क्या चाहिए?
क्या जानना है? क्यूँ जानना है? क्या चाहिए? जो है उसमें सुख नहीं है पर दूसरे को पास है वह मेरे पास नहीं उसका दुःख। जिसके पास है वह भी दुःखी।
इस पृथ्वी पर ३५० से भी अधिक मान्यताएँ होगी। सब घर का अपना अपना रंग और अपनी अपनी समझ।
कल मैंने एक जैन युवक (सेतुक) को सुना। वह २६ जनवरी को दीक्षा ले रहा है। संसार से उपराम कर अहिंसा, संयम और तप के जीवन में दाख़िला। वह जब बोला तब उसके उद्देश्य का पता चला। कह रहा था। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया? कहाँ जाना है? संपत्ति सुख दे रही है या संयम? विचार शुद्धि से व्यक्ति का भला है लेकिन आचार शुद्धि अनेकों पर असर करती है। काल रूपी बिल्ली कबूतर को दबोच लेंगी लेकिन भय से छूटकारा पाने के लिए कबूतर की तरह आँख बंद कर शांत हो जाना जवाब नहीं है। वह शांति पल दो पल की है। बाद में सब बिखर जाना है। जागकर उड़ान भरें तो जान बच सकती है। दानों के मोह जाल में फँसे एक कबूतर के उड़ने से जाल नहीं उड़ती परंतु सब अपने अपने पंख फड़फड़ायेंगे तो जाल समेत सब उड़कर बच सकते है। बस उसने अपने काका साहब का मार्ग चुन लिया। अहिंसा संयम और तप का। संवेदनशील हो गया वह। पानी के जीवों से। हवा के जीवों से। मनुष्यों से। और अपने आप से। जाग गया। उसने बंधन देखा। उस बंधन को काटने वह मुक्ति के मार्ग पर चल पड़ा।
इसलिए साधक को चाहिए पहले खुद संवेदनशील हो और पता लगाये के उसे क्या चाहिए। किसी बाबा की बातें सुनकर चमत्कारी या विशेष बनना है या तरंग मिटकर दरिया में समर्पित हो जाना है। ब्रह्म ज्ञान और सिद्ध होना दो अलग-अलग बातें है। ब्रह्म ज्ञानी सिद्ध हो सकता है लेकिन ब्रह्म ज्ञान के लिए कोई विशेष सिद्धि की आवश्यकता नहीं। उसके तीनों शरीर (स्थूल सूक्ष्म कारण) अपने अपने नियमों के अधीन ही होंगे इसलिए उसके शरीर के कष्ट, पीड़ा, प्रवृत्ति सामान्य जन की तरह होगी परंतु अंदर से वह जागा होगा। वह देख रहा है कि बाहर चल रही घटना के भीतर जिस भित्ति पर यह सब चल रहा है वह तो अखंड है, अचल है, विमल है और सत है। जो कि अपना स्वरूप है।
शनैः शनैः, अभ्यास से, श्रवण, मनन, निदिध्यासन से उस पद पर आसन लीजिए। एक बार आसन लग गया फिर कहीं जाने की और भटकने की ज़रूरत नहीं। गुरू दीया अंदर ही जल रहा है। अपने प्रकाश से उजागर करता रहेगा।
पूनमचंद
२५ जनवरी २०२३
पालीताणा (भावनगर, गुजरात)
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