Monday, June 27, 2022

श्रद्धावानम् लभते ज्ञानं (गीता ४.३९)

श्रद्धावानम् लभते ज्ञानं, संशयात्मा विनश्यति। 


श्रीमदभगवद्गीता के चौथे अध्याय ‘ज्ञानकर्मसंन्यासयोग’ के श्लोक ३९ और ४० में से एक एक वाक्य उठाकर बना बोध वाक्य बड़ा प्रचलित है। 


जवाब चल रहा है अर्जुन के तीसरे अध्याय के प्रश्न का कि मानुष न चाहते हुए भी मजबूरन किसकी प्रेरणा से पाप करता है? 


भगवान उसका जवाब देते हुए रजोगुण से उत्पन्न काम को कारण बताते है। जैसे धुम्रअग्नि का मैल दर्पण को ढक देता है वैसे ही काम ज्ञान को ढक देता है।उस कामरूपी शत्रु को मारने की सलाह देते हुए भगवान आगे चौथे अध्याय में अविनाशी योग की बात करते है, जो उन्होंने पहले सूर्य को, सूर्य ने वैवस्वत मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु राजा को कहा था। 


अर्जुन पूछता है आप तो अभी जन्मे है फिर सूर्य को कैसे कहा? 


भगवान बताते हैं कि मेरे और तुम्हारे कईं जन्म हुए हैं, तुम नहीं जानते पर मैं जानता हूँ। अजन्मा अविनाशी और सब के ईश्वर होते हुए भी मैं प्रकृति के अधीन योगमाया से साधुपुरूषो के उद्धार, पापकर्म करनेवाले का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए प्रकट होता हूँ। 


जो मनुष्य मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसे तत्व रूप से जान लेता है वह पुनर्जन्म नहीं, मुझे पाता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे में अनन्य प्रेम और मेरे आश्रित साधकों ने ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को पाया है। 


आगे गुण कर्म भेद से चातुर्वर्ण्य, कर्म अकर्म, कर्मबंधन से मुक्ति की बात करते हुए भगवान कहते हैं कि कामना और संकल्प के बिना किये कर्म ज्ञानाग्नि में भस्म हो जाते है। इसलिए कर्मफल की आसक्ति त्याग कर, नित्य तृप्त, आश्रय रहित, शरीर धर्म के कर्म करें तो भी पाप नहीं करता। 


ब्रह्माग्नि में अभेद दर्शन करते हुए विषयों को संयमरूपी अग्नि में आहुत करके हुए आत्मसंयम योगी; अष्टांग योगवाले, अहिंसा आदि व्रतवाले, प्राणायाम करनेवाले, यह सब यज्ञों से कर्मबंधन मुक्त होकर सनातन ब्रह्म को पाते है। 


लेकिन द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ उत्तम है। इसलिए निष्कपट होकर ज्ञानी महात्मा से तत्वज्ञान का उपदेश ले। “उस ज्ञान से तुम सब भूतों को पहले अपने में, और फिर सब को मेरे (परमात्मा) में देखेगा”। 


सब से बड़ा पापी भी इस ज्ञानरूपी नौका से पापसागर को तर जाता है। जैसे अग्नि काष्ठ को भस्मीभूत करता है वैसे ज्ञानाग्नि समग्र कर्मो को भस्म कर देता है। ज्ञान जैसा पवित्र और कुछ नहीं। 


ऐसे आत्मज्ञान को श्रद्धावान, तत्पर और संयत इन्द्रियोवाला (faith, devotion and self control) प्राप्त कर लेता है। जिसे पा कर वह परम शांति (supreme peace, absolute happiness, सब दौड़ का अंत) को प्राप्त कर लेता है। 


लेकिन जो अज्ञानी है, अश्रद्धालु है, संशयी है उसका विनाश यानि पतन होता है। ऐसे संशयी मनुष्य को इस लोक या परलोक में सुख प्राप्त नहीं होता। वह उपर दर्शाये परम शांति को नहीं प्राप्त कर सकता।  


इसलिए हे भारत, तुम ह्रदय (स्थूल ह्रदय नहीं अपितु जहां प्रेम और सद्भाव है) में रहे अज्ञान जनित अपने संशय को ज्ञान तलवार से चीर कर उठो। 


अर्जुन उठ गया, आप भी उठें। 


पूनमचंद 

२७ जून २०२२

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