गुरू।
गुरू पूर्णिमा का पर्व नज़दीक (१३ जुलाई) है। आकाश में काले घने बादल उमड़ रहे है। वर्षा ऋतु अपने चरम की और आगे बढ़ रही है। पूर्णिमा का चाँद नज़र आने की संभावना कम है फिर भी आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन यह पर्व समग्र विश्व में जहां जहां भारतीय है बड़े उल्लास से मनाया जायेगा। भगवान वेद व्यास के जन्मदिन की व्यास पूर्णिमा ही गुरू पूर्णिमा है। यह घने बादल जीव को आवृत किये हुए तीन मलों (आणव, मायीय, कार्म) का प्रतीक है। आवरण के उस पार तो चाँद अपनी पूर्ण कला से सूरज की रोशनी को प्रतिबिंबित कर रहा है।
भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को दिव्य चक्षु देकर अपने असीम विश्वरूप विराट स्वरूप के दर्शन कराते है। अर्जुन भगवान के अद्भुत अनंत स्वरूप में अनगनित मुख, आँखें, भुजाएँ, उदर देखता है। उनके विराट रूप का कोई आदि और अन्त नहीं है और वह प्रत्येक दिशा में अपरिमित रूप से बढ़ रहा है। उस रूप का तेज आकाश में एक साथ चमकने वाले सौ सूर्यों के प्रकाश से अधिक है।भगवान के विश्व रूप को देखकर उसका हृदय भय से कांप रहा है और उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। भयतीत अर्जुन श्रीकृष्ण से उस पर दया कर उन्हें एक बार पुनः अपना आनंदमयी भगवान का रूप दिखाने की प्रार्थना करता है।श्रीकृष्ण उसकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए पहले अपना चतुर्भुज नारायण रूप और तत्पश्चात अपना दो भुजाओं वाला मनोहारी पुरुषोत्तम रूप धारण करते हैं।(११.१०-५५)।
भगवान को सूरज की उपमा दी है। जिसका रूप सीधे देखना किसी के लिए सहज नहीं। गुरू को चाँद बताया है। जो सूरज की उष्ण और दाहक किरणों को अपने में समेट कर भगवान के शीतल स्वरूप को उजागर करता है। जिससे कि साधक भय नहीं परंतु प्रेम और भक्ति से अपने इष्ट की उपासना कर सके।
गुरू किसलिए?
कश्मीर शैवीजम में सभी आत्मा शिवरूप है, बस खुद की मर्ज़ी से ज्ञान संकोच कर जीवरूप धारण किया है। अब जीवरूप से शिवरूप बनने में एक बड़ी बाधा आईं है। ज्ञान संकोच का संकल्प शिव का है, जिससे बना जीव उसे कैसे तोड़े? इसलिए जो शिवरूप में स्थापित हुआ है ऐसे गुरू के अनुग्रह और संकल्प की ज़रूरत रहती है जो जीव को पुनः शिवरूप में स्थापित करें। शिवरूप होने से गुरू में शिव की पंचकृत्यकारी शक्तियाँ आ जाती है। जिसमें से अनुग्रह से वह शिष्य का मंगल करते है। गुरू कृपा वैसे तो अविरत बहती रहती है पर साधक के अवस्था भेद से उसे कम या ज़्यादा लाभ होता है।
कौन है गुरू?
