शिव संसारी।
शिव बिंब है जगत प्रतिबिंब का लेकिन प्रतिबिंब से अलग नहीं। साकार भी और निराकार भी। चिति शक्ति भी और परम शिव भी। देश काल से अतीत सदा सर्वदा नित्योदित। मनुष्य का मन चाहे विह्वल हो या निश्चल शिव स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं। मन चाहे डामाडोल हो या ध्यानस्थ, दोनों ही स्थितियों का प्रकाशक शिव शिवरूप ही है। मन से भागे तो भी शिवमय या मनचले रहे तब भी शिवमय। मछली दरिया में कितना भी तैर ले, पानीमय है। पानी नहीं तो फिर मछली कहाँ? शिव नहीं तो फिर मन कहाँ, तन कहाँ और यह संसार कहाँ? इसलिए जब अभेद की बैठक लगानी है तब यह तन, मन, बुद्धि, अहंकार की भेदरेखाओं को मिटाना होगा।
दो विकल्प सामने है। या तो संसार से उपराम होकर शिव में खो जाए। या मिले हुए साधन सरंजाम का उत्तम उपयोग कर शिव के संसारी रूप का भरपूर लाभ उठायें। दूसरा मार्ग पसंदीदा लगेगा क्योंकि इसमें कर्तव्य निभाने और संसार भोगने का अवसर है। यह शरीर, मन, बुद्धि सृष्टि कर्ता की योजना के अनुरूप काम न आए तो उसके होने का क्या लाभ? लेकिन सावधान रहिएगा। अगर कर्ताभाव आ गया, शिवभान छोड़ अहंभाव आ गया, तो फिर कर्मफल से छुटकारा नहीं। शिवमय होकर किये कर्म का कोई बंधन नहीं। अंदर बाहर हर स्थिति में शिव समाधि लगी रहे। शिव के सिवा यहाँ और कुछ है भी तो नहीं।
🕉️ नमः शिवाय।
पूनमचंद
२ मार्च २०२३
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