महायज्ञ।
हिन्दु धर्मशास्त्रो में अग्नि का बड़ा महत्व है। अग्नि से जीवन की शुरुआत है और अग्नि में अंत। आरोग्य और जीवन रहस्योद्घाटन भी अग्नि में है। इसलिए यहाँ यज्ञों का बड़ा महत्व था। अग्नि की ज्वालाओं को सात जिह्वा गिनकर उसमें आहुति देने का बड़ा महत्व रहता था। इस सात जिह्वाओं के सात नाम भी दिये गये थेः हिरण्या, कनका, रक्ता कृष्णा, सुप्रभा, अतिरिक्ता। आहुति से और आहुति के प्रकार से फल निष्पन्न होता था। यज्ञों में सोमयाग, वाजपेय, राजसूय और अश्वमेध प्रधान थे।
हम भी एक अग्नि पिंड है। जठराग्नि में भोजन की आहुति देकर अपनी जीवन रेखा को काल से बचा रहे है। आयुर्वेद में अग्नि के सात स्तर और हर स्तर के सत्व (धातु) और मल का बड़ा बारीकी से अवलोकन है, और इन्हें एक निश्चित क्रम में रखा गया है।
हम जो भी खाना खाते हैं वो पाचक अग्नि द्वारा पचने के बाद कई प्रक्रियाओं से गुजरते हुए अनुक्रम से रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, सप्तधातुओं में बदल जाती है। ये सारी धातुएं एक क्रम में हैं और प्रत्येक धातु अग्नि द्वारा पचने के बाद अगली धातु में परिवर्तित हो जाती है। जैसे कि जो आप खाना खाते हैं वो पाचक अग्नि द्वारा पचने के बाद सबसे पहले रस अर्थात प्लाज्मा में बदलता है। इसके बाद प्लाज्मा खून में और फिर खून से मांसपेशियां बनती है। मांसपेशियों से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा, इसी तरह यह क्रम चलता रहता है। सबसे अंत में शुक्र अर्थात प्रजनन संबंधी वीर्य-शुक्राणु आदि बनते हैं। इस क्रम में जो अपशिष्ट बनता है जिसका शरीर में कोई योगदान नहीं वो मल के रुप में शरीर से बाहर निकल जाता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए शरीर में पाचक अग्नि का ठीक होना और सप्तधातु का बनना बहुत ही ज़रूरी है।
अन्न की शुद्धि क्रिया से बना शुक्र जीवन केन्द्र है। यह अधोगामी होकर कालाग्नि कुंड (योनि) में गिरता है, तो नये जीवन को जन्म देता है, परंतु दाता के जीवन को ह्रास कर जरा, मरण, विकार, मालिन्य देता है। लेकिन वही बिंदु अगर शुद्धीकरण यात्रा चालु रखें और ऊर्ध्वगति सिद्धि क्रम से आगे बढ़े तो आनंदमय स्थिति को प्राप्ति करता है। इसके लिए बिंदु की क्रमोत्तर द्वितीय अग्नि में आहुति का बड़ा महत्व है।
हम पाँच कोषों (शरीर) से बने हैः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय। हम जो कुछ खाते है उसके शोधन से शुक्र-वीर्य बनता है। देह का प्रथम अमृत वीर्य है जो अन्नमय कोष का पोषक है। वीर्य शुद्ध होकर ओज बनता है जो प्राणमय कोष का पोषक है। ओज शुद्ध होकर मनोमय को पुष्ट कर निर्मल ओज मन बनता है। पर मन में अशुद्धि रहती है इसलिए उसके विकल्परूपी मल की आहुति देकर संकल्प का विज्ञान बनता है। विज्ञान से विज्ञानमय कोष की पुष्टि होती है। विज्ञान में अनुकूलता का सुख और प्रतिकूलता का दुःख (मल) होता है। इसलिए विज्ञान की आहुति देकर पंचम आनंद प्राप्त होता है। आनंदमय माँ की गोद है जहां फिर कोई आहुति की ज़रूरत नहीं।
यहाँ शुद्धीकरण ही धर्म है और कल्याण मार्ग है इसलिए आहार शुद्धि, देह शुद्धि, इन्द्रियशुद्धि, अहंकारशुद्धि और चित्तशुद्धि का महत्व है। कर्म स्वार्थ के लिए नहीं अपितु परार्थ हो; जिससे नया आवरण न बनें और पहले का आवरण क्षीण हो। जिससे क्रमशः महाज्ञान (स्वरूप ज्ञान) की प्राप्ति हो। वही यज्ञ है।
ज्ञानगंगा में स्नान करें और ज्ञानाग्नि में मल विसर्जित करें। आप शुद्ध बुद्ध हो। बस असली पहचान करनी है और उस असलियत में स्थित रहना है। खाने से गाने (आनंद) तक का सफ़र है।
सब का कल्याण हो।
पूनमचंद
३ जुलाई २०२२
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