो नथुनो से एक के बाद दूसरे में वह प्रभावी रूप से दायाँ और बायाँ क्रम से चलता रहता है। दायाँ गर्म है, सूर्य है, पिंगला है। पहाड़ों मे बसे तपस्वी लोग सर्दीओ में इसके सहारे अपने शरीर की ठंड से रक्षा कर लेते है। कम्बल की ज़रूरत पूरी करता है। दूसरा बायाँ शीत है, चंद्र है, इडा है। ठंडक देता है। गर्मीओ में इसका प्रयोग करने से गर्मी से राहत मिलती है। 


इस चरखे का अचरज यह है कि हर देढ घंटे में वह अपनी साइड बदलता रहता है। जब बदलने का वक्त आता है तो वह कुछ साँस मध्य चलता है। वही मध्य को सुषुम्ना के नाम से जाना गया है। उसी में लिया राम नाम हिसाब में जमा होता है। इसके अलावा जब त्रिकाल संध्या का वक्त होता है, सुबह, मध्याह्न और शाम; तब सुषुम्ना चलने का वक्त ज़्यादा होता है। इसलिए सभी जाप, आरती, मंत्र, नमाज़ इसी समय अदा की जाती है। 


मध्य के चलते मन की स्थिरता बढ़ने से और संसार विचार कम होने से वाहन चालक इसी समय चूक करता है और ज़्यादातर रोड अकस्मात् इसी संध्या काल में होते है। 


विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ओक्सिजन प्राणवायु है और कार्बन डाइऑक्साइड मृत्युवायु। शरीर में ओक्सिजन की बढ़ोतरी दिमाग़ को तेज और आयु को लम्बा करता है। कार्बन डायऑक्साइड की बढ़ौतरी धीरे धीरे मृत्यु के समीप ले जाती है। यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥ (जब तक शरीर में वायु (ओक्सिजन) है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध (संभाले रखना) करना चाहिये।) हमारे बचपन के शरीर का रंग रूप और बुढ़ापे के शरीर का रंगरूप यही ओक्सिजन कार्बन डाइऑक्साइड की लड़ाई में हुई हमारे हालहवाल को बयान करता है। अद्भुत व्यवस्था है। कार्बन खाने में फ़ायदा करता है और ओक्सिजन साँस लेने में। एक पेट के लिए दूसरा फेफड़ों के लिए फ़ायदेमंद । अगर उल्टा हुआ तो खतम। 


एक बात और भी है। प्राण अपान की (प्रश्वास श्वास) की गति का सीधा संबंध हमारे मन और विचारों से है। उनके चलायमान होते ही मन विचार भी चलायमान होने लगते है। या तो प्राण से मन पर नियंत्रण करें अथवा मन से प्राण पर। यही योग का क्षेत्र है। हठयोग कहता हैः चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्, योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥ (अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।) हमारे अंदर की नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकल के मन और आत्मा को शुद्ध करने प्राणायाम ज़रूरी है।


अब तक बात साफ़ हो चुकी हैं कि प्राण अथवा प्राणायाम का हमारे जीवन में कितना महत्व है। आदि शंकराचार्य श्वेताश्वतर उपनिषद पर अपने भाष्य में कहते हैं, "प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय में उल्लेख है। स्वामी विवेकानंद इस विषय में अपना मत व्यक्त करते हैं, जिसने प्राण को जीत लिया है उसने प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त कर ली। 


भौतिक प्राणायाम के कईं प्रकार है। आप जानते ही होंगे। जैसे कि सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, इत्यादि। अब चलते हैं भीतर की ओर। सुषुम्ना की ओर। मध्य चलते ही निर्विचार स्थिति में प्रवेश होता है। मन भीतर की ओर मुड़ जाता है। अंदर एक स्तंभ सा महसूस होता है जो ऊर्ध्व है। धीरे-धीरे चक्र अनुसंधान होने से प्राण मूलाधार से सुषुम्ना मार्ग से ऊर्ध्व चलना आरंभ करते है। धीरे-धीरे अभ्यास से एक के बाद एक चक्र में गति होते ही हमारे विचार, स्वभाव, नज़रिया बदलने लगता है। जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे संसार कम और परम ज़्यादा पसंद आने लगता है। अनाहत पहुँचते ही जैसे नया जन्म हो गया। द्विज हो गया। व्यक्ति बदल गया। विशुद्धि आते ही सरस्वती प्रकट हो जाती है। आज्ञा पहुँचते वह जितेन्द्रिय बन जाता है। आज्ञा से सहस्रार की यात्रा गुरूगम के साथ करनी होती है। वह जब पूरी होती है तब मूलाधार से चली शक्ति अपने गंतव्य शिव तक पहुँच जाती है। स्वरूप पहचान होती है। जीवन मुक्ति होती है। 


