शिव प्रमाता।
हम सब है तो प्रमाता, जो कि बोधात्मक संकोच से अबुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध और सुप्रबुद्ध श्रेणीयों में विभाजित है। परम की एक विश्वोर्तीर्ण शिवावस्था है और दूसरी विश्वमय चिति-शक्ति अवस्था। एक निःसंकोच स्थिति है और दूसरी बोधात्मक संकोच की। क्या हम जीवन के हर एक पल बोधात्मक संकोच का अनुभव नहीं करते है? शिव स्वातंत्र्य में चित, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया की असीम शक्ति है और सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह के असीमित कृत्य। परंतु बोध संकोच की वजह से हम सब इन सब शक्तियों और कृत्यों का अनुभव तो करते है परंतु सीमित परिपाटी पर। यही बोध संकोच को हटाने का नाम साधना है।
जो सीमित वाडे में बंद है वह पशु प्रमाता और जिसने अपने पूर्ण स्वातंत्र्य को पा लिया वह पति प्रमाता। पशु भी प्रमाता और पति भी प्रमाता। इसलिए शिव का एक नाम पशुपति है।
शिव शक्ति के सामरस्य को समझना, बोधात्मक संकोच को हटाना, अपने विश्वमय और विश्वोर्तीर्ण शिव स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा (पहचान) करना और उसकी अस्खलित स्पन्द लीला में एकरूप होने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
आओ हम सब मिलकर अपनी जीवन ज्योति के रहते उसकी पहचान करलें और स्वस्थ हो जाएँ।
🕉️ नमः शिवाय।
पूनमचंद
१८ मार्च २०२३
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