ध्यान साधना।
साधना में अक्सर ध्यान पर ज़ोर दिया जाता है इसलिए किसी शांत जगह पर बैठ आँख बंद कर ध्यान करना सब से ज़्यादा प्रचलित है। ज़्यादातर ध्यानी साधक बंद आँख से नींद में चले जाते है, और फिर गहरी नींद की निर्विक्षिप्त स्थिति पर ही अटके रहते है। वैसा तो अनुभव गहरी निंद से उठकर हर सबेरे होता ही है।
ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। किसी एक विचार पर मनन और निदिध्यासन कर अपनी सोच, जीवन चर्या, व्यवहार, दृष्टि बिंदु में परिवर्तन लाना।
है तो बात बस एक पहचान की, ‘I’ की पहचान। लेकिन दो भूमिका पर हंमेशा उलझन बनी रहती है। दो ‘I’ को समझना ज़रूरी है। एक नीचे के स्तर की ‘I’ जो कि मन (mind) है और दूसरी उपर के स्तर की ‘I’ जो की आत्मा (pure consciousness) है।
बंधन कहाँ है? जहां तनाव है। तनाव मन की भूमिका पर है जिसमें इच्छा, राग, द्वेष, लालच, विरोध, क्रोध, काम, इत्यादि मनोदशा झुलतीं रहती है। जो निचले स्तर पर है। जब कि मुक्ति है स्वरूप स्थापना की है। उपर के स्तर की ‘I’ में स्थित होने की। इसलिए पूर्ण वास्तविकता (आत्मा) और सापेक्ष वास्तविकता (मन) के बीच के संघर्ष को समझ लेना ज़रूरी है। जैसे जाग्रत के दुल्हे की स्वप्न की दुल्हन से शादी नहीं हो सकती वैसे दोनों का मेल नहीं होना है। दोनों को अलग करके समझना है। जब तक अपनी पहचान शरीर और अंतःकरण (मन इत्यादि) तक सीमित है तब तक बंधन है। सीमित पहचान की वजह से उसे जीव कहा गया है। परंतु जैसे ही पहचान आत्मा बन जाती है तब सब उलझन समाप्त हो जाती है। मोक्ष या मुक्ति पानी नहीं है, बंधनरूप अनात्मा के बहाव से बाहर हो जाना है। साक्षी हो जाना है। आत्म स्थिति में कोई बंधन नहीं। यदा चित्तम् तदा बंधन। यदा चित्तम् न, न बंधनम्।
ध्यान आत्मा में स्थिति पाने के लिए है; जो कि उठते, बैठते, जागते, सोते हंमेश बना रहना चाहिए। मन के स्तर से उपर उठने के लिए कर्मयोग, फिर निष्काम कर्मयोग या कर्म समर्पित योग, गुण विकास की उपासना, फिर ज्ञान श्रवण, मनन और निदिध्यासन से उस बोध को बैठाना और बार बार उसे प्रयोग में लाते हुए अभ्यास से आगे बढ़ना ध्यान है।
ऋषियों ने ध्यान के लिए दृष्टांत दिये है। जैसे आत्मा को आकाश की उपाधि देकर घटाकाश उससे भिन्न नहीं है यह समझाया है। आगे जाकर जब आकाशरूप में स्थित हुए तो सब घट उसी आकाश में बैठे नज़र आएँगे। आकाशवत् अनंतोहम्। फिर किसका त्याग और किसका स्वीकार?
आत्मा को समुद्र की उपाधि देकर जीव-मन को तरंग या नाव की उपाधि दी गई है। तरंग उठते बैठते है, नावें चलती रहती है पर समुद्र निश्चल रहता है। जब समुद्ररूप स्थित हुए फिर कौनसी नाव और कौनसे तरंग की फ़िक्र करोगे।
अनंत, निरंजन, असक्त, अस्पृह, शांत, चिन्मात्र मुझ में क्या हेय (त्याग) और क्या उपादेय (प्राप्त)? सीप में रजत की भाँति शरीर और मन को जादुई भ्रम माना गया है। रजत नहीं, सीप यानि आत्मा का ध्यान होना है।
किसी कोने में आँख बंद कर बैठ जाना या प्रतिकूल स्थिति से दूर भाग अनुकूलन में जीवन का वक्त गुज़ारना साधना नहीं है। परंतु हर दिन जीवन जैसा है उसी में रहकर जीना है, और हर घटना विचार पर मनन कर मन आत्मा का विवेक कर आत्म स्थिति प्राप्ति का अभ्यास बनाये रखना ही ध्यान साधना है।
मन है तब तक बंधन है। अमना मुक्त है।
आकाश, समुद्र, सूर्य, सीप इत्यादि उदाहरण है समझ ने के लिए। उसमें और आत्मा में फर्क यह है कि आत्मा चैतन्य है। आगे जाकर सब एक, अद्वैत हो जाना है। परंतु मन के सीमित दायरे से उपर उठकर लघु “मैं” से निकलकर गुरू “मैं” की आत्मिक दृष्टि का विकास कर बंधन से मुक्त होना ही साधना ध्यान का परम हेतु है।
शुभम् भवतु।
पूनमचंद
१० दिसंबर २०२२
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