तेरे अंजाम पे रोना आया।
अजीब है यह दुनिया, संसारी की मौत पर रोती है और संत के मृत्यु पर शांत रहती है या उत्सव मनाती है।
दो अर्थ कर सकते है।
एक तो जो सर्व सामान्य व्यवहार है। अपने रिश्तेदार के चले जाने का दुःख आँसू बन कर बहता है। संत तों विरागी है और पूरी ज़िंदगी समता का बोध दिया है इसलिए उनके जाने का ग़म कैसा?
संसारी का स्थूल शरीर मरता है। सूक्ष्म शरीर दूसरा स्थूल लेकर प्रकट हो जाता है। इसलिए वास्तव में वह मरा ही नहीं। संत के स्थूल सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर नष्ट हो जाते हैं और वह सुप्रीम चिति में विसर्जित हो जाते है।इसलिए उसकी वापसी की कोई संभावना ही नहीं।
अब किसके लिए रोना चाहिए?
जो आधा अधूरा मरा उसके लिए या जो पूर्ण रूप से मरा (मुक्त हुआ) उसके लिए?
इसके भी दो अर्थ कर सकते है।
जो मरा ही नहीं उस संसारी के लिए क्या रोना? वह तो वापस एक नया रूप लेकर प्रकट हो जायेगा। पर जो पूर्ण मरा, सब शरीरों से मुक्त हुआ, जिसकी बत्ती से और कईं मुक्त हुए और हो सकते थे उसके जाने का घाटा हुआ इसलिए उसके जाने का दुःख होना और रोना आना चाहिए।
दूसरा अर्थ यह भी ले सकते हैं कि जिस संसारी को जीवनभर मौक़ा मिला अपनी मुक्ति की राह पर चलने का लेकिन उसने वह मौक़ा गँवा दिया, बंधा ही रहा पाश में, पशु ही रहा। उसके व्यर्थ गँवाये जीवन पर रोना ही चाहिए। लेकिन जो विदेह मुक्त हुआ, जिसने अपने मनुष्य होने का जीवन सार्थक कर सुप्रीम चेतना में विलय पाया, उसने अपने आपको धन्य कर दिया, उसकी उस लक्ष्य सिद्धि का उत्सव मनाना चाहिए।
क्या करेंगे?
दूसरों की मौत पर रोयेंगे?
या खुद ऐसे चले की अपने जाने के बाद हमें खो देने के लिए लोग ग़म भी करें और हमारी लक्ष्य प्राप्ति का उत्सव भी मनाये।
पसंद अपनी अपनी। 😊🙏🌷
पूनमचंद
११ अक्टूबर २०२२
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