विश्व गुरू।
कुछ साल पहले औरंगाबाद के मेरे एक प्रवास में एक मुस्लिम वृद्ध से मुलाक़ात हुई थी। वह कहते थे कि यह पृथ्वी एक परीक्षा खंड है जिस में जो जैसा करेगा उतना ही पायेगा। इसलिए मनुष्य जन्म मत व्यर्थ गँवाओ, परीक्षा की ठीक ठीक तैयारी करो और रब की बंदगी करो। भगवद्गीता और जैन कर्म सिद्धांत में कर्म और उसके फल की शिक्षा है। परंतु यह सब ज्ञान एक एक जीव को अलग अलग आत्मा में परिच्छिन्न कर उसकी भिन्न भिन्न यात्रा की सीख देते है। लेकिन वेदांत एक, अद्वैत आत्मा की शिक्षा देता है।
यह विश्व एक शिक्षालय (शिवालय कह दे) है जहां हर एक घटना हर, एक व्यक्ति हमें कुछ न कुछ शिक्षा देता रहता है जब तक हम अपनी सच्ची पहचान में अवस्थित न हो जाए।
देख तो सब रहे हैं पर सत्य कौन देख रहा है?
परमात्मा देखने की कुशलता प्राप्त करनी है। बस नजर-vision ही तो बदलनी है। वह vision गुरू दृष्टि से आती है।
गुरू एक नहीं अनेक होंगे पर बुद्धि को समझते समझते एक दिन जब टप्पा बैठ जायेगा तब काम होगा। यहाँ कोई व्यक्ति या देश के विश्व गुरू होने की बात नहीं, पूरा विश्व गुरू है जहां एक बच्चे से भी आत्म बोध मिल सकता है।
जब एक ही आत्मा है, तब यह विश्व उससे अलग कैसे होगा? बस हमारी नज़र ठीक नहीं देख रही। यह नज़र के लिए, समझ के लिए कौशल्य चाहिए जो गुरू दृष्टि या गुरू कृपा से मिलती है। पुनः पुनः श्रवण और मनन से, उस बोध को अंतःभाव में स्थिर करने से कुशलता आ जाती है। परमात्मा देखने की कुशलता।
सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाउउधुना । कुतश्चित् कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते ।।AG2.3॥
(अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है ॥३॥)
तीन-चार दृष्टांत दिये जाते है। रज्जु-सर्प, पानी-तरंग, कपड़ा-धागा, गन्ना-चीनी।
अज्ञान अवस्था में यह दृश्यमान विश्व हमें सर्प नज़र आता है जो जन्म, ज़रा, व्याधि, मृत्यु के दुःख से पीड़ित करता है क्योंकि कि हम देहभाव को सत्य मान जी रहे है। यह देहभाव ही सर्प है। जैसे हि ज्ञानदृष्टि से, निदिध्यासन से देहभाव त्याग दिया, आत्मा-चैतन्यभाव का रज्जुभाव आ गया। सर्प चला गया और सर्प से बनी सब पीड़ाएँ विभाजन ख़त्म हुआ। जब रज्जु देखता हूँ तो सर्प नहीं देखता। मैं वह आत्मा (पारमार्थिक सत्ता) हूँ जिसमें यह विश्व (व्यावहारिक सत्ता) व्याप्त है।
यथा न तोयतो भिन्नस्तरंगा फेनबुखदा: । आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ।।AG2.4।।
(जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है ॥४॥)
जैसे तरंग, फेन, बुदबुदा पानी से भिन्न नहीं वैसे यह विश्व मुझ आत्मा से भिन्न नहीं। यहाँ ‘I’ का मतलब consciousness है। यह विश्व, चैतन्य से अलग नहीं। पानी जैसे आत्मा है और विश्व जैसे तरंग, फेन, बुलबुले। जैसे पानी में बुदबुदे होते है इस तरह नामरूप से भिन्न और देश काल में बाधित यह विश्व वास्तव में पानी यानि चैतन्यात्मा ही है। एक ही अनेक दिख रहा है। आत्मा साक्षी, विभू (अधिष्ठान), पूर्ण, एक है, उस पर निदिध्यासन करतें रहे।
तंतुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारत ।
आत्यतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम् ।।AG.2.5॥
(जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है ॥५॥)
कपड़ा क्या है? धागा ही तो है। धागा नहीं तो कपड़ा कहाँ? अगर धागा निकल गया तो कपड़ा कहाँ रहा।यह उदाहरण में धागा नष्ट होने से कपड़ा नष्ट हो जाता है। परंतु आत्मा-विश्व के अस्तित्व में विश्व जाने के बाद भी आत्मा रहता है, क्योंकि आत्मा शाश्वत है।
विश्व आत्मा से ही उभरा है इसलिए वह भी आत्मा ही है। जैसे माँ से बच्चा पैदा होते ही माँ और बच्चा अलग हो जाते है। यहाँ ऐसा नहीं है परंतु रस्सी में साँप का प्रोजेक्शन हो जाता है हमारी बुद्धि में। साँप है ही नहीं, बुद्धि से कल्पित है। रस्सी ही है। आत्मा ही है। चिन्मय है। जैसे अन्नमय का अर्थ अन्न ही अन्न, प्राणमय का अर्थ प्राण ही प्राण, वैसे ही चिन्मय का अर्थ चैतन्य ही चैतन्य। विश्व आत्मा ही है, the Self।
यथैवेमुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तेव शर्करा । तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरतरम् ।।AG.2.6॥
(जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है ॥६॥)
गन्ने (इक्ष्वाकु) और चीनी का उदाहरण दिया जाता है। भगवान राम और जैन तीर्थंकरों के कुल को इक्ष्वाकु कुल कहा गया है। जैसे चीनी गन्ने के रस से भरी है, गन्ने की मिठास उस में प्रतिष्ठित है वैसे ही यह विश्व आत्ममय है। ‘I’ pervade the whole world। नई दृष्टि बनानी है। मैं जो देखता हूँ वह भी आत्मा है, वही सत्य है। जो सर्प दिख रहा था वह वास्तव में रस्सी है। यहाँ कोई अलग आत्मा, अलग विश्व नहीं, एक ही आत्मा है, और वह मैं (self) हूँ।
आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति आत्मज्ञानान्न भासते।
रज्जवज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद्भासते न हि॥AG.2.7)
(आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है । रस्सी अज्ञानवशसर्प जैसी दिखाई देती है, रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है ॥७॥)
यक़ीन करिए। यही सत्य है। यही वेदांत सार है।
बस इतना करिए कैसे करके यह बोध बैठ जाये।
जो यह बोध बैठा दे वह गुरू, चाहे एक या अनेक। आख़िर तैरना तो आपको है अपनी प्रातिभ सत्ता से। आपके गुरू आप ही है। न फिर धारी चाहिए न फ़्लोटर। आप बस तैर रहे है। निराधार।
पूनमचंद
१६ जुलाई २०२२
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