साक्षात्कार।
साक्षात्कार हिन्दू रहस्यवाद की एक ऐसी स्थिति है जिसके बारे में अलग-अलग दर्शन और पंथ परंपरा चलती आई है। मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य पद के लिए सदियों से मनुष्य योनि लगी पड़ी है। जैसे ब्राह्मण दो प्रकार के होते है। एक धार्मिक ब्राह्मण और दूसरा आध्यात्मिक ब्राह्मण। धार्मिक ब्राह्मण वर्ण जन्म परंपरा के अनुसार धार्मिक विधि विधान और पूजा अनुष्ठान करवाता है। जबकि आध्यात्मिक ब्राह्मण ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण बनता है इसलिए वह कोई भी जाति, वर्ण और धर्म से हो सकता है।
साक्षात्कार भी दो प्रकार के होते है। एक शब्दों से साक्षात्कार और दूसरा अपरोक्ष साक्षात्कार।
सन २००० के आसपास की बात है। मेरे माता-पिता अहमदाबाद में रहते थे इसलिए में अक्सर उन्हें मिलने जाया करता था। हमारे पड़ोस में एक निवृत्त सरकारी अधिकारी कस्तुरभाई रहते थे। वह आध्यात्मिक ज्ञान के पिपासु थे। यही दिसंबर का महीना था। अहमदाबाद टाउनहॉल में एक सत्संग चल रहा था। वक्ता थे स्वामी तद्रूपानंद सरस्वती। कस्तुरभाई ने आग्रह किया इसलिए रविवार की उस सत्संग सभा में मैं और लक्ष्मी शामिल हो गये।
स्वामी तद्रुपानंद सरस्वती अद्वैत वेंदात के संत है और अपनी बात तर्कसंगत रखने के लिए प्रसिद्ध है। वह अपनी बात तर्कों और तथ्यों के आधार पर बलपूर्वक बुलंद आवाज़ में रखते है और अपनी बात समझाने स्टेज पर कुछ व्यावहारिक उदाहरण भी देते है। उस दिन बात चल रही थी घटाकाश और महाकाश की। वह एक मटकी ले आए और समझाया कि मटकी के अंदर का आकाश घटाकाश है और मटकी के बाहर का महाकाश। मटकी लेकर वह स्टेज पर इधर-उधर घूमे और बताया कि कैसे मटकी के साथ उसका आकाश भी बना रहता है। क्या आकाश भी मिट्टी की मटकी की तरह एक टुकड़ा होकर चलता है या अपने आप बस बना रहता है? फिर उन्होंने अचानक मटकी फोड़ डाली। मटकी मिट्टी के टुकड़ों में परिवर्तित हो गई। फिर उन्होंने ने सवाल पूछा कि मटकी का आकाश कहाँ चला गया? सब ने अपनी बुद्धि पर ज़ोर दिया और माना कि आकाश कहीं नहीं गया। वह तो ज्यों का त्यों अचल है। महाकाश था महाकाश बना रहा। सिर्फ़ मटकी जो अपने को घटाकाश रूप में देख रही थी वह नहीं रही। जिस मिट्टी से बनी थी उस मिट्टी में बिखर गई।
जीवित सृष्टि के शरीर भी कुछ इस मिट्टी की तरह है जो की पंचमहाभूत से बने है और मन बुद्धि अहंकार से संचालित हो रहे है। पर उनकी आकृतियाँ ठहरी है तो चिदाकाश में जिस की वजह से वे अपने आपको ज़िंदा समझकर जीवन व्यवहार करते रहते है। मनुष्य में कल्पना शक्ति, तर्क, विचार और बुद्धि की मात्रा अधिक होने की वजह से वह सृष्टि के रहस्यों को उजागर करने में लगा है।
तद्रुपानंद जी मटकी का उदाहरण देकर मनुष्य शरीर और आत्मा चैतन्य के वास्तविक रूप को समझाना चाहते थे। जिसको बुद्धि से समझ आ गया उनको लगा कि आज साक्षात्कार हो गया। मेरे भीतर का चैतन्य और बाहर का चैतन्य एक है। मेरे मरने से चैतन्य की मृत्यु नहीं होती। कितना सरल है यह शब्दों का साक्षात्कार।
लेकिन असली बात तो यह है कि जैसे गुड खाकर कोई कहे कि गुड का स्वाद कैसा है। सिर्फ़ गुड की व्याख्या कर गुड की मिठास को वह पा नहीं सकता, वैसे ही यह सूत्र मनन करने के लिए उत्तम है पर अनुभूत साक्षात्कार नहीं कर सकता। अनुभूत यह है कि जब अपरोक्ष रूप में घट चैतन्य और महा चैतन्य एकरूप हो जाए। अनुभव हो कि मैं सबमें हूँ और सब मुझमें। अनुभव हो कि यह दृश्य जगत के सभी प्राणी,पदार्थ, सूर्य, चंद्र, तारे, ग्रहों, नक्षत्रों सब मैं ही हूँ। सोहम्, तत्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि का अपरोक्ष अनुभव।
वेदांत दर्शन इसलिए दो कदम में पढ़ाई जाती है। एक तो खुद को शरीर, मन इत्यादि न मानकर चैतन्य आत्मा मानना है। आत्मा ब्रह्म इति निश्चितः। जब यह अभ्यास दृढ़ हो जाए तब बाहर के चैतन्य पिंड और अपने चैतन्य पिंड की एकता करनी है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। व्यावहारिक वास्तविकता और पूर्ण वास्तविकता का विवेक कर पूर्ण वास्तविकता में ठहर जाना है। और यह सब शब्दों से नहीं वास्तविक अनुभव की परिपाटी पर सही उतरना है।
सब शिव के ही रूप है यह शब्दों में सब समझ लेंगे पर सबमें शिवैक्य कोई विरला ही अनुभूत कर सकता है। उस अपरोक्ष अनुभव में स्थिति बनें यही शुभकामना।
पूनमचंद
५ जनवरी २०२३
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