हिलो मत।
हम शरीर नहीं है।
हम मन नहीं है।
हम बुद्धि नहीं है।
हम अहंकार नहीं है।
हम इन्द्रियवर्ग नहीं है।
हम इन सबके स्वामी चैतन्य है।
चैतन्य शांत है। स्वाभाविक है। अकृत्रिम है। सहज है। प्राप्य है। उसको पाने का कोई प्रयास नहीं करना है।
लेकिन शांत समुद्र में क्षोभ हो रहा है। कौन कर रहा है? शरीर बिना कारण, बिना जागृति हिल रहा है, भटक रहा है। अस्थिर है। क्यूँ। क्यूँकि अंदर से मन विकल्पों की जाल में उसे हिला रहा है, भटका रहा है। बुद्धि अपने निश्चय बदल रही है। अहंकार चोट खाता है और उपद्रव मचा रहा है। इन्द्रिय समूह अशक्त होता जा रहा हा लेकिन प्यासा है। यह चार नौकरों को जिसको राजा ने अपनी खेल क्रीड़ा में शामिल किया वही उन्हें नचा रहे है। सवारी राजा की निकलनी चाहिए, लेकिन नौकरों सवारी निकल रही है।
राजा है लेकिन राजत्व भूल गये है। सर्व ज्ञातृत्व और कर्तृत्व के धनी है लेकिन मन की मर्ज़ी से एक पत्ता भी हिला नहीं सकते।
क्या राजत्व वापस चाहिए?
क्या क्षोभ से मुक्ति चाहिए?
क्या नौकरों से छूटकारा चाहिए?
तो हिलो मत।
चैतन्य चंचल नहीं है। उसी में ध्यान की पाल्थी मार लेना है। प्रलीन होना है। मन तो रहेगा। बुद्धि भी रहेगी। अहंकार रहेगा। इन्द्रियवर्ग भी रहेगा। लेकिन आप उसमें जो आज हिलोरें ले रहे हैं वह बदल जाएगा। आप में वह हिलोरें लेने लग जाएँगे। आप के उपर नीचे होने में वह भी उपर नीचे होते रहेंगे। नौकर की तरह पुनः आज्ञाकारी हो जाएँगे। तब आप सहज होंगे। अकृत्रिम होंगे। तब जो सोचोगे वही घटेगा। सर्व ज्ञातृत्व और कर्तृत्व के स्वामी हो, वही होगा जो आप सोचोगे।
सावधान। विशेष स्थिति की कल्पना में मत लग जाना। जैसे बाक़ी सब निम्न रहेंगे और आप विशेष हो जाएँगे। त्रिकाल ज्ञानी। पूरी दुनिया जैसे आपकी सोच से चलेगी। ग़लत। आप सामान्य स्थिति को प्राप्त होंगे। पूरा अस्तित्व आपका अंग हो जाएगा। उसका हर ज्ञातृत्व कतृत्व आपका हो जाएगा। अभेद हो जाएगा। चैतन्यघन हो जाएगा। होगा क्या, है।
बस हिलो मत।
पूनमचंद
२५ मई २०२३
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