मनुस्मृति-१
आचारः परमो धर्मः।
मनुस्मृति ने मनुष्यों का चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) में विभाजन किया है। हर एक वर्ण के आचार निहित किये है और आचरण को ही धर्म बताया है। कहीं पर यह नहीं बताया कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शुद्र का शुद्र बनेगा। जन्म से तो सभी शुद्र है जो जोड़े के संभोग से स्थापित होते हैं और रस रक्त से पोषित होकर योनि मार्ग से बाहर आते है। आचरण ही उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र बनाता है।
अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना-करवाना, दान देना-लेना ब्राह्मण कर्म है। प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयों से अनासक्त रहना क्षत्रिय कर्म है। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, व्यापार करना, सूदखोरी और कृषि वैश्य कर्म है। तीन वर्णों की बिना ईर्ष्या सेवा करना शुद्र का कर्म है।
मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ब्राह्मणों के कर्म विवेक के लिए है इसलिए वह ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की बात करती है। श्रेष्ठता आते ही ऊँच नीच लागू हो जाता है और मनुष्य जाति का विभाजन हो जाता है।
मनुस्मृति बताती हैं कि चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के अंग से अनुक्रम से ब्राह्मण की मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्य की जंघा से और शुद्र की पैर से बताई गई है। फिर नाभि के उपर के भाग को अच्छा मानकर मुख सबसे उपर होने से मुख से जन्मे ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया है।देवों, कव्यो और पितृओ के उन्हीं के माध्यम से आहुति पहुँचती है। मुख आ गया और मुख से भोजन इसलिए ब्रह्म भोज की बड़ी महिमा रही है।
सब भूतों में प्राणी को, सब प्राणियों में बुद्धिमान प्राणी को, बुद्धिमान प्राणियों में मनुष्य को और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ बताया है। ब्राह्मणों में विद्वान, विद्वानों में सिद्ध बुद्धिवाला, सिद्धौ में आचरण निष्ठ, और आचरण निष्ठ में ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्म को जाननेवाला) श्रेष्ठ है। यानि योनि से बाहर आकर ब्रह्मज्ञानी होने तक ही यह यात्रा है।
आगे बताते हैं कि ब्राह्मण जन्मते (बनते) ही पृथ्वी का अधिपति होता है। इस जगत में जो भी कुछ है वह श्रेष्ठ होने से ब्राह्मण का है। इसलिए ब्राह्मण खुद का खाता है, खुद का पहनता है, खुद का देता है और दूसरे सब उसकी कृपा से भोगते है।
औसतन हर श्लोक की हर लाईन १८-१९ अक्षरों से बनी है। यह कहा जाता है कि अगर श्लोक में एक अक्षर की भी बचत हो जाए तो रचयिता ख़ुशी से झूम उठता है। फिर श्लोक नंबर १०८ में चूक कैसे हुई? दूसरी लाइन २३ अक्षरों की बन गई।
आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।
तस्मादस्मिन्सदा युक्त्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।। (मनुस्मृति १.१०८)
अर्थात् श्रुति (वेद-वेदांत) और स्मृति में दर्शाया आचार ही परम धर्म है। इसलिए नित्य आत्मवान को आचार में युक्त रहना चाहिए। यहाँ आत्मवान में द्विज शब्द बाद में जोड़ा दिखता है। क्योंकि कि आगे जाकर द्विज को ही शिक्षा का अधिकार प्राप्त है जिससे शुद्र जन्मा हर मनुष्य उर्ध्व आचरण से, कर्म से, गुण विकास से ब्राह्मण बन सकता है और उच्चतम ब्रह्मज्ञानी स्थिति को पा सकता है।
मनुस्मृति एक आचरण विधान है जिसमें जगत की उत्पत्ति, गर्भाधानादि संस्कारों की विधि, ब्रह्मचारी के व्रत, सेवा, उपचार; स्नान विधि, शादी-विवाह, यज्ञ और श्राद्ध का निरूपण है। हिन्दु संस्कृति इसी ग्रंथ के आसपास ही विकसित हुई है।
पर एक बार तो तय है कि बिना ब्रह्मज्ञान कोई ब्राह्मण हो नहीं सकता।
ज्ञान लीजिए और खुद को टटोल लीजिए।
पूनमचंद
२१ जून २०२२
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