जीव और शिव।
जीव भूमिका पर यह जीवन तन मन का जोड़ है। मन रथी बना है और तन उसका रथ। दशरथ के पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ रूपी घोड़े है। इच्छा रूपी हवा से खींचता हुआ यह रथ अपने मनोराज की भूमि पर दौड़ता रहता है। रथ है इसलिए नया होगा तब खूब दौड़ेगा लेकिन जैसे उसका जोश उतरेगा वह कमजोर पड़ेगा और धीरे-धीरे मौत की छाया मे अदृश्य होगा। अगर शरीर रथ की अवस्था के साथ उसके मन ने समतुला नहीं बनाई तब तो शरीर को अधिक कष्ट होगा। मन की गति से वह भाग नहीं पायेगा और जल्दी ध्वस्त होगा। इसलिए हमारे यहाँ आयु को आश्रम में बाँटा गया है। शरीर की आयु के साथ मन को भी पुख़्तता विकसित करनी है। २५ साल तक पढ़ाई लिखाई तालीम लेगा। २५-५० अर्थ काम धर्म में रत रहेगा। ५०-७५ निवृत्त होकर शरीर प्रवृत्ति कम कर मार्गदर्शक की भूमिका निभायेगा और ७५-१०० शांत संतुष्ट होकर विश्रांति में जीवन पूर्ण करेगा। इस प्रकार शरीर के साथ मन को भी आयु पकड़नी है अन्यथा पूरानी गाड़ी को ड्राइवर ज़ोर लगाकर एक्सलेरेटर मारा करेगा तो गाड़ी को जल्दी ही रूक जाना है।
शिव चैतन्य भूमिका में न तो मैं शरीर हूँ न ही मन। शरीर रूपी रथ को मन रूपी लगाम से विवेक दृष्टि से चलाते चलाते अपने आप में ही स्थित रह कर अपने शांत, निश्चल, चैतन्य, शाश्वत, नित्योदित, स्वयंप्रकाश, निराकार, निरंजन, कूटस्थ, सर्वात्मक स्वरूप को पहचान कर उसी में स्थित रहना है। उसके बाद न कोई त्याग है न कोई ग्रहण। न कोई बंधन है न कोई मुक्ति। न कोई सुख है न दुःख। न कोई जन्म है न मृत्यु। न कोई कर्म है न कोई कर्म फल।साक्षी चैतन्य होकर तन और मन के खेल को बस देखते रहना है। नाटक का प्रेक्षक रंगमंच पर खेल रहे पात्रों को देखता रहेगा। वही तो है उस खेल के हर रूप में। आत्म देव ही तो बना है सब रूप। मैं, परिवार, मित्र, शत्रु, जगत, वस्तु, पदार्थ, इत्यादि, सब मेरे ही रूप, फिर किसका राग होगा और किसका द्वेष ? किस पर आसक्त रहूँ और किस पर अनासक्त? हो रहा सब संस्मरण या संसरण से अधिक कुछ नहीं। एक बार सब रूप में अरूप को पहचान लिया, सब आकारों का निराकार पहचाना गया, फिर खेल का विरोध या फ़रियाद चली जाएगी। पहचान लेगा कि जो जीता वह भी मैं और जो हारा वह भी मैं। जो सफल हुआ वह भी मैं और जो विफल गया वह भी मैं।अपने आप में स्थित होकर शांत होगा। जब जगत जागता (इच्छाओं के पीछे भागता होगा) तब वह सो जायेगा (शून्य चित्त), वस्तुओं के पीछे नहीं भागेगा। और जब जगत सोयेगा (अज्ञान की नींद) तब वह जागेगा (स्वात्मा स्वस्थ)। वह ब्रह्म में चरनेवाला ब्रह्मचारी होगा। उसी एक अटल में ही तो समस्त विश्व मंडल, सृष्टि उत्पन्न, स्थित और विसर्जित हो रहे है।
मन दौड़ेगा बाहर या अंदर पर कितनी देर? आख़िर थकेगा, देखेगा न बाहर दौड़के कुछ मिल रहा है न अंदर झांककर। छोड़ देगा सब और दिगंबर हो जाएगा। तब जाकर उसका विसर्जन होगा उस समष्टि चैतन्य में। वहाँ से फिर उस मन (इच्छा) को न कोई जन्म लेना हे न मृत्यु का अनुभव। बिंदु विसर्जित होते ही सिंधुत्व पा लिया। जीवत्व गया और शिवत्व जो था वही प्रकट हो गया।
अद्वैत अमरत्व-शिवत्व सबको प्राप्त ही है। बस पता नहीं।
शरीर की आयु लंबी करनी है तो मन को उसकी गति स्थिति के साथ समतुल्य करो और अमृत को पाना है पहचानो निज स्वरूप को। मूर्छित अवस्था से जागना है। बस नींद को हटाना है। इतना सा बस।
पूनमचंद
२३ दिसंबर २०२२
0 comments:
Post a Comment