विवर्त।
विवर्त यानि भ्रांतिजन्य प्रतीति। कल्पित रूप।
जैसे रस्सी को रस्सी समझना सत्य है परंतु सर्प समझना भ्रांति है। इसी प्रकार नामरूपात्मक जगत भ्रांति है और ब्रह्म सत्य।
एक बार जगत को ब्रह्म (शिव) रूप में देख लिया फिर भ्रांति सब ग़ायब। सब कलह शांत हो जाएँगे।
लेकिन रस्सी के बदले सर्प रूप में देखते रहे, तो सुख दुःख, हानि लाभ, राग द्वेष, जन्म मरण के चक्कर में घुमते रहना और पीसते रहना पड़ेगा।
यह दिख रहा जगत परमात्मा का स्पन्द है। एक है, वही है। लेकिन उसको विभाजित करके देखना और खुद को भी उससे अलग- विशेष करके देखना अहंकार जनित भ्रांति है।
यहाँ न किसी की मौत है न जन्म। बस जैसे एक ज़िन्दा वृक्ष के पत्ते झड़ रहे हैं और नये लग रहे है, वैसे ही व्यक्त अव्यक्त यह सिलसिला चल रहा है। चैतन्य वृक्ष ज्यों का त्यों मौजूद ही रहता है। सदा सर्वदा नित्योदित। हमें अनित्य से हटकर नित्य में ठहरना है।
यहाँ सिर्फ़ एक ही लोक है। अद्वैत। वही परम धाम है। दूर कहीं और कोई जगह या स्थान नहीं जहां हमें एडवांस बुकिंग करानी है।
बंधन हमारी नासमझी का है। मुक्ति हमारी समझ बदलते ही उजागर हो जाएगी। सब मुक्त ही है क्योंकि सब शिव के स्पन्द है। बस अलग रहे तो पिट गये और विराट में मिल गये तो मिट गये। मिट गये मतलब समाप्त नहीं हुए लेकिन जीवरूप से शिवरूप हो गये।
पूनमचंद
२९ मार्च २०२३
💥“शाश्वत् सत्य 💥
ReplyDelete“हार्दिक आभार एवं सादर अभिवादन ।
ऐसे ही प्रेरक विचार संप्रेषित करते रहें।
बहुत ही श्रेयस्कर अनुभव गम्य जानकारी, आत्मसात करना ही एक मात्र साधन
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