रसो वै सः।
रस ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।
वह रस रूप है। जो इस रस को पा लेता है वह आनंदमय बन जाता है।
रस आनंद है। जिसका आस्वादन किया जाता है, स्वाद लिया जाता है और जो प्रवाहित है।
चैतन्य घन कूटस्थ है। है बस। एक सुंदर पुरूष टुकुर-टुकुर देखता रहता है और करने के लिए ललिता सुंदरी रूप में प्रवाहित हो उठा है। स्पन्दायमान है।
जैसे एक काव्य में रस है और गन्ने भी रस है। दोनों के रस ग्रहण की इन्द्रियां अलग-अलग लेकिन ग्राहक एक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध की तन्मात्रा और उसके पदार्थों में जो रस द्रवित हो रहा है उस रस पर और रस के पान के आनंद पर हमारा ध्यान होना है। ऐसी कौनसी क्षण होगी जब हम पंचेन्द्रियों से इस रस का भोग नहीं करते? हर क्षण वह जोड़ी ललिता और शिव मौजूद रहते है। अगर उसकी मौजूदगी में डूब गये और खुद को खो दिये तो बिंदु को सिंधु बनने में देर नहीं लगती। परंतु अहंकार से भोग को ही योग मानकर पंचेन्द्रियों के विषय के प्रति भागना शुरू करके शरीर, मन, बुद्धि, प्राण के ह्रास में लग जाना बेईमानी होगी।
रस के आस्वादन को पकड़ते पकड़ते उस रसकेन्द्र को पकड़ लेना है जहां शिव और सुंदरी बैठे है। अपनी ही मुलाक़ात करनी है और फिर उसमें खो कर मस्त रहना है। फ़क़ीरी मस्ती भी रस रूप है। फ़क़ीर का अर्थ गरीब है लेकिन उसमें रस की अमीरी है।
जब मैं रस लेता हूँ तब शिव और सुंदरी आएँगे ऐसा नहीं। जब दूसरे भी रसास्वादन करते हो, वह मौजूद होते है। जब गाय और भैंस जुगाली करते हो तब उस रसानंद का अवलोकन कर उसका स्पर्श कर लेना।
रस सिर्फ़ हमारे अपने खाने से ही नहीं आता। शिवघेरा बड़ा करना है। हम तो सिसकी ले ले पर और वैश्वानरों पर से भी ध्यान नहीं हटाना है। रस को खोजो। यह संसार रस से भरा है। मदिरालय है।
सब जानते हैं कि खाने के बदले खिलाने का आनंद अधिक होता है। त्याग से भोगना अप्रतिम है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा। यहाँ कौन है, जो ईश नहीं? ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगतियां जगत्।
पूनमचंद
३० मई २०२३
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