विवर्त।
अध्यात्म शिक्षा में विवर्त शब्द का उपयोग अक्सर किया जाता है। वैसे तो यह शब्द का प्रयोग धोखा या भ्रांति के रूप में किया जाता है परंतु वेदांत उसे एक रूप या स्थिति छोड़कर दूसरे रूप या स्थिति में आना या होना समझा है। वेदान्त का यह मत या सिद्धान्त है कि परिवर्तनशील सारी सृष्टि है ज़रूर लेकिन वास्तव में मिथ्या है, उसका वास्तविक से हटकर जो रूप हमें दिखाई देता है वह भ्रम या माया के कारण ही है।
सृष्टि है इसलिए असत् तो नहीं कह सकते लेकिन प्रश्न यह है कि जो है वह वास्तविक रूप हमें दिखाई क्यूँ नहीं देता?
अगर सिर्फ़ रस्सी ही है तो साँप क्यूँ दिख रहा है? साँप का भय क्यूँ बना रहा है? अगर अमृत ही है तो यह मौत और मौत का ख़ौफ़ क्यूँ और किसे? एक है फिर अनेक क्यूँ नज़र आ रहा है? अभेद हैं फिर यह भेद जाल क्यूँ? यह मान अपमान, राग द्वेष क्यूँ? क्या पाने की दौड़ है? एक है अर्थात् सबकुछ मैं तब तो सब मेरा हुआ फिर यह कमी का अहसास या पाने की चाह क्यूँ?
इसी को माया कहा है जिसके पाश में सब मन बंधे हैं और कर्म के सिद्धांत के अनुसार इस संसार में गतिशील रहते है। चक्की की इस पिसाई में जिसे नहीं घुमना है उसे प्रयास कर चक्की के केन्द्र की ओर मुड़ना है और कील को पकड़ लेना है। चलती चक्की के पाटों के बीच कुछ दाने जो चक्की के कीले के साथ लगे रह जाते हैं, वे साबुत बच जाते हैं।
चलती चकिया देखि के, हंसा कमाल ठठाय। कीले सहारे जो रहा, ताहि काल न खाय।
मन का समर्पण विसर्जन जब तक उस आत्मरूप कील में नहीं होता तब तक उसका काल के मार से निकलना संभव ही नहीं।
दृष्टि कीं ख़ामी है। इसीलिए दृष्टि को बदलने की साधना है। गुरू दृष्टि पाने की साधना है। चमत्कार करने या सिद्ध बनने की साधना नहीं है। सिद्ध तो हो ही। समाधि तो लगी ही है। बस पता नहीं।
कश्मीर शैव दर्शन शिव को प्रकाश और शक्ति को विवर्त रूप में प्रायोजित कर यह जगत को चित शक्ति के विलास के रूप में दर्शाता है। दिख रहा सब शिव ही है लेकिन दृष्टि की कमी से हमें कुछ उलट नज़र आता है। इसलिए पहले चिति शक्ति के रूप में उसकी दृष्टि एकता करनी है और बाद में उस शिव परम में स्थिति करनी है। सकल से अकल की यात्रा करनी है।
प्रश्न होता है कि हमारे सम्मुख हाजरा हुज़ूर इस शिव को छोड़कर क्यूँ हम उपर गगन में किसी मंडल में, किसी भुवन में बैठे भगवान की कल्पना कर आराधना करते रहते हैं? जो सामने है उसे नज़रअंदाज़ क्यूँ करते है? किस रूप में वह नहीं आया? माता, पिता, भाई, बंधु, भगिनी, पत्नी, पति, पुत्र, पुत्री, पौत्र, पौत्री, दौहित्र, दौहित्री, बहु, दामाद, संबंधी, पड़ोसी, साथी, संगी, शिक्षक, मालिक, सेवक, किसान, मज़दूर, व्यापारी, सहायक, सहकर्मी, मित्र, शत्रु, पशु, पंखी, जीवजंतु, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ग्रह, उपग्रह, तारें, नक्षत्र, निहारिका, ब्रह्मांड, इत्यादि और खुद में…शिव ही शिव, ख़ुदा ही ख़ुदा।
प्रार्थना करें उस शिव को की हमें शिव दृष्टि प्रदान करें। शिव को जानना है फिर उसके प्राकट्य का विरोध क्यूँ और किसलिए?
🕉️ नमः शिवाय।
पूनमचंद
१७ फ़रवरी २०२३
Namaste Sir , very good life learning . Rgds, 🙏 Surender
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