सिंहावलोकन।
हम मनुष्य है। मन हमारा प्रधान है जो चित्त में पड़े संस्कार और विचारों के आवन जावन के आधार पर राग द्वेष आधारित जीवन जीता है। अनुकूलन से सुखी और प्रतिकूलन से दुःखी होता है। षडरिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) का शिकार होता है।
कश्मीर शैव दर्शन न तो स्वर्ग नर्क की बात करता है, न पाप-पुण्य और जन्म मरण की। वह साक्षात्कार कराता है स्वरूप से। प्रत्यभिज्ञा (पहचान) साधना का परिणाम है, जो मुक्ति है। अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेना ही मुक्ति है।
क्या है सच्चा स्वरूप? नाम देने से सीमित हो जायेगा, अलग हो जायेगा इसलिए लक्षण से उसे लक्षित किया गया है।
ऐसा कौन जीव है (मनुष्य से लेकर पशु पक्षी इत्यादि) जिसे अपने होनेपन का एहसास नहीं? सब होनेपन को अनुभूत कर रहे है। एक कायम जागरण है, जिसके पट पर सब चित्र (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति, बचपन-जवानी-बुढ़ापा, जन्म-ज़रा-व्याधि-मृत्यु, राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सर, इत्यादि) चले आ-जा रहे है। पर वह निश्चलानंद हर हाल में नित्योदित वैसा का वैसा बना रहता है। न तो हानि से दुःखी होता है न लाभ से सुखी। हानि लाभ, जीवन मरण, यश अपयश उसको छू भी नहीं सकते फिर कैसे विचलित करेंगे?
बस उस तार पर ठहर जाये जिससे कपड़ा बना है, उस चलचित्र के पर्दे में पहचान कर ले जिस पर यह सारा खेल चल रहा है, बस मानो पहचान कर ली। फिर को पता लग जायेगा कि चित्रपट भी मैं और चित्र भी। मेरे ही इच्छा, मेरा स्वातंत्र्य। मेरी सृष्टि और संहार का मालिक मैं ही।
अब जब शुद्धात्मा के जागरण में स्थापित हो गये, फिर शरीर की पहचान कहाँ रही? क्योंकि जागरण असीमित है। अनंत ब्रह्मांड उसमें समाहित है। इसलिए व्यक्तिगत पहचान और अहंकार नहीं रहता। अगर है तो पहचान सच्ची नहीं। अगर वह नहीं है, तो सिर्फ़ हम ही हम है, दूजा कोई नहीं।
पूनमचंद
७ अगस्त २०२२
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