अवधूत।
जडं पश्यति नो वस्तु जगत् पश्यति चिन्मयम्। जो जगत को जड़ नहीं अपितु चिन्मय-चैतन्य रूप देखता है।
मूर्ति पूजा का यही तो रहस्य है। है तो पत्थर लेकिन उसके पूजक के लिए प्राण प्यारा बन जाता है। लेकिन सिर्फ़ मूर्ति ही क्यूँ, सिर्फ़ अपने काम की वस्तु ही क्यूँ, जब जगत पूरा लबालब एक ही चैतन्य आत्म तत्व से ही भरा पड़ा है, एक ही अनेक रूप में लीला कर रहा है फिर किसका भेद करेंगे?
योगवासिष्ठ में सुषुप्ति के प्रकार बतायें है। घन सुषुप्ति, क्षीण सुषुप्ति और स्वप्न सुषुप्ति। यह पृथ्वी तत्व, पत्थर, पहाड़ सब घन सुषुप्ति में है। चेतना है लेकिन घन सुषुप्त है। यह पेड़, पौधे, वनस्पति क्षीण सुषुप्ति में है। चेतना घन से ज़्यादा सक्रिय है। यह पशु पक्षी मनुष्य इत्यादि जीव स्वप्न सुषुप्ति में है। चेतना का जागरण बढ़ा है लेकिन स्वरूप अज्ञान से स्वप्न सुषुप्ति अवस्था में है। अभी मनचले है। दो ही तो जाग्रत में आएँगे, गुरू और गोविंद।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। देखना ही तो है। चिन्मय रूप से, सब में चिन्मय के दर्शन करने है। एक मूर्ति पर ही नहीं ठहर जाना है। वह तो प्राथमिक शिक्षा है। एक घन सुषुप्त पत्थर को पूजे और क्षीण और स्वप्न सुषुप्त चैतन्य रूपों को भूल जाए, यह कैसे हो सकता है। लेकिन हुआ। अभेद की शिक्षा को भूल हम भेद में चले गए और विषमताओं के पालने लगे।
अवधूत दशा को पाना है तो अभेद दुर्ग में दाखिल होना पड़ेगा। संतुलन की स्थिति बनानी है। बेकार सब ग़ायब करना और चैतन्य क़ायम करना है। वधू मतलब दूसरा। जिसे एक के सिवा दूसरा कोई दिखता नहीं वही अवधूत है। धूत का मतलब छोड़ना। जिसने भेद की दुनिया छोड़ी और अभेद में सबको एक कर दिया वह है अवधूत। वही संन्यास है। सब कुछ छोड़ना और बस एक ही चैतन्य पकड़े रखना है। स्वप्न सुषुप्ति हटेगी और जाग्रत हो जाएगा। स्वस्थ हो जाएगा।
पूनमचंद
२४ जुलाई २०२३