ज्ञानं बन्धः।
ज्ञानं जाग्रत।
शिवसूत्र के दो सूत्र है।
पहले बंधन का सूत्र फिर जागरण का। ज्ञान (स्वरूप) बन्ध का अर्थ हुआ संकोच का ज्ञान, सीमा- बंधन का अनुभव, स्वातंत्र्य का अज्ञान है। जैसे कोई अपने ही स्वरूप को अपने ही संकल्प से भूल गया। असीम है परंतु सीमा में बंध गया।
जंगल में एक शेर का बच्चा बकरियों के झुंड में रहकर अपने को बकरी मानने लगा था। एक दिन एक शेर आ गया। उसने दहाड़ लगाते ही सारी बकरियाँ भाग चली। वह शेर का बच्चा जो अब युवा हो गया था वह भी भागने लगा। शेर ने बकरियों को तो जाने दिया लेकिन उस शेर को पकड़ लिया। कहा बरखुरदार, आप कहाँ भाग रहे हो? वह युवा शेर तो डर के मारे काँपने लगा। अब मेरा क्या होगा? मेरी बकरियों के पास अब कैसे जा पाऊँगा? वैसा सोचकर वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। शेर उसे पकड़कर एक तालाब के पास ले गया। फिर उसे दिखाया अपना चेहरा और उसका भी और बताया कि तुम भी शेर हो मेरी तरह। परंतु वह मानने को तैयार नहीं। फिर कहा, अब दहाड़ो मेरी तरह। वह पहले तो तैयार नहीं हुआ लेकिन उसके बार बार कहने से थोड़ी ताक़त इकट्ठी की और दहाड़ा। पहले तो थोड़ी सी आवाज़ निकली परंतु जैसे ही उसने दहाड़ ने का अभ्यास किया आवाज़ बुलंद होती गई। दूर किनारे उसके साथी देख रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने साथी के मुँह से शेर के दहाड़ ने की आवाज़ सुनी सब भाग गये। वह शेर मस्त होकर अपनी सच्ची पहचान को पाकर जंगल में चल पड़ा, एक शेर की तरह। शेर ही था। अपने शेर स्वरूप को पहचान लिया, स्वातंत्र्य पा लिया और सिंहत्व को प्राप्त हुआ। जाग गया। ज्ञानं जाग्रत्।
हम कब दहाड़ेंगे? कौन रोक रहा है? पहचान ले, अमृत कुंभ भीतर है। बस स्वातंत्र्य का ढक्कन खोलना ही बाक़ी है। इंतज़ार मत करें। शरीर रथ काल चक्र में बंधा है। विदेह होने से पहले जीवन मुक्त हो जाए।
“You can say to this mountain, ‘May you be lifted up and thrown into the sea,’ and it will happen. But you must really believe it will happen and have no doubt in your heart.“ -Jesus
क्या नामुमकिन होगा जिसने शिव साक्षात्कार किया? स्वस्थता स्वातंत्र्य है।
पूनमचंद
३ जून २०२३
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