शुद्ध विद्या ।
कश्मीर शैव दर्शन अद्वैत वेदांत से थोड़ा हटकर है। केराला और कश्मीर दर्शन एक ही शिव की दो भिन्न व्याख्या करते है। एक का शिव अकर्ता है जबकि दूसरे का ज्ञाता भी और कर्ता भी। पंचशक्ति से पंचकृत्यकारी, रंगमंच बनकर खुद ही नर्तक बन खेल खेल रहा है।
यह अस्तित्व शिव से लेकर पृथ्वी तत्व तक ३६ तत्वों में परम शिव का प्राकट्य-संकोच है। आरोह क्रम के ३१ वें पायदान पर और अवरोह क्रम के पाँचवें पायदान पर एक तत्व है जिसका नाम है शुद्ध विद्या। सीडी का यह पड़ाव अवरोह में वास्तविक आध्यात्म की शुरुआत है। उसके नीचे माया मंडल में सब भेद ग्रस्त है और भेदमयी प्रमाता अपने अभेद रूप का साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसलिए KSD में शुद्ध विद्या के उदय को अधिक महत्व दिया जाता है।
क्या है यह शुद्ध विद्या? कहाँ रहती है? कौन देता है? शुद्ध विद्या प्राप्त होने से क्या होता है? इत्यादि प्रश्न हर साधक के मन में उठेंगे।
दिमाग़ का दहीं हम अलग अर्थ में समझते है लेकिन दहीं के शोधन से जो मक्खन निकलता है उसके मूल्य और महत्व से हम भलीभाँति परिचित है। ठीक इसी प्रकार जब हमारी बुद्धि का शोधन होता है तब उसमें से शुद्ध विद्या प्रकट होती है। इसका मतलब जैसे दूध में मक्खन रहता हैं वैसे शुद्ध विद्या हमारी बुद्धि के भीतर रहती है।
हमारी बुद्धि खंडित है और जगत को खंड खंड कर देखती है, मेरे तुम्हारे में बाँटती है। व्यक्ति धर्म, पक्ष, जाति, लिंग, पद, प्रतिष्ठा के संकोचन से ग्रसित होकर छोटा बन जाता है। अहंता (मैं और मेरा) और इदंता (तुम, तुम्हारा) भेद बना रहता है। बुद्धि के इस संकोच की वजह से वह अपनी अभेद पहचान में न दाखिल हो सकता है न स्थित हो सकता है।
वास्तव में अहंता और इदंता दो अलग-अलग नहीं अपितु एक है। दोनों ही चित् प्रकाश है। अहं भी चित् प्रकाश और इदं भी चित् प्रकाश। बुद्धि जब अहंता और इदंता में ऐक्य मति साधेगी तब अखंड होगी, अखंड दर्शन को प्राप्त करेगी तब जाकर उसकी व्याप्ति होगी जिससे प्रमाता अपने स्वरूप की पहचान में अग्रसर होगा। यह शुद्ध विद्या का उदय है। जिससे हम परम शिव तत्व में अवस्थित हो जाएँगे। ज्ञात्री ज्ञान और ज्ञेय त्रिपुटी निर्विकल्प हो जाएगी। तीनों एक ही चिन्मय प्रकाशित हो उठेंगे। आत्मा का प्रकाश ही तीन रूप धरकर यह जगत क्रीड़ा में प्रवृत है, यह प्रमाणित हो जाएगा। आत्म प्रकाश की व्याप्ति।
बुद्धि निर्मल होगी तभी तो सब जगह आत्म प्रकाश को देखेगी। आत्म प्रकाश के शरीर दर्शन से यह संसार सुंदर बन जाएगा। खायेगा शिव। पिएगा शिव। चलेगा शिव। शिव के शिवा और कोई नज़र नहीं आएगा। पर शिव समावेश में सब भेद मिट जाएँगे और अभेद को प्राप्त होगा।
विशेष मिटकर जब वह सामान्य होगा तब यह घटित होगा। अत्यंत स्थिरता में गति और अत्यंत गति में स्थिरता को प्राप्त होगा। शिवरूप शक्ति और शक्तिरूप शिव, प्रकाशरूप विमर्श और विमर्शरूप प्रकाश की प्रत्यभिज्ञा करेगा। गंगा जल (ज्ञान) में डूबकी लगायेगा और ग़म-आगम पाकर खुद ही ज्ञान बन जाएगा।
बुद्धि की सामान्यता, निर्मलता और शोधन ही उपाय है शुद्ध विद्या पाने का। और शुद्ध विद्या के बिना साक्षात्कार (self realisation) नहीं।
अजब ग़ज़ब का खेल है। प्रत्यभिज्ञा होगी नहीं तब तक मानेंगे नहीं और प्रत्यभिज्ञा करने मानना ज़रूरी है। 😊
पूनमचंद
३० मई २०२३
0 comments:
Post a Comment