बुद्ध पूर्णिमा बधाई।🪷🌕
“खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं"
बौद्धों ने आत्मा को माना या नहीं माना यह स्पष्ट नहीं है। ईश्वर को नहीं माना परंतु संसरण और पूर्व जन्म और पुनर्जन्म को माना है।
संसरण से ही तो संसार बना है।
किसका संसरण हुआ? कोन बंधन में है? कौन मुक्त हुआ। प्रश्न स्वाभाविक है।
वैशाख पूर्णिमा की मंगलमयी रात को बोधिवृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हुए।अज्ञान से निवृत्त होकर प्रज्ञान की रश्मियाँ को प्राप्त हुए। सूक्ष्म से सूक्ष्म आंतरिक क्लेश मैल सब दूर हुए और विमल धर्मच़क्षु प्राप्त किये। कर्म बंधन टूट गये और चित्त बंधन मुक्त हो गया। मन वितृष्ण हो गया। मोह (मूढ़ता), माया (मरीचिका), विभ्रम (विपल्लास) का कुहरा गया। सत्य का साक्षात्कार हुआ।
विमुक्ति रसास्वादन करते हुए बुद्ध के मुँह से परम उदान शब्द हृदय से निकले। (परावाक्)।
अनेकजातिसंसारं सन्धाविस्सं अनिब्बिसं । गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।
गहकारक ! दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि। सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसडृतं । विसड्रृारगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झागा ।।
{(इस काया - रूपी) घर को बनाने वाले की खोज में (मैं) बिना रुके अनेक जन्मों तक (भव-) संसरण करता रहा, किंतु बार बार दुःख (-मय ) जन्म ही हाथ लगे। ऐ घर बनाने वाले ! (अब ) तू देख लिया गया हैं, (अब) फिर (तू) (नया) घर नहीं बना सकता। तेरी सारी कड़ियां टूट गयी हैं और घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया हैं । चित्त पुरी तरह संस्काररहित हो गया हैं और तृष्णाओं का क्षय (निर्वाण) प्राप्त हो गया है।}
बुद्ध को ऐसी सम्यक सम्बोधी प्राप्त हुईं सारी सच्चाई आंखों के सामने आ गयी। देख लिया उस घर बनाने वाले को और सामग्रियों को। जब सामग्रियाँ ही नष्ट कर दी फिर किससे बनेगा घर? संस्कारों से विहीन चित्त परिशुद्ध हुआ। काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा गई।
कौन था यह घर बनाने वाला?
देवपुत्र मार (मृत्यु राज)।
कौन हैं यह मार?
हमारे अंतर्मन में समाए हुए सभी प्रकार के कुत्सित संस्कारों का व्यक्तिकरण ही तो मार है।
जो बार-बार हमारे लिए नया-नया घर बनाता रहता है। नए-नए जन्म द्वारा नया-नया शरीर उत्पन्न करता रहता है।
बुद्ध के लिए मार लाचार हो गया। घर बनाने की सारी सामग्री यानी सारा पूर्व संचित संस्कार ही छिन्न - भिन्न हो गया। नया संस्कार बनाने वाली सारी लालसाएं जड़ से उखड़ गयी।
भूतकाल के संग्रहीत संस्कार और भविष्य के प्रति जागने वाली तृष्णाएं ही तो हमारे लिए नए-नए भव का कारण बनती है। ये दोनों खत्म हो जायँ तो नया भव बनना रुक जाय । आग का जलावन समाप्त हो जाय तो आग अपने आप बुझ जाय। बिना जलावन आग किसको लेकर जले?
“खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं"।
(पुराना क्षीण हो गया, नया बन नहीं रहा।)
यहीं तो विमुक्त - अवस्था थी।
यही तो सम्यक सम्बोधि थी उस बोधिसत्व की।
यही तो अंधकार पर प्रकाश की विजय थी।
मृत पर अमृत की विजय थी।
असत पर सत की विजय थी ।
बुद्धं शरणं गच्छामि।
पूनमचंद
१६ मई २०२२
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