गुरूगीता में गुरू को परमेश्वर रूप माना है।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥
ब्रह्मा के आनंदरुप, परम सुखरुप, ज्ञानमूर्ति, द्वंद्व से परे, आकाश जैसे निर्लेप, "तत्त्वमसि" हि जिसका लक्ष्य है, अद्वितीय, नित्य, विमल, अचल, सब भावों से और त्रिगुण (सत्व-रज-तम) से परे है ऐसे सद्गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
गुरू व्यक्ति नहीं ज्ञान है जो साधक के ह्रदय में स्थापित होकर अपनी स्थिति का दान दे देते है।गुरू एक ही है। साधक को चाहिए बस समर्पण।
गु मतलब गुह्य (अंधकार) और रू मतलब दूर करने वाला (प्रकाश)। अज्ञान के अंधेरे से निकालकर हमें जो ज्ञान की रोशनी दें वही गुरू।
चार प्रकार के गुरू होते है। कल्पित, अकल्पित और दोनों के मिश्रित। कल्पित गुरू शास्त्र संमत क्रम से दीक्षा लेकर शास्त्र ज्ञान पाकर शुद्ध विद्या के मार्ग से होते हुए परानुग्रह अधिकार प्राप्त करता है। कोई कल्पित होने पर भी स्वतः प्रवृत्ति होकर रहस्यों को समझ लेता है। ऐसे गुरू कल्पिताकल्पित है।
अकल्पित गुरू के किसी गुरू की अपेक्षा नही। अपनी भावना से ही वह शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लेते है। महाज्ञानी प्रातिभ ज्ञान से साक्षात्कार कर लेते है। बौद्ध धर्म में श्रावक अनाचार्यक होते है। वह भीतर से ही ज्ञान पाते है। गुरू की अपेक्षा नही। साधक बिना गुरू बुद्धत्व को प्राप्त कर लेता है।
कुछ असद्गुरू होते हैं जो माया वर्ग में भोग तो दे सकते है परंतु दिव्य ज्ञान देकर माया से तार नहीं सकते। सद्गुरू ज्ञानान्जन शलाका से अज्ञान तिमिरान्ध दूर कर ज्ञान चक्षु खोल देते है। वह कृपापूर्वक दर्शन, स्पर्श या शब्द से शिष्य के देह में शिव भाव का आवेश करा सकते है। (योगवासिष्ठ, १.१२८.१६१)। गुरू युक्तियों से अपद्म को पद्म रूप में परिणत करके है। ऐसे सद्गुरू की प्राप्ति भगवान के अनुग्रह से होती है।
गुरू का महत्व।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय|
बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय||
संत कबीरदास जी गुरु की महिमाका वर्णन करते हुए कहते हैं कि जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तब गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरू को ही पहला प्रणाम करना चाहिए।
गुरू सिद्ध गुरू हो या दिव्य गुरू, मूल में परमेश्वर ही अनुग्राहक है। सद्गुरू में साक्षात परमेश्वर का दर्शन करना है।
गुरू खोजे कैसे?
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।
इस दोहे में कबीरदास जी ने शरीर की तुलना विष के बेल से की है वहीं गुरु की अमृत की खान से। वे कहते हैं कि अपना शीश देकर भी अगर गुरु की कृपा मिले तो यह सौदा बहुत ही सस्ता है। लेकिन चेतावनी भी देते है। ज्ञान और गुण देखकर गुरू कीजिए। ‘गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं। भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥’
सद्गुरू भगवद्कृपा का प्रासाद है।
गुरू से क्या चाहिए?
स्वरूप ज्ञान। मोक्ष। असली पहचान।
परंतु कुछ लोगों को ज्ञान चाहिए कुछ को भोग और कुछ को दोनों। सिद्ध योगी में यह दोनों देने की क्षमता है। लेकिन मोक्ष के लिए ज्ञानी गुरू ही उत्तम है।
गुरू एक नाव है। नदी पार करने काम तो आते है परंतु जब किनारा आ जाता है तब नाव को किनारे छोड़ आगे बढ़ना होता है। गुरू मार्गदर्शक है और ह्रदय में ज्ञानरूप से बिराजते है इसलिए गुरू शरीर के बंधन से मुक्त होकर आगे की यात्रा साधक को खुद करनी है। अपने आत्म स्वरूप की असली पहचान में स्थित होना है।
आत्मा तो केवल एक ही है। फिर उसे शिव कहो, गुरू कहो या जीव। बिंदु ही सिंधु है। बस जानने का और मानने का फ़र्क़ है। जैसे ही जीव भाव छोड़ा, अपना अहंकार समर्पित किया, स्वरूप ज्ञान हो गया। जब एक ही है फिर कौन अपना या कौन पराया।
बचपन में मेरे मोहल्ले में युपी से एक साधु आया करते थे और एक ही भजन गाते थे। शायद सूरदास के भजन प्रभु मेरे अवगुण चित्त न धरो से बना था।
“गुरू मेरे समदर्शी है, मैं मैला नदियाँ का नीर।
अगला पिछला पाप धोले तुं, उतरी जायेगा पार।”
श्रवण से शास्त्र ज्ञान आता है। चिंतन से चिंतन ज्ञान। परंतु तत्व विशेष के साक्षात्कार में भावनामय ज्ञान का उत्पन्न होना उत्तम माना गया है।
गुरू पूर्णिमा के इस पावन पर्व पर सब साधकों और शिक्षार्थीयों को अभिनंदन और सब गुरूओं (आध्यात्मिक, शैक्षणिक, जीवन पथ के मार्गदर्शक) को साष्टांग दंडवत् प्रणाम।
पूनमचंद
८ जुलाई २०२२
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