अष्टावक्र गीता (१.१४)
देहाभिमानपाशेन चिरंबद्धोऽसि पुत्रक।बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥अ.गी.१-१४॥
ऋषि अष्टावक्र शिष्य जनक को उपदेश देते हैं कि देहाभिमान ही वह पाश है जो बंधन का कारण है। मैं बोध (ज्ञान) हूँ ऐसे ज्ञान खड्ग से उस बंधन को काट कर सुखी हो।
मैं पुरुष हूँ। मैं स्त्री हूँ। मैं इस जाति का उस जाति का। मैं इस धर्म-पंथ का उस धर्म-पंथ का। यह सब उपाधि पहचान है। क्या शरीर कहता है कि मैं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य या शुद्र हूँ? जो शरीर नहीं है परंतु चेतना है वह कैसे अपने को शरीर कहेंगीं?
चार चीजें समझ लें। बाल्टी, बाल्टी का पानी, पानी में सूर्य का प्रतिबिंब और सूर्य। बाल्टी स्थूल शरीर है, बाल्टी का पानी मन बुद्धि रूप सूक्ष्म शरीर, उसमें रही चेतना समष्टि चेतना का परावर्तन है और चौथा वह वास्तविक सूर्य-चेतना (pure consciousness)।
कौन है आप? बाल्टी? बाल्टी का पानी? पानी में सूर्य प्रतिबिंब? या सूर्य?
अब जिसे अपनी असली पहचान का पता नहीं और बस बाल्टी पर ही रूक गये उनको सूर्य तक कैसे पहुँचाएँ। अभी जिनका ध्यान शरीर जाति, संख्या, धन संपादन, फैलाव पर से हटा नहीं, वह अपने विशुद्ध आत्मरूप स्वरूप तक कैसे पहुँचेंगे?
उनका वह लक्ष्य नहीं। अनात्म में आत्म बुद्धि करनेवाले इसलिए धनवान हो सकते है, बुद्धिमान हो सकते है, सत्तावान हो सकते है परंतु सुखी नहीं।
सुख का मतलब यहाँ पद धन स्त्री पुत्र इत्यादि नहीं परंतु अव्यय (कभी कम न हो), अभव (कभी चला न जाय), पूर्ण (all complete) है। जो कि कूटस्थ चिद्रुप स्वयं प्रकाश है।
पूनमचंद
११ जुलाई २०२२
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