मन का क्या?
मन पर पता नहीं आजतक कितने रंग चढ़ गये? लिंग, जाति, धर्म, वर्ग, पद, प्रतिष्ठा, मान, अपमान, राग, द्वेष, इत्यादि। उस पर भी षडरिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य/ईर्ष्या) के आक्रमण चालु। कितना सावधान रहोगे? पल पल जैसे तलवार की धार पर चलना।
मन को ख़त्म नहीं करना है लेकिन उस परचढ़े उपर्युक्त रंगों से आज़ाद करना है। पहले सात्विक करना है, फिर अमना स्थिति में पहुँचना है। तब जाकर हम आत्मा के द्वार में प्रवेश कर सकते है। प्रविष्ट तो है ही, लेकिन पता नहीं चल रहा। फिर तो अपनी पहचान जैसे जैसे गहरी होती जाएगी स्वस्थता उतनी ही बढ़ती जायेगी। पहले मन या इन्द्रियों पर जीत असंभव लग रही थी, अब जैसे सहज हो गई।
लेकिन करेंगे कैसे? हर पल परीक्षा और हर पर नाकामयाब। कोई न कोई संस्कार, स्वार्थ, मान्यता बीच में आ ही जाती है।अपने मन का ठिकाना नहीं हो रहा, वहाँ दूसरों के मनों के विचार और क्रिया से जूझना पड़ता है। भाग भी नहीं सकते और छूट भी नहीं सकते। अपने शिव स्वरूप का पता नहीं और सब में शिव शिव दर्शन करना है। कुछ ऐसी ही डामाडोल स्थिति है न हमारे मन की? भेद टूटता ही नहीं।
श्रीकृष्ण समझ गये थे। अर्जुन को साफ़ सटीक उपदेश शुरू ही में दे दिया था लेकिन वह पूछता ही रहा। किसी एक बोध या पड़ाव पर रूक नहीं पा रहा था। मन के ज्वार भाटे में कभी वह श्रीकृष्ण शिक्षा में तो कभी सांसारिक मान्यताओं के बीच हिचकोले खा रहा था। श्रीकृष्ण ने आख़िर कह दिया की भाई साहब, आपके अकेले से कुछ नहीं बनेगा।
खुद ही करने लगेंगे तो खुद के अभिमान से पीछा कैसे छुटेगा? भोग के अभिमान से भागे तो त्याग के अभिमान ने पकड़ लिया । अज्ञानी से ज्ञानी होने चले तो ज्ञान के अभिमान में फँस गये। आप तो कहीं गये ही नहीं? एक छोटी सी कुटिया (शरीर) मिली है उसके दायरे में ही घुम रहे है। उस असीम की कृपा के बिना काम कैसे बनेगा? सब समुद्रों के जल की स्याही बना लें फिर भी उसका बयान नहीं लिख सकते, उस असीम की कृपा के बिना उसे कैसे पा सकते है?
आख़िर श्रीकृष्ण ने आख़री कुंजी दे ही डाली। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66॥
कहा, भाई साहब, आप अब सब धर्म (रास्ते-क्रिया-प्रयास) छोड़ मेरी (परमेश्वर) की शरण में आ जाओ। मामेकं शरणं व्रज, गीता का सार है।
जब अहं (छोटी मैं) समर्पित हो गई फिर मन, बुद्धि, इन्द्रियों को तो अपने आप शरणागत होना ही है। शरण कैसे होगी? छोटी ‘मैं’ को भक्ति के रंग में रंगना है। धीरे-धीरे मन के सब ज्वार भाटे अपने आप शांत होते चले जाएँगे। फिर मुझमें राम, तुझमें राम, सबमें राम समाया समझाना नहीं पड़ेगा। अल्लाह हू.. अनलहक का स्वाद आयेगा। पिता पुत्र और परमेश्वर की एकता नज़र आएगी। न जगत बदलेगा। न जगत के रंग ढंग। बस मैं की नज़र बदल जायेगी। सोने के गहनों में जैसे सोने को खोजने के लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता वैसे ही यह दृश्यमान जगत में चैतन्य को खोजना नहीं पड़ेगा। वही है। वही दिखेगा। मैं गया, तुं रहा।
हाँ, फिर भी साधक को मन सात्विक बनाने के प्रयास छोड़ नहीं देने है। उसकी कृपा बरस ही रही है लेकिन अपने बर्तन के छिद्रों को भरना तो पड़ेगा। शीशा साफ़ स्थिर और बोधि होने तैयार करना पड़ेगा। शीशे को तैयारी में रखिए और खुद को परम के हवाले कीजिए। तब जाकर कह पाएँगे, नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।। स्मृति बनी रहे, संशय समाप्त हो और उसकी आज्ञानुसार चलते रहे।
शिवकृपा से स्वस्थ हो।
🕉️ नमः शिवाय।
पूनमचंद
२८ फ़रवरी २०२३
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