एक सवाल।
धर्म की खोज मुक्ति के लिए थी।
किससे मुक्ति?
दुःख से।
दुःख क्यूँ है? कुछ तो कारण होगा?
एक ने कहा कर्म फल।
कैसा कर्म फल? अभी तो कुछ जीया नहीं कुछ किया नहीं और दुःख रूपी कर्म फल आ टपका? अभी तो पिता के घर खुश थी, व्यसनी पति से ब्याही और दुःख का ढेर लग गया।
फिर तर्क निकाला।
पिछला कुछ बाक़ी होगा।
पिछला तो बचपन था।
बताया पिछला जन्म था। एक नहीं अनेक जन्मजन्मान्तर।
बस तर्क में बांध लिया। नियति मान वक्त कटने लगा। ना फ़रियाद ना छूटने का प्रयास। कोल्हू का बैल बन गई।
दूसरे ने कहा दुःख का पता लगाओ।
कहाँ होता है दुःख?
क्यूँ होता है दुःख?
यह शारीरिक कम अपितु मानसिक ज़्यादा है।
हर मनुष्य के दुःख अलग-अलग है। एक ही परिस्थिति में मनुष्य मनुष्य के दुःख कम ज़्यादा कैसे है? ज़रूर सोफ्टवेर की गलती है। पता लगाया तो आसक्ति और तृष्णा का भेद पाया। इच्छा और तृष्णा को दुःख का कारण मानकर उससे छूटने के सूत्र बनाये।
तीसरा आया। अरे क्या कर रहे हो? क्यों चक्की पीसे जा रहे हो? तुम जिसे दुःख मानते हो वह वास्तव में है ही नहीं। तुम अपना स्वरूप भूल गये हो। वह तो अमर है। ना उसे मौत का भय ना पीड़ा का। बस जिसमें पीड़ा हो रही है उस डिब्बे को छोड़ो और अमर डिब्बे में बैठ जाओ।
महिला बड़ी परेशान है।
न पति दारू छोड़ता है न उसे पड़ रही मार कम हो रही है। मर-अमर के खेल में उसका वजन दिन प्रतिदिन कम हो रहा है। गाल पिचके जा रहे है। बच्चों की लाइन लगी है। चूल्हा चक्की से छूटकारा नहीं हो रहा। अब करें तो क्या करें? पति छोड़कर कहाँ जाये? बदन भी तंदुरुस्त नहीं रहा। तृष्णा इच्छायें तो सब दब गई उस दुःख के भार से। छोड़ने पकड़ने का अवसर ही कहाँ? कर्म तो चूल्हा चक्की है पर फल तो आतंक के रूप में बाहर से आ रहे है। अब कैसा विवेक करें या कैसा अविवेक? जब ज़ंजीरों में जकड़ी गई और ज़ंजीर तोड़ने का आधार दूसरों पर निर्भर हो तो मुक्ति कैसे? मौत के सिवा कोई मुक्ति नहीं।
होगी मुक्ति उन लोगों की जिसे दो वक्त की रोटी की चिंता नहीं। जिसे पति या समाज की मार नही। जिसके पास पूर्ण समय है अपने मन में उठ रहे विचारों तरंगों को देखने का, अभ्यास करने का। तत्व चिंतन वही कर पायेगा। यहाँ तो मन और तन दोनों जकड़ लिये गये है। उठना थकना सोना, फिर उठना थकना सोना। बस पूर्ण सो जाने का इंतज़ार ही रहा।
युक्ति या अयुक्ति, कुछ भी नहीं चलता यहाँ।
जिसके हाथ में लाठी, मानो उसका ही बैल।
धर्म व्यवस्था सुधार के लिए आया होगा पर मज़हब बन सत्ता का साधन ही बन गया।
पूनमचंद
११ जून २०२२
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