आत्मा अमर है अनात्मा मिथ्या।
आत्मा, शुद्ध चैतन्य का न जन्म है न मृत्यु। न उसे देश, काल, वस्तु का बंधन है; न अपूर्णता। एक, शुद्ध, पूर्ण, अचल, निराकार, कूटस्थ, चिद्रुप, नित्योदित, है। उसका होना ही होना है।
बंधन, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, आवागमन, अनात्मा की वार्ता है। उसे मन कहो, अंतःकरण कहो या शीशा। अपने संस्कारों की असर में वह रस्सी को साँप बना बैठा है। खुद ही जाल बुनता है, नई जालों की कल्पना करता रहता है, खुद ही जाल में फँसता है और फिर उस जाल से मुक्ति के लिए भटकता रहता है। उसे अपना रूप देखने शीशा दिया गया है लेकिन शीशे पर अशुद्धि जमी है, शीशा अस्थिर है और वह अपनी पहचान से वाक़िफ़ नहीं, इसलिए षडरीपु की चाल में चलता रहता है। अपनी मृगतृष्णा को तृप्त करने कपड़े की भाँति शरीर बदलता रहता है।
प्रश्न है कि अमर की पहचान करनी है कि मिथ्या की जाल को और बुनना है?
अगर अमर की पहचान कर लीं, तब तो अमरत्व, एकत्व, असंगत्व, पूर्णत्व प्राप्त ही है। फिर अनात्मा की कैसी परवा?
यह विश्व है, क्योंकि चैतन्य है। रस्सी है इसलिए साँप की भ्रांति है। यह विश्व सतत बदलता हुआ नज़र आता है, परंतु जो गया वह चित्र, पल फिर नहीं लौटता। इसलिए यह सत्य दिखते हुए भी असत्य है और इसलिए मिथ्या। जो सत्य है वह तो हूँ मैं, अटल, निश्चल, शांत, शुद्ध। यह उठती और बैठती तरंगें, यह बनते और बिगड़ते बुदबुदे, मैं ही हूँ। मैं चाहे दरियाँ बनु या तरंग, मेरा मुझसे कैसा बंधन और कैसी मुक्ति?
अमर हूँ। अमर हूँ। अमर। एकं नित्यं विमलं अचलं।
क्या करेंगे?
किसे पकड़ेंगे?
अमर या अनात्मा?
सत्य या मिथ्या?
चुटकी बजाके। 😊
पूनमचंद
७ दिसंबर २०२२
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