Monday, July 4, 2022

बिन्दु, त्रिकोण और आप।

 



बिंदु, त्रिकोण और आप। 


सृजन को हर धर्म ने अपने अपने अंदाज़ में बयान किया है। प्रजा अशिक्षित थी इसलिए उन्हें सरलता से समझाने प्रतीकों का प्रयोग भी किया गया। परिणाम स्वरूप बिंदु, त्रिकोण, चतुष्कोण, अष्टकोण या वर्तुल के स्वरूप में प्रतीक सभी धर्मो के जन जीवन में पूजा, पेंडेंट या चिह्न के रूप में प्रचलित हुए है।  


शून्य से सृजन हुआ? अव्यक्त से व्यक्त हुआ? कुछ तो हुआ है इस सृजन नींव में जिसके आधार पर यह ग्रह, तारें, नक्षत्र, निहारिकाए, अनंत ब्रह्मांड की रचना और उसमें भी ख़ास पृथ्वी पर जीवन का उल्लास पनप रहा है। वह शक्ति आँखों से ओझल है पर उसकी हाज़िरी उसके सृजन के माध्यम से प्रकट है। 


शैवों ने इस प्राकट्य को बिंदु और नाद से समझाया है। एक परम जो अव्यक्त है उसमें शिव चैतन्य के प्रकाश और उसकी शक्ति विमर्श (पंचकृत्यकारीः इच्छा, ज्ञान, क्रिया, निग्रह, अनुग्रह) 

से सदाशिव बिन्दु का एक स्पन्द, नाद रूप में प्राकट्य। उसमें से पहला ‘अहम’ ईश्वर और उसके बाद अनुक्रम से शुद्ध विद्या, माया, पंच कंचुक (कला, विद्या, राग, काल, नियति), आवरण, पुरूष, प्रकृति, अहंकार, बुद्धि, मन, पाँच कर्मेन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, घराना), पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (वाक्, हाथ, पैर, उत्सर्जन, उपस्थ), पाँच तन्मात्रा (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध), पाँच  महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) इस प्रकार ३६ तत्वों का यह विश्व। एक असीम के ज्ञान संकोच से यह सारा संसार बना है। सांख्य और अन्य दार्शनिक शाखाएँ उसे २४ या २३ तत्वों से गिनती कराते है। 


आत्मा/शिव चित् (प्रकाश)रूप है। उसका विमर्श शक्ति वाक्र-रूपा है।उसके गर्भ में अ से क्ष तक की मातृका शक्ति चक्र में सब ज्ञान निहित है। वह परा अवरोह क्रम से पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी बन भिन्न भिन्न सृजन को प्रकाशित करती है। शिव प्रकाश के चार अंश हैः अम्बा, वामा, ज्येष्ठा, रौद्री तथा वामा। शिव विमर्श की शक्ति के भी चार विमर्शांश हैः शान्ता, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया। उसका वाक् स्फुरण परा, पश्यन्ति, मध्यमा तथा वैखरी है। 


अम्बा-शान्ता-परा; वामा-इच्छा-पश्यन्ति; ज्येष्ठा-ज्ञान-मध्यमा; रौद्री-क्रिया-वैखरी इस प्रकार शक्ति आविर्भाव होता है जो सृष्टि विश्व की स्थिति का कारण है। यह चार प्रकार परस्पर मिलकर मूलत्रिकोण अथवा महायोनि के रूप में परिणत होती है।  शान्ता अम्बिका का सामरस्य परावाक् इस त्रिकोण का बिन्दु केन्द्र है जो नित्य स्पन्दन है और अभिन्न शिवशक्ति का आसन है। त्रिकोण की वाम रेखा पश्यन्ति, दक्षिण रेखा वैखरी और बेज रेखा मध्यमा है। यह त्रिकोण क्रम से शान्त्यतीत, शान्ति, विद्या, प्रतिष्ठा और निवृत्ति के पाँच आभामय स्तर से उज्ज्वल है। यह त्रिकोण के बाहर एक चतुष्कोण अंकित किया जाता है जिसे भूपुर कहते है। 


भूपुर से केन्द्र बिन्दु का साधना मार्ग है। जिस पर तांत्रिक साधनाएँ अपरोक्ष अनुभव तक की गति करा सकती है। इसी त्रिकोण के स्पन्दनो से अष्टकोण कल्पित है। 


योग मार्ग में मूलाधार के अग्निबिम्ब से क्रमशः स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत (सूर्यबिम्ब), विशुद्ध (चंद्र बिंब), आज्ञा, और उपर बिन्दु, अर्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिका, समना और उन्मना तक की; सकल से निष्कल तक का मार्ग है। उसके बाद महाबिन्दु सदाशिव जो शिवशक्ति का आसन है वहाँ चक्रवेध क्रम से पहुँचा जा सकता है। यह श्रीचक्र है। जिसके तीन विभाग हैः चतुष्कोण से त्रिकोण, बिन्दु से उन्मना और महाबिन्दु। भूपुर, षोडशदल, अष्टदल, चतुर्दशकोण, बाह्य दशकोण, आन्तर दशकोण, अष्टकोण और त्रिकोण इतना मूलाधार से आज्ञा तक के सुषुम्ना मार्ग में अवस्थित है। 


शिव अग्नि है, शक्ति सोमरूप। दोनों का सामरस्य बिन्दु जिसे रवि या काम कहते है। इसके क्षोभ (साम्य भंग) से सृष्टि का प्रारंभ होता है। अग्नि के ताप से जैसे घृत पिघलकर बहने लगे वैसे ही शिव प्रकाश अग्नि के विमर्शरूपा शक्ति स्राव से श्वेत और रक्त बिन्दु के बीच से चित्कला का निःसरण होता है। महाबिन्दु के स्पन्दन से तीन बिन्दु अलग अलग होकर रेखा रूप में परिणत होकर महात्रिकोण आकार धारण कर शिव से पृथ्वी पर्यन्त छत्तीस तत्वों से बने इस विश्व का आविर्भाव होता है। 


सृजन की शृंखला में पृथ्वी पर जड़ और चेतन समूह नज़र आते है। वास्तव में सबकुछ शिव का प्राकट्य ही है परंतु घन, क्षीण, स्वप्न और जाग्रत सुषुप्ति भेद से सब विभाजित नज़र आ रही है। उन सबमें मनुष्य शिरोमणी है। एक सुप्त चेतना ८४ लाख योनियों में से उत्क्रांत होते हुए मनुष्य रूप तक पहुँची है। इसलिए मनुष्य जीवन का बड़ा महत्व है। यही एक योनि अपनी बुद्धि, याद शक्ति और वाक् शक्ति के बल से बिन्दु की शब्दात्मिका वृत्ति को वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा (नाद) भेद से पहचान कर स्वर व्यंजन की अ-क्ष तक की मातृकाओं को मंत्र, वाक्यों, प्रार्थना में जोड़कर उस शक्ति की उपासना, आराधना करती है।जीवमात्र में यह शब्द व्याप्त है परंतु मनुष्य योनि में बुद्धि की विशेषता से ज़्यादा लाभ है। वह अपने स्वरूप पर लगे तीन मलावरणः आण्व, मायीय और कार्म मल से मुक्त होकर सर्वज्ञता और सर्वकर्तृत्व की भूली शक्ति को अर्जित कर सकता है।

चैतन्य की अभिव्यक्ति का यही रहस्य है, जो की आप ही हो।  


पहचाना? 


पूनमचंद 

४ जुलाई २०२२

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