यहाँ साँस धीरे-धीरे चलते चलते जैसे बंद ही हो जाती है। हल्की सी जैसे मिलीमीटर में चलती है।साँस शांत होते ही मन ग़ायब हो जाता है और अहं रूबरू होता है। शरीर की सीमा टूटते ही असीम का साक्षात्कार हो जाता है। 


यह मार्ग भौतिक नहीं है इसलिए मुर्दे में नहीं प्राप्त होगा। चैतन्य मार्ग है इसलिए ज़िंदा व्यक्ति के लिए इस मार्ग को खोजकर उसपर चलना कितना महत्वपूर्ण है वह अब समझ सकते है।  


या तो साँस से मन का अनुसंधान करें अथवा मन से साँस का। आयु अवस्था को देखते उचित का चयन करें। बस याद यह रखना है कि हम शक्ति रूप है। शक्ति को जगाना है और शिव को मिलाना है। मुक्त है, मुक्ति का अनुभव करना है। सत का साक्षात्कार करना है। 


पूनमचंद 

१४ अक्टूबर २०२३

Wednesday, October 11, 2023

Islam and Sikhism

 Islam and Sikhism-1


I was not surprised when one of my friends told that earlier Sikhism was considered a branch of Islam in past because it has influence of Sufi teachings of Baba Farid in its foundation. Guru Nanak Dev had gone to Mecca twice the place prohibited for the non convert to visit. As the path was common, Guru Nanak Dev (1469-1539) carried forward teachings of two Muslims: Baba Farid (1188-1266) and Saint Kabir (1398-1518). 


Baba Farid was born near Multan (Punjab-Pakistan) and was the disciple of Khwaja Qutubuddin Bakhtiar Kaki, the Sufi Saint of Chishti order. He is considered the pioneer for the founding of Punjabi language of literature. Guru Granth Sahib includes 123 hymns composed by Baba Sheikh Farid. He has been revered as one of the 15 Bhagats including Saint Kabir. Langar is a tradition of Sufism tied to the Chishti Order adopted by Sikhs whereby food and drink are given to the needy regardless of social or religious background. 


Once, Guru Nanak Dev and Bhai Mardana had met Shaikh Ibrahim at Pakpattan who occupied the spiritual seat of Baba Farid. They had a great discourse on God. 


Sheikh Ibrahim recited the couplet of Baba Farid. “Fareed, I have torn my clothes to tatters; now I wear only a rough blanket. I wear only those clothes which will lead me to meet my Lord.” Guru Nanak replied: “The soul-bride is at home, while the Husband Lord is away; she cherishes His memory, and mourns His absence. She shall meet Him without delay, if she rids herself of duality.”


Shaikh Ibrahim’s response was: “Fareed, when she is young, she does not remember her Husband. When she grows up, she dies. Lying in the grave, the soul-bride cries, "I did not meet you, my Lord." Guru Nanak replied: The rude, ill-mannered bride is encased in the body-tomb; she is blackened, and her mind is impure. She can be with her husband Lord, only if she is virtuous. O Nanak, the soul-bride is unworthy, and without virtue. 


Shaikh Ibrahim asked that it needed a dagger to kill the mind. Guru Nanak replied: The knife is Truth, and its steel is totally True. Its workmanship is incomparably beautiful. It is sharpened on the grindstone of the Shabad. It is placed in the scabbard of virtue. If the Shaykh is killed with that. Then the blood of greed will spill out. One who is slaughtered (हलाल) in this ritualistic way, will be attached to the Lord. O Nanak, at the Lord's door, he is absorbed into His Blessed Vision. 


Shaikh Ibrahim felt very happy to listen to this and he handed over many couplets of Baba Farid that lay with him to Guru Nanak. 


How great the teaching is that the soul is a bride (गोपी) and her groom is the God/Allah/कृष्णा! To meet him is the only purpose of life and for that she has to purify her mind by good virtues and slaughter the ego with the knife of truth to remove the blood of greed. 


