स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट।
जैसे अगर सूरज की रोशनी नहीं होती तो यह पूरा विश्व हमारे लिए एक घोर अंधकार होता। लेकिन अघोर सूरज की रोशनी आते ही यह विश्व रंगोत्सव बन गया। पंच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) सक्रिय हो उठे और हम इस अस्तित्व को अन्न बनाकर उसके भोग में लग गये। लेकिन ऐसा करते करते भूल ही गये कि वह कौन सी रोशनी है जो इस अन्न को प्रकट कर रही है और उसका भोग लगा रही है।
अगर कमरें में पड़े सोफ़ा, टेबल, कुर्सी, कालीन, इत्यादि में सूरज को पहचान लिया तब तो चेतना ही चेतना नज़र आएगी। रोशनी पहले और वस्तु बाद में नज़र आएगी। अमेरिकन चित्रकार ऐन्ड्रु वेथ के चित्र में दरिया की समीर (breeze) पहले दिखेगी और खिड़की का पर्दा बाद में। मूर्त में अमूर्त प्रकट है। शास्त्रीय और सार समझना होगा तब प्रज्ञा का विस्फोट घटेगा। सबकुछ खुल जाएगा। फिर तो उसमें में ही चलना, उससे ही बोलना, उसको ही खाना, उसको ही खिलाना। कैसे उसे न पहचानूँ, जब सर्वत्र वही है।
अरूप में निश्चल चेतना और चलायमान रूप में यह पूरा विश्व। शिव शक्ति सामरस्य। यह विश्व उसकी ही अभिव्यक्ति है। पुरूष शक्ति बनकर प्रकट है। इसलिए हम सब तेरह से जो भी करते है, भोगते हैं उसका भोक्ता, भोज्य और भोजन भगवान ही है। वही सुवर्ण ज्योति की प्रत्यभिज्ञा करनी है। स्वयं की प्रत्यभिज्ञा करनी है। स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट सुविधा करेगी लेकिन ‘जय दुर्गे’ बोलकर निवाला हमें रखना है। वह दोनों जो हमारे माता पिता है, बुलाते ही प्रकट हो जाएँगे। पिता चुप है लेकिन माता उसकी खबरी बनी खड़ी है। अगर पिता ग़ायब हुए तो माता भी ग़ायब हो जाएगी। दोनों एक ही है लेकिन कर्ता और कर्म में विभाजित होकर दो दिखते है। अन्यथा अन्न भी वही अन्न भोक्ता भी वही। पहचान लो। स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट अभी खुली है। 😊
अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्। अहमन्नादो२ऽहमन्नादो२आहमन्नादः। अहं श्लोककृदहं श्लोककृदहं श्लोककृत्। अहमस्मि प्रथमजा ऋता३स्य।पूर्वं देवेभ्योऽमृतस्य ना३भायि।यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥(तैत्तिरीय.५)
मैं अन्न हूँ! मैं अन्न हूँ! मैं अन्न अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं 'श्लोककृत्' (श्रुतिकार हूँ! मैं श्लोककृत् हूँ! मैं श्लोककृत हूँ! मैं 'ऋत' से प्रथमजात हूँ; देवो के भी पूर्व अमृत के हृदय (केन्द्र) में मैं हूँ। जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद् यही है वेद का रहस्य।
रसो वै सः। वह रसरूप है। God is the essence of all we experience. रसं ह्येवायं लथ्यानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् व्य प्राण्यात्।
यदव आकाश आनन्दो न स्यात्। एव ह्येवानन्दयाति। भगवान रस—रूप है। उसी रस को पाकर प्राणी—मात्र आनंद का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्व—व्यापक आनंदमय तत्त्व न होता, तो कोन जीवित रहता और कोन प्राणों की चेष्टा करता? वास्तव में वही तत्त्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।
आनंद ही स्वातंत्र्य है। स्वातंत्र्य ही आनंद है। उसे खोजने की स्पन्दकारिका रेस्टोरेन्ट स्वयं है। स्वात्मा के प्रकाश को पहचानें और सर्वात्मा का दर्शन कीजिए जो सबके ह्रदय के भीतर बैठा है। चुप है लेकिन अंधा नहीं। सब की खबर रखता है। माँ की चोकी है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।भगी.4.24।।
{अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।।}
जय दुर्गे।
हर शिव।
पूनमचंद
२९ मई २०२३
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