Monday, January 2, 2023

स्वस्थ। स्वतंत्र।

 निराकांक्षी। स्वस्थ। स्वतंत्र। 


आज दोपहर हजाम की दुकान जाना हुआ। हजाम कुर्सी पर बैठा था और अपने आपको शीशे में निहार रहा था। मुझे देखते ही खड़ा हो गया और बैठने का रास्ता किया। मैंने भी बैठक ली और शीशे में झांकना शुरू किया। क्या देख रहा था वह? मुझे क्या दिख रहा है? भीतर पूरे चित्र दिख रहे थे। मैं बाहर बैठा था पर शीशे के अंदर भी मौजूद था। अंदर दूर तक बैठे, आते जाते लोग, चीज वस्तु सब दिख रहे था। रियल ही दिख रहे थे। रूप, रंग, चलायमान, जीवंत। लेकिन शीशा उन सबसे बेख़बर था। ज्यों का त्यों। न तो चित्र पात्रों से बदलने से परिवर्तित हो रहा था और न थी उसमें कोई हलचल। केसरिया आ गया तो केसरिया दिखेगा और हरा आ गया तो हरा। निस्पृह निराकांक्षी अचल। 


एक निर्जीव पदार्थ की यह स्थिति थी तब जो चैतन्य प्रकाश है उस शीशे पर चल रहे चित्र, व्यक्ति, पदार्थ, संसार का असर कैसे होगा? जो निरंग हो उस पर रंग कैसे चढ़ेगा? जो निस्तरंग है वह तरंगित कैसे होगा? जो असीम है वह सीमित कैसे होगा? शीशे के आरपार बने दृश्य जगत में फँस गया वो जिस पर यह सब प्रदर्शित हो रहा है उस स्व में स्थित कैसे होगा? 


कुछ अपने ही स्वातंत्र्य से ऐसा हो गया है। वह फँसना भी स्वातंत्र्य और उसमें से निकलना भी स्वातंत्र्य। 


गोपीनाथ कविराज के शब्द याद रहे? “वहाँ मन नहीं है, काल नहीं है, वह साकार नहीं है, निराकार भी नहीं है। अखण्ड अद्वैत सत्ता है। शुद्ध प्रकाश की विमर्श शक्ति एकाकार होकर प्रकाशित है। इसका नाम है पूर्ण तत्व जो तत्त्वातीत होते हुए भी परमतत्व है।”


वही तो है जो अपने आप से बेख़बर है। कौन? पहचान। 😊


पूनमचंद

२९ दिसंबर २०२२

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