तीन यात्रा।
आध्यात्मिक जीवन में तीन यात्राओं का चिंतन होता है। एक यात्रा तो हम सब मनुष्यों ने पूरी कर ली है, मनुष्य योनि तक पहुँचने की। इसे अज्ञान की यात्रा कहते है क्योंकि अपने सर्व ज्ञातृत्व और सर्वं कर्तृत्व सत्ता के परमात्मभाव को भूलकर जड़ संबंध से जीवभाव की स्थिति प्राप्त की है। यह शिव स्वातंत्र्य था जिसने अनावृत चेतन को आवृत कर प्रकृति की ओर सुषुप्ति को चुना है। प्रकृति की यह परमावस्था से जिन्हें कोई आपत्ति नहीं, उनके लिए यह शिव-जीव की चर्चा का कोई मतलब नहीं रहता क्योंकि इनका सुषुप्ति भंग बाक़ी है।
लेकिन जिनका सुषुप्ति भंग हुआ है और जो अपने जड़भाव से निकलकर नित्य जाग्रत बोध की दिशा की ओर प्रवृत्त हुए हैं इनके लिए आध्यात्मिक यात्रा एक नहीं दो हो जाती है। एक पूर्णोहं रूप बोध की व्यक्त स्थिति और दूसरी महामौन, महाशून्य की अव्यक्त स्थिति। अव्यक्त को कोई नहीं व्यक्त कर सकता इसलिए दर्शन सब व्यक्त के चिंतन तक सीमित है। लेकिन अगर यह पूर्णोहं स्थिति भी इस जीवन में मिल जाए, तो उस सिद्ध दशा का क्या कहना? जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन मुक्त हो जाएगा।
यह दूसरी यात्रा नित्य जाग्रत स्वयंप्रकाश चैतन्य की अवस्था है।
जिस जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति से हम परिचित हैं वह हमारे मन की अवस्थाएँ है। मन जागता है, स्वप्न देखता है और सुषुप्ति में चला जाता है। मन की दौड़ विषयों के प्रति है इसलिए जागते ही फिर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की विषय दौड़ लग जाती है। इन्द्रियों के बलानुसार उसका शारीरिक और मानसिक भोग करता रहता है और सफलता से सुखी और विफलता से दुःखी रहता है। आत्मा तीन मलों के आवरण से अपने को इस अस्तित्व से भिन्न मानकर राग-द्वेष के दो पिल्लों के आसपास घुमती रहती है। समर्थ असमर्थ बनकर अविद्या की जेल में बंद है।
क्या दूसरी यात्रा के लिए तैयार है?
यहाँ करना कम है और छोड़ना ज़्यादा है। घबराओ नहीं, न घर छोड़ना है न पत्नी-पति या पुत्र परिवार, न धन दौलत, न पद। बस एक ही छोड़ना है, अहंकार। अहंकार से ममत्व है और ममत्व से बंधन है। अहंकार से हं निकाल कर अ-कार चित् में प्रवेश करना है। घोर से अघोर में प्रवेश करना है। मैं कोन हूँ को खोजना है।
मैं शरीर नहीं, मेरा शरीर है।
मैं इन्द्रियाँ नहीं, मेरी इन्द्रियाँ है।
में मन नहीं, मेरा मन है।
मैं बुद्धि नहीं, मेरी बुद्धि है।
मैं अहंकार नहीं, मेरा अहंकार है।
मैं धन-दौलत, पत्नी-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि नहीं लेकिन मेरी धन-दौलत, मेरी/मेरा पत्नी-पति-पुत्र-परिवार, पद-प्रतिष्ठा है।
यह जो मेरा-मेरा हैं वह प्रकृति सत्ता का अहंबोध है उससे मुक्त होना है और अपने शुद्ध मैं स्वरूप की आहलेक लगानी है। मेरा-मेरा संकोचन है, उस संकोचन को त्यागना है। जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ेगी, आत्मा अपने सर्वज्ञत्व, सर्वकतृत्व इत्यादि भगवद् गुणों के प्रकाश का अनुभव करेगी। आत्मा अहं बोध पूर्णोहं रूप नित्योदित स्वयं प्रकाश चैतन्य की अवस्था में स्थित हो जाएगी। दूसरी यात्रा यहाँ समाप्त होती है।
लेकिन लाखों में कोई एक विरला तीसरी यात्रा में कदम रख लेता है, अनन्त की ओर, अव्यक्त की ओर। अपने स्वरूप के भीतर प्रवेश कर भीतर ही भीतर अव्यक्त स्वरूप की ओर यात्रा चलती रहती है।कहाँ तक, कोई नहीं जानता। कोई नहीं लिखता। अव्यक्त है, व्यक्त नहीं हो सकता। उस महाशून्य, परम शिव पद निर्वचनीय है।
कहाँ खो गये?
अभी तो हम पहली यात्रा को समझ रहे है और दूसरी की तैयारी में लगे है।
चल पड़ो।
तीसरी का पड़ाव आएगा, तब देखा जाएगा।
पूर्णोहं के बोध की ओर अग्रसर रहे।
🕉️
पूनमचंद
२२ जून २०२३
साभारः तांत्रिक साधना और सिद्धांत, महामहोपाध्याय डॉ. श्रीगोपीनाथ कविराज।
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