Punamchand 

11 October 2023

Friday, October 6, 2023

लक्ष्य वेध।

लक्ष्य वेध। 


पांचाल के राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह एक महान पराक्रमी राजकुमार से कराना चाहते थे। द्रोपदी के लिए योग्य वर की तलाश के लिए पांचाल कोर्ट में ही द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया और उसकी एक शर्त भी रखी। कोर्ट के केंद्र में एक खंबा खड़ा किया हुआ था, जिस पर एक गोल चक्र लगा हुआ था। उस गोल चक्र में एक लकड़ी की मछली फंसी हुई थी जो कि एक तीव्र वेग से घूम रही थी। खम्बे के बीच में एक तराज़ू लगा हुआ था। उस खम्बे के नीचे पानी से भरा हुआ पात्र रखा था। एक धनुष बाण रखा था जिसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर उस धनुष की मदद से तराज़ू में खडे रहकर नीचे रखे पानी से भरे पात्र में खम्बे के उपर घुमती हुई मछली का प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख में निशाना लगाना था। जो भी राजकुमार मछली पर सही निशाना लगेगा उसका विवाह द्रोपदी के साथ होगा। सब राजा-राजकुमार असफल रहे। लेकिन अर्जुन सफल रहा। उसने धनुष को नमन कर उसकी प्रदक्षिणा की, फिर उठाकर प्रत्यंचा चढ़ाई और तराज़ू के दोनो पल्लों में पैर जमाकर दाँया-बायाँ को मध्य में स्थिर किया। फिर अपनी आँख को अर्धखुली अवस्था में नीचे मछली के प्रतिबिंब पर एकाग्र कर अभ्यास किया। जैसे ही मध्य नाड़ी से साम्य पैदा हुआ ऊर्ध्व अनुसंधान हुआ। उस ऊर्ध्व में चित्त एकाग्र कर बाण को चढ़ाया और प्रत्यंचा खींच उपर की ओर छोड़ दिया। चतुर्थ सिद्ध हुआ और मछली की आँख का वेध हुआ। सर्वत्र जयजयकार हुआ। द्रौपदी ने वरण किया। 

शिव (कूशा, प्रकाश) की अभिव्यक्ति शक्ति (पूषा, ह्रद, विमर्श, चिति, संविद, अंबिका, विश्वरूप) का सरोवर है। बीच में एक मेरुदंड का खम्बा (द्रुपद) खड़ा है। मेरूदंड के मूल में साडे तीन चक्कर कुंडल मारकर शक्ति सोई पड़ी है। प्राण अपान का तराज़ू है। इडा (बायीं, चंद्र, शीतल, सव्य) और पिंगला (दाँयी, सूर्य, गरम, अपसव्य) नाड़ी के दो पलड़े लगे हुए है। कभी इड़ा का ज़ोर होता है कभी पिंगला का। लेकिन जब इडा से पिंगला या पिंगला से इडा का बदलाव होता है तब मध्य से गुजरना होता है। मध्य आते ही सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है। इडा और पिंगला सम हो जाते है। प्राण अपान की गति सहज, सरल और समान हो जाती है। विचारो का जाल नष्ट हो जाता है और मन एकाग्र हो जाता है। स्थिर आसन में, सुखासन में सवार होकर, प्रयत्न शैथिल्य से, पूर्णोहं का बीजमंत्र धारणकर, उसी मध्य में जो अर्जुन अर्ध खुले नीचे नेत्र से ठहर गया, उसका सुषुम्ना लगते ही धनुष पर बाण चढ़ जाता है और बीच खुले ऊर्ध्व मार्ग से शक्ति उठकर उपर सहस्रार में रहे शिव की ओर चल पड़ती है। अनुसंधान अड़िग रहा तो लक्ष्य वेध हो जाता है। शिव शक्ति (द्रोपदि) का मिलन हो जाता है। सच्चे स्वरूप की पहचान (प्रत्यभिज्ञा) होती है। मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है। जीवन मुक्ति होती है। 

पूषा से कुशा का मार्ग एक गज से भी कम है। देर किस बात की? पल में पार हो जाएगा। लक्ष्य वेध करो। 

पूनमचंद
६ अक्टूबर २०२३


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