मन।
जैसे समग्र अस्तित्व शक्ति है, शिव की; विमर्श है प्रकाश का; वैसे ही मन भी शक्ति है, जीवात्मा की।
प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज, तम) में मन सत्व का प्रतीक है। इसलिए उसे दर्पण भी कहा जाता है।
इसी दर्पण पर जीवन के रसास्वादन के लिए भाव (स्वभाव) खेल चलता रहता है।
मन को वैसे तो इस खेल में रहना है साक्षी, दृष्टा, लेकिन वह इन्द्रियों के साथ लिप्त हो जाता है और कर्तृत्व भोक्तृत्व की जंजाल में फँसकर सुख दुःख का भोगी और जन्म मरण के चक्कर काटनेवाला पुर्यष्टक बन जाता है।
यही अशुद्धि है, मल है, अशुद्ध मन है। सारे प्रश्नों का यही मूल कारण है।
यह मन जब दृष्टा बनकर तटस्थ भाव धारण कर लेता है, खेल और रंगमंच का साक्ष्य हो जाता है, तब वह शुद्ध मन बन जाता है। उस शुद्ध मन के दर्पण से जो उभर आती है वह आत्मा है।
शुद्ध मन तटस्थ साक्षी होते ही भावातीत होता है, प्राण के खेल का तटस्थ साक्षी रहता है। फिर जब मन भी दृश्य बनता है तब दृष्टा आत्मा उभर आती है।
फिर आगे मन भी नहीं रहता, शिवशक्ति के मिलन में हंस परमहंस हो जाता है।
अद्भुत है।
पहले मन (शक्ति-विमर्श) के दर्पण में आत्मा का प्रतिबिंबन और फिर आत्मा में मन का।
तेरी लीला का नहीं पार।
आत्मा अद्वय है। अद्वैत है। बाक़ी सब खेल है। राम।
पूनमचंद
५ जून २०२३
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